15 अगस्त के अवसर पर
इस 15 अगस्त को ब्रिटिश शासकों से आजादी हासिल किये हुए हमारे देश को 69 वर्ष पूरे हो गये। पर यह भी वास्तविकता है कि आजादी जितनी पुरानी होती जा रही है, हमारे शासक इस आजादी को अपने स्वार्थों के मद्देनजर उतना ही भोंथरा बनाते जा रहे हैं। शर्मनाक बात यह है कि कभी जिन साम्राज्यवादियों से लड़कर आजादी हासिल की गयी थी आज उन्हीं साम्राज्यवादियों से रिश्ते गांठने को हमारे शासक बेशर्मी से ‘राष्ट्रवाद’ और ‘देशभक्ति’ करार दे रहे हैं। खुद को सबसे बड़ा ‘राष्ट्रभक्त’ घोषित करने वाले हमारे प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिकी साम्राज्यवादी सरगना ओबामा के साथ सेल्फी खिचाने, अमेरिकी संसद में भाषण देने में गर्व महसूस हो रहा है। शासकों के उलट देश की मेहनतकश आम जनता, छात्र-नौजवान अधिकाधिक यह महसूस करते जा रहे हैं कि 1947 की आजादी केवल गोरे अंग्रेजों से आजादी थी कि ‘आजाद’ भारत में भी गरीबी-बेकारी-शोषण का वैसा ही बोलबाला है जैसा पहले था कि अभी देशी पूंजीवादी शासकों, उनके साम्राज्यवादी सहयोगियों से वास्तविक मुक्ति की लड़ाई लड़ी जानी बाकी है।
दरअसल 1947 में हासिल हुई आजादी के लिए देश की मेहनतकश जनता, छात्रों-नौजवानों ने बढ़चढ़कर कुर्बानी दी थी। भगत सिंह-चन्द्रशेखर आजाद सरीखे शहीद होने वाले क्रांतिकारियों की एक लम्बी श्रृंखला रही है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से आजादी के लिए तब जनता के साथ-साथ देश का पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टी कांग्रेस भी सक्रिय थी। परंतु आजादी के लिए जनता और पूंजीपति वर्ग के लक्ष्य अलग-अलग थे। पूंजीपति वर्ग यह चाहता था कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी सत्ता उन्हें सौंप कर देश से चले जायें पर शोषण की सारी मशीनरी ज्यों की त्यों बनी रहे। यह उनके हित में था। क्योंकि अपनी बारी में उन्हंे भी देश की मेेहनतकश जनता का शोषण उत्पीड़न कर अपनी पूंजी बढ़ानी थी। इस हेतु सामन्ती भूस्वामियों से सांठ-गांठ से भी उन्हें गुरेज नहीं था। गांधी-नेहरू और उनकी कांग्रेस पार्टी इसी लक्ष्य के साथ आजादी की लड़ाई में शामिल थे। पूंजीपति वर्ग के उलट देश की मेहनतकश जनता-क्रांतिकारी आजादी का दूसरा ही ख्वाब लेकर चल रहे थे। उनका लक्ष्य था कि सामन्तों-साम्राज्यवादियों की सत्ता को जड़ से खत्म कर देशी पूंजीपति वर्ग की भी लूट पर लगाम कसी जाये और सत्ता पर मजदूर-मेहनतकश काबिज हों। उनका लक्ष्य पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का अन्त करते हुए, शोषण के सभी रूपों का अन्त करते हुए, एक पूर्ण बराबरी वाले समाज की ओर बढ़ना था। ऐसे समाज की ओर बगैर क्रांति के नहीं बढ़ा जा सकता था। इसीलिए जनता क्रांति चाहती थी पर पूंजीपति महज सत्ता परिवर्तन चाहते थे।
