रविवार, 1 मई 2016

भारत में जाति व्यवस्था

-महेन्द्र

        जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक क्रूर सच्चाई है। भारत का इतिहास जाति व्यवस्था की अमानवीयता से भरा पड़ा है। समाज के एक बड़े हिस्से को पशुओं से भी नीचे का जीवन जीने को मजबूर किया गया और यह सब जातीय श्रेष्ठता व हीनता वाली जाति व्यवस्था के आधार पर किया गया। हिन्दू धर्म में जातियों का एक ऐसा सोपानक्रम है जिसमें सबसे नीचे दलित जाति और सबसे ऊपर ब्राह्मण जाति थी। क्योंकि जाति का निर्धारण जन्म से ही हो जाता था इसलिए पवित्रता और अपवित्रता भी जन्म से ही तय होती थी। ब्राह्मण सबसे पवित्र तो अंत्यज (दलित) सबसे अपवित्र माने जाते रहे हैं। इसमें शारीरिक काम शूद्रों व अंत्यजों के हिस्से तो बौद्धिक काम ब्राह्मणों के पास रहे हैं। सभी जातियों के अपने-अपने विशिष्ट काम निश्चित थे। वह काम उन जातियों के अलावा अन्य जाति के करने में मनाही थी। विवाह सम्बन्ध भी जाति के भीतर ही बनाये जाते थे। इसका उल्लंघन करने पर जाति से निकाला देकर कठोर दंड दिया जाता था। 

        हजारों साल बाद आज भी जातिगत भेदभाव व उत्पीड़न की घटनाएं हमारे समाज में जाति व्यवस्था की गहरी जड़ों को दिखाती हैं। ‘सवर्ण श्रेष्ठताबोध’ के चलते सवर्ण जातियों द्वारा दलितों पर अत्याचार की घटनाएं जब-तब सामने आती रहती हैं। यह और भी घृणित है कि समानता के अधिकार की रक्षा की बात करने वाली राज्य मशीनरी के विभिन्न अंग भी सवर्ण मानसिकता के चलते दलितों से भेदभाव व उत्पीड़न करते पाये जाते हैं। 
        जाति व्यवस्था का इतिहास - जाति व्यवस्था से पूर्व वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आयी। जिसमें समाज मुख्यतः चार वर्णों में बंटा हुआ था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र। इसके अलावा वर्ण व्यवस्था सेे बाहर एक और समूह था, जिसको अछूत या अंत्यज कहा गया। यह वर्ण व्यवस्था के सामाजिक ताने-बाने से ही बाहर था। वर्ण व्यवस्था के अनुरूप शूद्रों का कर्तव्य ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना था। शूद्रों, अछूतों की छाया मात्र से ही ‘उच्च वर्णों’ के लोग अपवित्र हो जाते थे। हालांकि शूद्रों व अछूतों की मेहनत के फल का उपभोग करने से उच्च वर्णों के लोग अपवित्र नहीं होते थे। वर्ण व्यवस्था के निर्माताओं (ब्राह्मणों) द्वारा शूद्रों, अछूतों का क्रूर शोषण व उत्पीड़न का औजार वर्ण व्यवस्था ही थी। कबीलाई समाज से दास समाज में प्रवेश करते समय भारत में अलग-अलग वर्गों की उत्पत्ति वर्णों के रूप में हुई। प्राचीन भारत में अस्तित्वमान यह वर्ण व्यवस्था मूलतः वर्ग व्यवस्था थी। शासक सवर्ण वर्ण/वर्ग द्वारा शूद्रों, अंत्यजों के शोषण-उत्पीड़न को कारगर व वैधानिक बनाने हेतु उन्होंने अनेक पाखण्डपूर्ण धर्म ग्रन्थों व संहिताओं की रचनाएं की। इन धर्म ग्रन्थों व संहिताओं द्वारा न सिर्फ शूद्रों व अछूतों को शिक्षा से दूर रखा गया बल्कि उनके मंदिर प्रवेश पर भी प्रतिबंध था। इस प्रकार सवर्ण वर्ग के शासकों के ईश्वर भी मानवों में भेदभाव करते थे। 
