9 सितम्बर 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ चुनाव का परिणाम आने के बाद इस पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गयीं। दक्षिणपंथी संगठनों में इन परिणामों को लेकर निराशा थी तो वहीं दूसरी तरफ उदारवादी व तथाकथित वामपंथी हिस्सों में खुशियां मनायी जा रही थीं। कुछ लोग तो और भी आगे बढ़ते हुए इसे फासीवाद की हार व वामपंथ की जीत के रूप में प्रस्तुत करने लगे। आखिर आम छात्र आबादी को इन चुनावों को किस नजरिए से देखना चाहिए? आइए गहराई में उतरकर कुछ सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश करें।
इस बार के चुनाव में चारों मुख्य सीटों पर आइसा-एस.एफ.आई. गठबंधन ने जीत हासिल की। अध्यक्ष पद पर वाम गठबंधन के मोहित पाण्डे ने 1815 वोट पाकर जीत दर्ज की। बापसा (बिरसा फुले अंबेडकर स्टूडेन्ट एसोसिएशन) के राहुल 1488 व एबीवीपी की ज्हानवी 1017 वोटों के साथ क्रमशः दूसरे व तीसरे नम्बर पर रहे। इसके अतिरिक्त चारों मुख्य पदों (अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, संयुक्त सचिव) में से एक पर बापसा, दो पर एबीवीपी व एक पर डीएसएफ (डेमोक्रेटिक स्टूडेन्ट फेडरेशन) दूसरे नम्बर पर रहा। विभिन्न कालेजों के काउंसलर पदों के लिये हुए चुनावों में 31 में से 30 पर वाम गठबंधन व एक पर (संस्कृत डिपार्टमेंट) एबीवीपी की जीत हुयी।
तथ्यों को एक नजर देखने से नजर आता है कि एबीवीपी को पिछले साल के मुकाबले नुकसान उठाना पड़ा है। परन्तु मतों के योग में वह जेएनयू के भीतर सबसे बड़ा छात्र-संगठन बनकर उभरा है। इन वोटों के गणित से स्पष्ट है कि यदि आइसा-एसएफआई गठबंधन न बना होता तो शायद जेएनयू की ‘लाल माटी’ भगवा हो जाती। ऐसे में इसे ‘फासीवाद की हार’ कहने के बजाए वाम-गठबंधन की जीत कहना ज्यादा उचित है।
हालिया चुनाव 9 फरवरी की घटना के बाद होने वाला पहला चुनाव था। जाहिरा तौर पर ये मुद्दा इन चुनावों में भी छाया रहा परंतु इसकी अंर्तआत्मा गायब थी। 9 फरवरी की घटना में कश्मीर का सवाल एक मुख्य सवाल था और इसी को मुद्दा बनाकर दक्षिणपंथी ताकतों ने पूरे जेएनयू पर हमला बोला था। परंतु तथाकथित वामपंथी संगठनों ने इन चुनावों में जेएनयू पर हुए दमन को तो मुद्दा बनाया पर कश्मीर के सवाल पर वो चुप्पी लगा गए। ऐसे में जो दक्षिणपंथी ताकतें चाहती थीं वही हुआ। वो चाहती हैं कि कश्मीर पर बात न हो, अफजल की फांसी पर बात न हो, कश्मीरी नौजवानों की सुरक्षा बलों द्वारा हत्या पर बात न हो और जेएनयू चुनावों में यही हुआ भी। वहीं पर इन तथाकथित वाम संगठनों का संशोधनवाद व अवसरवाद नजर आता है।
पूर्व में जेएनयू के भूतपूर्व अध्यक्ष कन्हैया ने अपने भाषण में कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानकर, कश्मीरी अवाम के संघर्ष का माखौल उड़ाया था। गौरतलब है कि ये चुनाव भी ऐसे समय में हो रहा था जब कश्मीर का मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर बना हुआ है और कश्मीर में कफ्र्यू लगा था। 50 से अधिक नौजवान सुरक्षाबलों की गोलीबारी में मारे जा चुके थे। ऐसे माहौल में कश्मीर के सवाल को सिरे से गायब कर देना अवसरवाद-संशोधनवाद नहीं तो क्या है?