1947 में देश ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की गुलामी से मुक्त हो गया पर यह क्रांतिकारी तरीके के बजाय पूंजीपतियों के रास्ते से आजाद हुआ। सत्ता कांग्रेस पार्टी के हाथों में आयी। राजनैतिक तौर पर देश आजाद हो गया यानी अब देश के सभी निर्णयों को लेने का अधिकार देश के लोगों को मिल गया। पर यह अधिकार मेहनतकश जनता के बजाय सत्ता पर बैठे देश के पूंजीपतियों और उसकी पार्टी कांग्रेस के हाथों में आया। आजादी हासिल करने के बाद से ही पूंजीपति वर्ग ने अपने हित साधने के लिए जनता पर डंडा चलाना शुरू कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवादी देश से चले गये पर उनकी कंपनियों को देश में बने रहने दिया गया। सामंती तत्वों से भी शासकों ने सांठ-गांठ की। जनता के संघर्षो के दबाव में कुछ सुधार के कदम उठाये गये पर मूलतः शोषण-उत्पीड़न का जुआ जनता के ऊपर बदस्तूर जारी रहा।
अपने ऊपर से पूंजीपतियों के शोषण उत्पीड़न के जुए को उतार फेंकने के लिए देश की मेहनतकश जनता आजादी के बाद से निरंतर सक्रिय रही है। छात्र नौेजवान बेहतर शिक्षा व रोजगार की मांग उठाते रहे तो मजदूर भी अपने हकों के लिए लड़ते रहे।
देश के शासक पूंजीपति वर्ग ने वैसे तो साम्राज्यवादी लुटेरों के साथ कभी सम्बंध समाप्त नहीं किये थे पर 1980 के दशक की शुरूआत से ही उन्होंने अपनी नीतियों को बदलना शुरू किया और 91 में उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण के नारे के साथ पूंजीपति वर्ग ने साम्राज्यवादियों को देश में लूट खसोट के लिए आमन्त्रित करना शुरु कर दिया। देश के बाजार को साम्राज्यवादी कंपनियों की मार के लिए खोल दिया गया। देशी कंपनियां विदेशी कंपनियों के साथ गठजोड़ करने लगीं। देशी-विदेशी कंपनियों का अन्तर गायब होता चला गया। देशी पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवादियों का कनिष्ठ साझेदार बन गया।
अपने मुनाफे में बढ़ोत्तरी के लिए भारतीय शासकों ने देश की सम्प्रभुता को भी क्रमशः कमजोर करना शुरू कर दिया। विश्व व्यापार संगठन सरीखे संगठनों में भागीदारी कर, साम्राज्यवादियों से तमाम समझौतों में बंध के अपने स्वतंत्र निर्णय का अधिकार छोड़ा जाने लगा। भारत-अमेरिका परमाणु समझौते से लेकर अन्य समझौेते देश की सम्प्रभुता को कमजोर करते हैं। इसी के साथ ढेरों मामलों में साम्राज्यवादियों का दबाव भी बढ़ने लगा। क्या तो कांग्रेस क्या भाजपा दोनों की सरकारों में साम्राज्यवादियों से सांठ-गांठ करने की होड़ मच गयी। नरसिम्हाराव-वाजपेयी-मनमोहन-मोदी सब देश के बड़े पूंजीपति वर्ग के हित में दुनिया भर के चक्कर लगा साम्राज्यवादियों से एक के बाद एक जोड़-तोड़ बैठाने लगे। देश में विदेशी कंपनियों को लाने विदेशी निवेश को लाने को शासकों ने ‘विकास’ व ‘देशभक्ति’ घोषित कर दिया।
देश के मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी ने इस सब में बाकी सबको पछाड़ने की मानो कसम खा ली है। दो वर्षो के शासन में उन्होंने 30 से अधिक देशों के दौरे कर डाले। विदेशी पूंजी, विदेशी निवेश को देश में लाने के लिए बेशर्मी की सारी हदें पार कर दीं। देशी-विदेशी पूंजीपतियों को खुश करने के लिए जहां देश के भीतर मजदूरों पर हमला बोलते हुए श्रम कानून बदले जाने लगे। एक समान टैक्स व्यवस्था जी एस टी लागू करने को जोर लगाया जाने लगा वहीं साम्राज्यवादियों खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों से बढ़चढ़कर सांठ-गांठ की जाने लगी। विदेशी पूंजी के आने की सभी बाधाओं को एक झटके में हटाया जाने लगा यह सब करके हमारे वाक्चतुर प्रधानमंत्री