        भारत में वर्ण व्यवस्था का इतिहास 2000 ई0पू0 के बाद आर्यों के आगमन के साथ शुरू हुआ। आर्यों के कबीले अनेक टोलियों के रूप में भारत में आये। उनके जीविका के साधन युद्ध द्वारा भोज्य सामग्री जुटाना व पशुपालन द्वारा दूध व मांस था। कालांतर में युद्ध, आखेट एवं पशुपालन की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न वंशमूलों के लोग एक-दूसरे के संपर्क में आये। इस प्रकार दल या समूह के लोग जो भी भोजन जुटाते थे, उसका सामूहिक उपभोग करते थे। विकास के आगे के चरण में और भी बड़े वंश समूहों का निर्माण हुआ, जिसे ‘कबीला’ अथवा ‘जन’ या ‘जनजाति’ कहा गया। 
        ऋग्वैदिक काल में लोग जनजाति पर आधारित इकाई के प्रति निष्ठावान होते थे, जिसका नेतृत्व विभिन्न कोटि के सरदार करते थे। कबीले के सरदार को ‘राजन’ अथवा ‘जनस्य गोप’ भी कहा जाता था। बहुत शुरू में राजन या राजा का चुनाव जनजाति के लोग समिति में एकत्र होकर करते थे जो बाद में जाकर वंशानुगत हो गया। कबीले के लोग राजा को स्वैच्छिक भेंट देते थे। लूट में समस्त कबीले का अधिकार होता था। कोई पेशेवर फौज का अस्तित्व न था। जरूरत पड़ने पर कबीले के सभी लोगों को इकट्ठा किया जाता था। ऋग्वैदिक काल में यज्ञों का बड़ा महत्व था। इन यज्ञों को अलग-अलग पुरोहित सम्पंन करते थे। ‘ब्राह्मण’ भी एक प्रकार के पुरोहित थे, जिन्होंने कालांतर में सभी प्रकार के कर्मकाण्डों व धार्मिक अनुष्ठानों पर अपना एकाधिकार कर लिया। 
        इस प्रकार ऋग्वैदिक काल में आर्यों में ‘राजन्य’ (योद्धा व सरदार), ‘पुरोहित’ एवं ‘विश’ (सामान्य जन) के रूप में सामान्य विभाजन हो गया। 
        आर्यों को भारत में यहां की आर्य पूर्व जनजातियों से भी युद्ध करना पड़ा जिसमें ‘दास’ तथा ‘दस्यु’ प्रमुख थे। इन आर्य पूर्व जनजातियों की बोली, रहन-सहन, आदि आर्यों से भिन्न था तथा इनमें कर्मकाण्डों व यज्ञों का प्रचलन भी नहीं था। जिस कारण आर्य इनके विरोधी हो गये, हालांकि आर्यों द्वारा युद्धों का प्रधान कारण इनकी सम्पत्ति को हड़पने का था। युद्ध में विजित दास जनजाति के लोग बाद में भी ‘दास’ कहलाये, लेकिन अब दास शब्द का अर्थ बदल चुका था। इस प्रकार प्रथम वर्ण विभाजन आर्यों (योद्धा, पुरोहित, विश) तथा दासों में हुआ। 
        वैदिक लोगों के गंगा के मध्य मैदानों (उत्तर प्रदेश व बिहार) में आने पर उन्हें लोहा मिला, जिनसे उन्होनें हल के लौहफाल व अन्य उपकरण बनाये जिससे पैदावार में वृद्धि हुई।
        कुछ परिवारों ने इतनी अधिक भूमि पर कब्जा कर लिया कि उन्हें भाड़े के श्रमिकों की आवश्यकता पड़ने लगी। इन नयी परिस्थितियों में थोड़े से लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त हुए। वे अतिरिक्त उत्पादन का उपभोग करते थे व सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बनाये हुए थे। अतिरिक्त उत्पादन को हड़पने के लिए वर्ण व्यवस्था की स्थापना की गई। 