तथाकथित वामपंथियों का ये अवसरवाद ‘वाम गठबंधन’ बनाने के दौरान भी दिखा। जब एआईएसएफ (कन्हैया का संगठन), डीएसएफ व तमाम अन्य वामपंथी छात्र संगठनों को साइड रखकर आइसा-एसएफआई ने गठबंधन बना लिया। इस गठबंधन को बनाने के पीछे तर्क दिया गया कि फासीवादी ताकतों को रोकने के लिए वाम गठबंधन जरूरी है। वैसे इन संसदीय वामपंथियों का ये तर्क जेएनयू से कुछ किलोमीटर दूर स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय तक आते-आते उड़न-छू हो गया। जहां एबीवीपी ज्यादा मजबूत है परंतु इसके बावजूद यहां बने वाम- गठबंधन से आइसा दूर रहा। यदि फासीवाद ही खतरा है तो डीयू में गठबंधन क्यों नहीं बनाया गया? यदि फासीवाद ही खतरा है तो जेएनयू में एआईएसएफ व डीएसएफ को गठबंधन से दूर क्यों रखा गया? ये बात सच है कि कैम्पसों पर बढ़ रहे फासीवादी हमले के खिलाफ सभी जनवादी ताकतों को एकजुट होने की जरूरत है और ये किया भी जाना चाहिए परंतु यदि इसमें भी कोई वोटों की जोड़-तोड़ के हिसाब से शामिल होगा तो स्पष्ट है कि उसका असली मकसद फासीवादी हमलों को हराना नहीं बल्कि चुनाव में अवसरवादी तरीके से जीत हासिल करना है और यही सब कुछ तथाकथित वाम गठबंधन द्वारा किया भी गया। जिसका भण्डाफोड़ होना ही चाहिए। यह संशोधनवाद व अवसरवाद आज कुल संसदीय वाम की हकीकत भी है। इन संगठनों की मातृ पार्टियां ना-नुकुर के साथ भारतीय राजसत्ता की नीतियों के साथ खड़ी हैं। ऐसे में इनसे फासीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़े जाने की उम्मीद रखना खुद को धोखा देना है।
जेएनयू चुनावों में बापसा का उभार भी कई लोगों के लिए चैंकाने वाला रहा। मात्र दो साल पुराने इस संगठन ने अध्यक्ष पद पर कड़ी चुनौती दी और यह दूसरे नम्बर पर रहा। मुख्यतः दलित पहचान की राजनीति करने वाला ये संगठन मौजूदा चुनावों में वंचितों की एकता का नारा देते हुए आगे बढ़ा। इसकी राजनीति का इसके द्वारा लगाए गए नारे ‘लेफ्ट-राइट एक हैं, सारे कामरेड फेक हैं’ से लगाया जा सकता है। यह संगठन अंबेडकर, कांशीराम की राजनीति को ही आगे बढ़ाता है, जिसका आप्त वाक्य दलितों की बात करते हुए सत्ता में पहुंचना है। यूं तो यह संगठन भी फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की बात करता है परंतु 9 फरवरी की घटना के बाद जेएनयू पर हुए हमले के खिलाफ चले आंदोलन से इसने एक हद तक दूरी बनाए रखी।
बापसा के उभार के पीछे एक कारण पहचान की राजनीति का हावी होना है। जेएनयू जैसे संस्थान में जहां अन्य पहचान की राजनीति पहले से ही हावी है, उसमें दलित अस्मिता की राजनीति का आगे बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं। दूसरा, तथाकथित वामपंथी संगठनों द्वारा माक्र्सवाद-अंबेडकरवाद जैसी दो विरोधी विचारधाराओं का सम्मिलन करने की कोशिशें भी बापसा जैसे संगठन को खाद-पानी देती हैं। पूरे चुनाव के दौरान अंबेडकर और दलित अस्मिता की राजनीति पर अपने संशोधनवादी और अवसरवादी रुख के कारण वाम-गठबंधन नरम पड़ जाता था जिसका फायदा बापसा को मिला। बापसा का ये उभार नया नहीं है, बल्कि इतिहास में भी जब-जब वर्ग के सवाल को पीछे रखकर अस्मिता की राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिशें की गयी है, तब-तब बापसा जैसी ताकतों ने ही इसका फायदा उठाया है।
कुल मिलाकर जेएनयू में एबीवीपी की करारी हार एक राहत देती है। जेएनयू में एबीवीपी और उसके कर्ता-धर्ताओं, बीजेपी-संघ की कोशिशें एक हद तक नाकाम हो गयीं। ‘वाम गठबंधन’ की जीत इस तरह के संगठनों और पार्टियों की सीमा को उजागर कर देती हैं। जीत के लिए बना गठबंधन बता देता है कि वह कितनी दूर जा सकता है। इनकी जीत कुछ ऐसी है कि किसी बीमार का बुखार तो उतर जाये पर उसकी बीमारी के दूर होने के कोई लक्षण न हो।
समय की मांग है कि जेएनयू सहित विश्वविद्यालयों में एक ऐसी राजनीति और संगठन की शुरुआत हो जो भारत की जनता के क्रांतिकारी संघर्षों से प्रेरित हो और भारत की जनता के मुक्ति के स्वप्न को हकीकत में बदलने के लिये अपने को पूर्ण रूप से प्रस्तुत करे। वाम लफ्फाजी, अकादमिक बहस-मुहाबसे, राजनैतिक कैरियरवाद के दलदल में फंसे लोग वही कर सकते हैं जो उन्होंने इस चुनाव में गठबंधन व तिकड़में बिठाके किया।
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