इसे ‘विकास’ व देशभक्ति’ की चासनी में निर्लज्जता के साथ जनता के साथ पेश भी किये जा रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के सत्तासीन होने से पहले गुजरात नरसंहार के उनके कुकर्म के कारण अमेरिका ने उनको अपने देश में आने पर पाबंदी लगा रखी थी। पर सत्तासीन होते ही मोदी को सबसे ज्यादा अमेरिका जाने में ही आंनद आने लगा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से वे दो वर्ष में कई बार भेंट कर चुके हैं। अमेरिकी साम्राज्यवादी भी चीन को घेरने के लिए भारत को अपने पाले में खड़ा करने को प्रयासरत हैं। ऐसे में भारतीय शासक अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ अधिकाधिक सटने को पाक-चीन के खतरे से निपटने मेें सफलता के रूप में पेश कर देश की जनता को बरगला रहे हैं। वे एक के बाद एक करार अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ करके देश की सम्प्रभुता को कमजोर बना रहे है। अभी हाल में ही मोदी सरकार के एक समझौते से भविष्य में अमेरिकी विमानों को भारतीय हवाई अड्डों के इस्तेमाल का अधिकार मिल गया। भारत-अमेरिकी सैन्य युद्वाभ्यास तो अब आम बात हो गयी है। आने वाले दिनों में अमेरिकी साम्राज्यवादी भारत में अपना फौजी अड्डा कायम करने, दुिनया के किसी मुल्क पर बमबारी करते हुए भारतीय हवाई अड्डों का इस्तेमाल करते हुए या फिर अपने हमलो में भारतीय सेना को साथ ले जाते दिखाई पड़ सकते हैं।
अमेरिका से समझौता करते हुए मोदी सरकार व पूंजीवादी मीडिया इसे बड़ी सफलता के रूप मेें पेश करते हुए ये झूठ फैला रहे हैं कि भारत को पाक-चीन के खतरे के खिलाफ अमेरिका का सहयोग मिल गया है। वास्तविकता इसके एकदम उलट है। वास्तव में अमेरिकी सम्राज्यवादी चीन को घेरने के लिए भारतीय शासकों को अपने साथ खड़ा करने में सफल हुए हैं। अमेरिकी सम्राज्यवादी दुनिया भर में बेकसूर देशों में बमबारी, उनकी सम्प्रभुता छीनने के लिए बदनाम रहे हैं। अब इन अभियानों में भारत उनका सहयोगी बनता जा रहा है। भारतीय शासक अब केवल देश की जनता के शोषण-कत्लेआम से संतुष्ट नहीं हैं। वे अमेरिका के पीछे चल वैश्विक पैमाने पर जनता के कत्लेआम में भूमिका निभाना चाहते हैं। वैसे भी मोदी गुजरात नरसंहार के सफल प्रयोग के बाद कोई नया प्रयोग करने को उत्सुक होंगे ही।
मोदी की इस अमेरिका भक्ति का ईनाम अमेरिका ने उसे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनसएजी) में शामिल करने पर समर्थन देकर किया पर अमेरिका-रूस के राजी होने के बावजूद चीन समेत दस देशों के विरोध से भारत एनएसजी का सदस्य नहीं बन पाया। मोदी को मुंह की खानी पड़ी।
मोदी सरकार देश का ‘विकास’ करने की बेहद जल्दबाजी में हैं। वो किसी भी कीमत पर देश में ‘विकास’ की गंगा बहाने के चक्कर में हैं। भले ही ‘विकास’ की यह धारा देश के मजदूरों से स्थाई काम, श्रम कानून छीन लेती हो, छात्रों-नौजवानों को नौकरी के नाम पर केवल ठेके की 10-12 घण्टे की नौकरी देती हो या वह भी न दे बेरोजगारी बढ़ाती हो, पर हमारे प्रधानमंत्री किसी भी कीमत पर ये विकास का ‘कहर’ ढाने पर उतारू हैं।