        वर्ण व्यवस्था को स्थाई बनाने के लिए राज्य का निर्माण किया गया। इसके तहत राजन्य व योद्धा, जो किसानों से कर लेते थे, क्षत्रिय कहलाये। कृषक जो मुख्यतः करदाता थे, ‘वैश्यों’ की कोटि में रखे गये। जो लोग दासों, घरेलू नौकर अथवा मजदूरी का काम करते थे, शूद्र कहलाये। 
        वर्ण व्यवस्था के प्रारंभ में शूद्रोें के साथ वह अन्यायपूर्ण व भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं हुआ जिसका आगे चलकर वे शिकार हुए। शूद्र व वैश्य आपस में विवाह सम्बंध स्थापित कर सकते थे तथा धार्मिक मामलों में भी शूद्रों को कुछ अधिकार प्राप्त थे। 
        उत्तर वैदिक काल आते-आते शूद्रों के साथ भेदभाव बढ़ता गया और उनके अधिकार छीनकर उनको अशक्त बना दिया गया। मनुस्मृति ने तो उनका दर्जा इंसान से गिराकर पशुवत बना दिया। 
        500 ई0पू0 से लेकर 500 वर्षों तक भारतीय समाज तीव्र परिवर्तनों से गुजरा। जिसने कृषक अर्थव्यवस्था का सार्वभौमीकरण किया तथा साथ ही जाति के रूप में विभाजित किसान वर्ग का निर्माण किया। समय के साथ लोहे के औजार किसानों को सीधे-सीधे उपलब्ध होते गये। कोई भी किसान नयी जमीन साफ करने के लिए लोहे के औजारों का प्रयोग कर सकता था। कृषि के इस जनतंत्रीकरण ने सामाजिक परिवर्तनों को भी जन्म दिया। जनजातियों का विभाजन हुआ और उनका स्थान जातियों ने ले लिया। कृषि के प्रसार और जनतंत्रीकरण के कारण नई-नई जनजातियां कृषक समाज में शामिल होती चली गयीं। 
        इस तरह जातियों की उत्पत्ति का मूल कारण व्यापकतर समाज में जनजातीय तत्वों का अवशोषण रहा है। यह प्रक्रिया कई सदियों तक चलती रही। भारी संख्या में जातियों का होना तथा हर जाति में विशिष्ट जनजातीय रिवाजों का पाया जाना इसी बात का द्योतक है। व्यापकतर समाज में शामिल होने पर जनजातियों के उच्च कोटि के तत्वों ने वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय (राजपूत) के समकक्ष स्थान की मांग की और एक हद तक उनको यह स्थान प्राप्त भी हुआ। इस कारण क्षत्रिय वर्ण में नई-नई जातियों का उद्भव हुआ जबकि जनजातीय किसानों को शूद्रों की स्थिति में धकेल दिया गया। भोजन संग्रह करने वाली आखेटक आबादी को अधीन बनाकर अछूत जातियों का जन्म हुआ। 
  200 ई0पू0 से 600 ई0 तक तथा 600ई0 से 1200ई0 तक दो चरणों में अछूतों की श्रेणी में नई-नई जातियां सम्मिलित होती चली गयीं। चूंकि अछूतों को गांवों से अलग रखा जाता था तथा उनके पास कभी जमीन नहीं रहने दी गयी इसलिए वे कभी किसान नहीं बन सके। 
        कृषि एवं व्यापार के विकास ने अनेक शिल्पों एवं व्यवसाय को जन्म दिया। इसके बाद अनेक व्यापारिक एवं शिल्प संघ अस्तित्व में आये। कालांतर में ये शिल्प संघ जड़ीभूत होकर विभिन्न जातियों में बदल गये। इनसे चित्रकार, मालाकार, सूत्रकार, मोदक, तांबूलिक, आदि जातियां निकलीं। इनको शूद्र वर्ण में स्थान मिला। 
  जाति प्रथा में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोपरि थी। ब्राह्मणों ने मिथकों, अंधविश्वास व पाखंडों से युक्त अनेक संहिताओं एवं धर्म सूत्रों की रचना कर वर्ण व्यवस्था को दैवीय विधान बनाया। इसलिए वर्ण व्यवस्था को ब्राह्मणवाद या ब्राह्मणवादी व्यवस्था भी कहा जाता है। 
        वर्ण व्यवस्था को पहली चुनौती बौद्ध धर्म से मिली। इसने वैदिक कर्मकाण्डों का विरोध किया तथा अपने दरवाजे सभी वर्णों के लिए खोल दिये। यद्यपि बौद्ध धर्म ने जाति व्यवस्था में हलचल मचा दी तथापि बौद्ध मठों के दरवाजे दासों व कर्जदारों के लिए बंद थे। कालांतर में बौद्ध धर्म कुलीनों व राजाओं के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगा, जिससे इसका प्रभाव कम होने लगा तथा ब्राह्मणवाद को फलने-फूलने का मौका मिला। बौद्ध धर्म की भांति ही जैन धर्म ने भी कुछ सुधारवादी बदलाव जाति व्यवस्था में किए लेकिन मूलभूत परिवर्तन करने में वह भी असफल रहा। 
        मध्यकाल में धर्म एवं जाति के बंधनों पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए मध्यकाल में सूफी और भक्ति आंदोलन के रूप में एकेश्वरवादी आंदोलन ने जन्म लिया। यह आंदोलन जाति प्रथा एवं कर्मकाण्डों की निंदा करता था और मनुष्यों की समानता पर बहुत जोर देता था। इनके प्रणेता निम्न जातियों से थे- जैसे नामदेव रंगसाज थे, कबीर बुनकर थे, रैदास चमार थे, सेना नाई थे और धन्ना जाट किसान थे। नानक मामूली व्यापारी के बेटे थे, तुकाराम नीची जाति के एक व्यापारी थे तथा चैतन्य भी एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे। इस आंदोलन ने जाति प्रथा को नष्ट किये बिना उसमें कुछ सतही परिवर्तनों को जन्म दिया। 
        औपनिवेशिक शासन व जाति व्यवस्था- अंग्रेजों ने भारत में पुरानी आदिम सामुदायिक ग्राम्य व्यवस्था को नष्ट कर पुराने सामंतवाद के स्थान पर जमींदारी, महलवारी व रैयतवारी की नयी भूमि व्यवस्था लागू की। इससे गांवों की आत्मनिर्भरता काफी हद तक टूटी। विकसित हो रहे सामंतवाद मंे कृषि व दस्तकारी का समागम नष्ट होने लगा। पुराने औद्योगिक शहर उजड़ने लगे। उस काल में दस्तकारों के एक बड़े हिस्से को खेती को रोजगार बनाना पड़ा। वे खेतिहर मजदूरों में तब्दील हो गये और विशाल मजदूरों की शक्ति में शामिल होकर निर्माण कार्यों में लग गये। इस तरह पेशे से जाति का विलगाव की प्रक्रिया शुरु हो गयी। आधुनिक उद्योगों, दूरसंचार, वर्कशाप, अस्पताल, आदि-आदि चीजें पुराने ढ़ाचे व उससे जुड़ी जाति व्यवस्था को कमजोर करने की ओर बढ़ी। अंग्रेजों ने बहुत योजनाबद्ध तरीके से जाति व्यवस्था को बरकरार रखा। इससे अंग्रेजों को कई लाभ थे। समाज के हाशिये पर अधिकारविहीन खड़ी निम्न जातियों से उनको सस्ते मजदूर उपलब्ध होते थे। जाति व्यवस्था ने अंग्रेजों को ऐसा समाज प्रदान किया था जिससे बलपूर्वक छीनने की बहुत कम जरूरत थी। यह जाति व्यवस्था भारतीय समाज को बांटती थी। जातियों में विभाजित भारतीय समाज में मजदूर भी विभाजित था, जो उनके लिए हितकारी था।