यह ‘विकास’ विदेशी निवेश से होना है इसीलिए मोदी सरकार ने अभी एक झटके में 15 क्षेत्रों में एक साथ विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा दी। रक्षा, दवा, केबल-मोबाइल नेटवर्क, फूड प्रोसेसिंग, एअर लाइन, पशुपालन में शत प्रतिशत विदेशी निवेश की छूट दे दी गयी तो प्राइवेट सिक्योरिटी, ब्राउन फील्ड फार्मा में 74 प्रतिशत तक विदेशी निवेश की छूट बढ़ा दी है। साथ ही साथ विदेशी निवेश पर सरकार व रिजर्व बैंक की अनुमति लेने को काफी ढीला कर दिया है। यह सब करके भारत सरकार बेशर्मी से घोषित कर रही है कि भारत दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था बन गयी है। वैसे आकंड़ों की बाजीगर मोदी सरकार तो सबसे अधिक विदेशी निवेश भारत में होने का झूठा दावा भी कर रही है।
वक्त के साथ शासकों ने पूंजीपतियों के हितों के अनुरूप ‘देशभक्ति’ व ‘राष्ट्रवाद’ की परिभाषाएं बदल दी हैं। कभी विदेशी कंपनियों-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को देश से खदेड़ने के लिए संघर्ष देशभक्ति था पर आज पूंजीपतियों ने अपने हित में विदेशी पूंजी को देश में बुलाने को देशभक्ति करार दिया है। वैसे भी जब देश के पूंजीपति पूरी दुनिया में निवेश कर रहे हों, देशी-विदेशी पूंजी आपस में गठजोड़ कर रही हो, वैश्वीकरण की बयार बह रही हो तब पूंजीपतियों-सरकारों के लिए अधिकतम मुनाफा ही एकमात्र देशभक्ति रह जाती है। हालांकि पहले भी यह मुनाफा ही इनके सभी कर्मों का प्रेरक तत्व था।
देश का बाजार खोलने, संप्रभुत्ता को कमजोर करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों से समझौता कर प्रधानमंत्री मोदी पूंजीपति वर्ग की सेवा कर रहे हैं। परंतु आज पूंजीपतियों और देश की जनता के हित एक दूसरे से एकदम विरोधी हो चुके हैं। जो चीज पूंजीपतियों के फायदे की है वो जनता के लिए नुकसान की है। इसीलिए मोदी व पूंजीपति जिन कर्मों को ‘देशभक्ति’, ‘विकास’ का नाम दे रहे हैं जनता उसे देश बेचने व थाली से आखिरी निवाला छीनने के बतौर देख रही है। पूंजीपतियों के नजरिये से जो ‘विकास’ है जनता, छात्रों-नौजवानों के नजरिये से वह रोजी-रोटी छीनना, शिक्षा, स्वास्थ महंगा होना, रोजगार के अवसर कम होना है। जाहिर है दोनांे नजरियों मेेें से जनता, छात्रों-नौजवानों का नजरिया ही सही है क्योंकि मोदी के ‘विकास’ की रफ्तार से रोजगार वृद्धि की बंूद भी नहीं टपक रही है। यह असल में विकास नहीं ‘विनाश’ है।
ऐसे में, आजादी की 69 वीं वर्षगांठ मेहनतकशोें, छात्रों-नौजवानों को यह याद करने का दिन है कि आजादी भगत सिंह सरीखें शहीदों के रास्ते मिलती तो देश की तस्वीर आज कुछ और होती। यहीं से यह बात भी निकलती है कि वास्तविक मुक्ति व बराबरी की लड़ाई अभी भी लड़ी जा रही है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के खात्मे से व समाजवादी समाज के निर्माण से ही पूंजीपति की लूट से देश की जनता को मुक्ति मिलेगी। तभी हरेक हाथ को गरिमामय काम, हर बच्चे को पूर्णबराबरी के साथ वैज्ञानिक शिक्षा मिल सकेगी। जरूरत है कि आज देश को बेचने पर उतारू, खुला बाजार बनाने पर उतारू पूंजीपतियों व उनके कारिन्दे प्रधानमंत्री मोदी को बेनकाब किया जाये। उनके अंधराष्ट्रवाद केा बेनकाब किया जाये। इंकलाब की तैयारी की जाये।
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