धर्म सुधार आंदोलन व जाति समस्या- अंग्रेजों द्वारा अपने शासन को सुदृढ़ बनाने के लिए पश्चिमी व आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया गया। अभिजात भारतीयों का एक तबका इससे पश्चिमी विचारों और जीवन दर्शन के संपर्क में आया। भारत के सड़े-गले समाज को नया जीवन देने के उद्देश्य से यह तबका धार्मिक व समाजसुधार आंदोलन की ओर उन्मुख हुआ। इसमें राजा राममोहन राय, केशव चंद्रसेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, महादेव गोविंद रानाडे प्रमुख थे। राजा राममोहन राय ने 1928 में ब्रह्मसमाज की स्थापना की, जो मूर्तिपूजा, जातिप्रथा, छुआछूत, धार्मिक कट्टरता का विरोध करता था। 1870 में महादेव गोविंद रानाडे ने बंबई में प्रार्थना समाज की स्थापना की जो जाति प्रथा, बाल विवाह, मूर्तिपूजा एवं हिन्दू धर्म की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाता था। स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्यसमाज की स्थापना कर हिन्दू धर्म के पुनरूत्थान की कोशिश की। आर्यसमाज का मूल मंत्र ‘वेदों की ओर लौटो’ था। दयानंद सरस्वती यज्ञों व वैदिक कर्मकाण्ड़ों को पुनर्जीवित करना चाहते थे तथा वर्णाश्रम व चातुर्वण्य व्यवस्था का भी पुनरुत्थान चाहते थे। उन्होंने मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बाल विवाह, परंपरागत ब्राह्मणवाद, पुरोहितों की धार्मिक कट्टरता व धर्मान्तरण का विरोध किया। आर्यसमाज ने दलित वर्ग को काफी प्रभावित किया। इसने दलितों को यज्ञोपवीत धारण करने की इजाजत दी तथा अस्पृश्यों को स्पृश्य बनाने व उनमें शिक्षा का प्रसार कर उन्हें हिन्दुओं के समकक्ष लाने का प्रयास किया। लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था को मूलतः सही मानने के कारण यह वर्ण व्यवस्था व जातिवाद को कमजोर करने में असफल रहा। 
        धर्म सुधार आंदोलन भविष्य की बजाय अतीत से अधिक अभिप्रेरित था तथा उसी ओर लक्षित था। यह हिन्दू धर्म को नये दौर में नये तर्कों व नए ज्ञान से परिमार्जित कर उसमें सुधार की एक कोशिश थी। इन्हीं कमियों एवं कमजोरियां के कारण यह आंदोलन जाति व्यवस्था में कोई बड़ा परिवर्तन करने में असफल रहा। लेकिन फिर भी इस आंदोलन ने धार्मिक रूढ़ियों एवं अंधविश्वास के स्थान पर सीमित तर्कपरकता को स्थापित किया और धर्म को अधिक मानवीय बनाने का प्रयास किया। 
        दलित आंदोलन- आजादी से पूर्व महाराष्ट्र में सर्वप्रथम जाति उभार पैदा हुआ। यहां ज्योतिबा फुले ने जोरदार आंदोलन विकसित किया। उन्होंने हिन्दू धर्मग्रंथों का तार्किक अध्ययन कर उनमें निहित पाखंड व विसंगतियों को जनता के सामने रखा। ‘गुलामगिरी’ उनकी ऐसी ही कृति है। इस पुस्तक को दलितों की मुक्ति का ‘घोषणापत्र’ कहा गया। उन्होंने अछूतों व महिलाओं के स्कूल शुरू किये। उन्होंने गीत, नाटकों द्वारा उच्च जातियों के सामंती शोषण का भंड़ाफोड़ कर सांस्कृतिक आंदोलन विकसित किया। फुले एक सामाजिक क्रांतिकारी थे लेकिन ऐसा होते हुए भी मजदूरों-किसानों को संगठित करने के उनके प्रयासों व ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ उनके आंदोलनों में वर्ग दृष्टिकोण को वे पूरा नहीं कर सके। 
        उन्नीसवीं सदी के अंत में ई0वी0 रामास्वामी ‘पेरियार’ के नेतृत्व में मद्रास हिन्दू समाज एसोसिएशनय के रूप में दूसरा सामाजिक सुधार आंदोलन हुआ। इस आंदोलन ने उत्पीड़ित जनता को जाति विभाजन एवं उच्च जातियों को प्राप्त विशेषाधिकारों, अंधविश्वासों के खिलाफ संगठित किया। अन्य आंदोलनों की तुलना में इस आंदोलन ने धार्मिक मूलग्रंथों की नई व्याख्या द्वारा सुधार करने के बजाय तर्कपरक भौतिकवादी दृष्टिकोण देने का प्रयास किया। अपनी तमाम क्रांतिकारी संभावनाओं के बावजूद पेरियारवादी आंदोलन 1950 के भारतीय संविधान के चैखटे के भीतर एक सुधारवादी आंदोलन में तब्दील हो गया। 
        इसी तरह केरल में श्रीनारायण गुरू के नेतृत्व में झावाओं का जुझारू आंदोेलन, बंगाल में जागेन मंडल में तान शूद्रों के आंदोलन रहें। पंजाब में आदि धर्म, उत्तर प्रदेश व हैदराबाद में आदि हिन्दू तथा दक्षिण भारत में आदि द्रविड़, आदि आन्ध्रा, आदि कर्नाटक जैसे छोटे आंदोलन भी रहे जिन्होंने खुद को भारत का मूल निवासी घोषित किया। 
        अंबेडकर व जाति विरोधी आंदोलन- आधुनिक समय के दलित आंदोलनों में अंबेडकर द्वारा किया गया आंदोलन सर्वाधिक प्रभाव रखता है। अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन को मुखरता मिली। 1927 को महाड़ में हजारों दलितों ने ‘दलित मार्च’ कर तालाब का पानी पिया। इस आंदोलन ने दलितों के भीतर सामाजिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का साहस पैदा किया। इसके बाद मनुस्मृति को जलाकर शास्त्रों की पवित्रता में लोगों के विश्वास को तोड़ा। हजारों अछूतों को लेकर नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए कूच किया। मंदिर के प्रबंधकों ने 1 वर्ष के लिए मंदिर के कपाट बंद कर दिये। 
        अंबेडकर के संघर्ष सामाजिक समानता की बात तो करते थे लेकिन संपत्ति सम्बंधों को खत्म करने की बात नहीं करते थे। उनका संघर्ष ब्रिटिश शासन के अंतर्गत संरक्षण और आरक्षण की मांग तक ही सीमित रहा। वर्गीय सीमाओं के बावजूद अंबेडकर सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ दलितों में चेतना भरने तथा संविधान में दलितों के पक्ष में आरक्षण के रूप में उस दौर के लिए प्रगतिशील प्रावधान लागू करवाने में सफल रहे। 
        पूंजीवादी विकास एवं जाति का बदला रूप- आजादी के बाद पूंजी ने समाज में अपना असर दिखाया। पूंजीवाद के विकास के साथ पुराने सामंती सम्बंध अर्थव्यवस्था के साथ-साथ समाज में बदलते चले गये। सामंती श्रम विभाजन का स्थान पूंजीवादी श्रम विभाजन ने ले लिया। पूंजीवाद में जाति का पेशे से सम्बंध विच्छेद होता चला गया। हर तरफ उत्पादन पूंजी के अधीन होता गया जिसे कोई भी पूंजी का मालिक मुनाफा कमाने के लिए अपने हाथ में ले सकता था, चाहे उसकी जाति कुछ भी हो। जैसे लोहे का काम अब लुहार नहीं बल्कि लोहा फैक्टरी का होने लगा, कपड़ा बुनने का काम बुनकर के बजाय कपड़ा मिलों का होने लगा। 
        औद्योगिकीकरण के साथ नई-नई फैक्टरियां खुलीं जिनके मालिक सभी जातियोें में से थे। इस तरह हजारों सालों से चली आ रही जाति व्यवस्था का आर्थिक आधार मूलतः खत्म होने लगा। अब यह मुख्यतः विचारों, मूल्यों, राजनीतिक दावपेंचों आदि में ही बची रह सकती थी। 
        पूंजीवाद व औद्योगिकीकरण ने सभी को मजदूर या पूंजीपति बना दिया। नई पूंजीवादी परिस्थितियों में पिछड़ी खेतिहर जातियों में से कुछ इसका फायदा उठाकर आर्थिक तौर पर समृद्ध होने लगीं। उत्तर प्रदेश, बिहार में यादव, कुर्मी, कोइरी तथा दक्षिण भारत में कम्मा, वोक्कालिंगा, रेड्डी, नायर इसी तरह की जातियां हैं। इसके बरक्स दलितों के मामले में यह बहुत कम हुआ क्योंकि उनके पास जमीनें नहीं के बराबर थीं। 
        आरक्षण के चलते दलितों का एक हिस्सा मध्य वर्ग यहां तक कि उच्च वर्ग में आने में सफल हो गया। दलितों में से कुछ लोग उच्च वर्ग में चले गये और उच्च जाति के कुछ लोग निम्न वर्ग में आ गये। 

समाधान-  जाति समस्या का समाधान किसी जातीय संघर्ष में नहीं है बल्कि शोषण और उत्पीड़नकारी पूंजीवादी व्यवस्था के नाश और समाजवाद की स्थापना में है। क्योंकि शासक पूंजीपति वर्ग फैक्टरियों, खेतों आदि में जाति का भेद किये बिना मेहनतकशों का निर्मम शोषण करता है। पूंजीवादी व्यवस्था की निजी संपत्ति पर आधारित इस व्यवस्था का अंत किये बगैर कोई बराबरी चाहे वह सामाजिक हो या राजनैतिक, हासिल नहीं की जा सकती। इसी तरह समग्र उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाने वाली समाजवादी व्यवस्था के बगैर समानता की बात बेमानी है।
        मेहनतकश जन को घृणित पूंजीवादी जातिवादी राजनीति से सचेत रहने की आवश्यकता है। क्योंकि यही जातिवादी राजनीति मेहनतकशों के मध्य विभाजन पैदा करती है और उनके सामूहिक हितों को नुकसान पहुंचाती है। ‘सामाजिक समानता पहले और आर्थिक समानता बाद में’ नारे के पीछे छिपे पूंजीवादी प्रचार का असली मकसद इस व्यवस्था की हिफाजत करना है। इसलिए मेेहनतकशों को इसका पर्दाफाश करते हुए शोषण और असमानता की इस पूंजीवादी व्यवस्था के समूल नाश के लिए मेहनतकश जनता को संगठित करना होगा। 
         सांस्कृतिक स्तर पर जाति व्यवस्था की जड़ें अधिक गहरी हैं। इसके उन्मूलन के लिए सभी पुरातनपंथी संस्कारों, रूढ़ियों, अंधविश्वास, धार्मिक कूपमंडूकता, जातिगत दंभ व हीनताबोध के खिलाफ निर्मम संघर्ष छेड़ने की जरूरत है। छात्रों-नौजवानों-बेरोजगारों को आरक्षण का समर्थन करते हुए सबको शिक्षा और सबको रोजगार के नारे को बुलंद करना होगा तथा इसके लिए जनमानस को एकजुट करना होगा। व्यक्तिगत जीवन में जातिगत भेदभाव व खानपान, संस्कार आदि के भेदभाव को तोड़कर बराबरी के सम्बंधों को स्थापित करना होगा। 
        पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक संघर्ष और समाजवाद की स्थापना के बाद ही जाति व्यवस्था के अभिशाप से मानव जाति को मुक्ति मिल सकती है और समाज में मानव-मानव के मध्य पूर्ण और वास्तविक बराबरी स्थापित हो सकती है।

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