गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

दक्षिण अफ्रीका से अमेरिका तक छात्र सड़कों पर

-जुनैद
        दक्षिण अफ्रीका के छात्रों ने अक्टूबर माह में अपने जुझारू संघर्ष से सरकार को फीस वृद्धि पर कदम पीछे खींचने को मजबूर कर दिया। इन्हीं की तर्ज पर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के छात्र भी अपनी मांगों को लेकर 12 नवंबर को अमेरिका के विभिन्न शहरों में सड़कों पर उतरे। दक्षिण अफ्रीका के छात्रों ने अपने संघर्ष को ‘फी मस्ट फाल’ (फीसें जरूर गिरनी चाहिए) नाम दिया तो अमेरिकी छात्रों ने खुद के संघर्ष को ‘मिलियन स्टूडेण्ट मार्च’ नाम दिया। छात्रों की यह पहलकदमी वैश्विक आर्थिक संकट के साये में महंगी होती शिक्षा, असुरक्षित भविष्य के प्रतिकार के रूप में सामने आयी। इस पहलकदमी से छात्र शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ खड़े होने का साहस कर रहे हैं।

        द. अफ्रीका के छात्रों का संघर्ष विश्वविद्यालयों की ट्यूशन फीस, हाॅस्टल शुल्क के 8 प्रतिशत से 12 प्रतिशत तक बढ़ने के खिलाफ शुरू हुआ। संघर्ष की शुरुआत 14 अक्टूबर को विट वाटर्सलैण्ड वि.वि. (जोहान्सबर्ग) से हुई जहां छात्रों ने नामांकन शुल्क में 10.6 प्रतिशत व एप्लीकेशन फीस के 6 प्रतिशत बढ़ाये जाने के खिलाफ सड़कों पर उतरना शुरू किया। शीघ्र ही यह संघर्ष देश के बाकी विश्वविद्यालयों में फैल गया। 21 अक्टूबर को 3000 से अधिक केपटाउन वि.वि. के छात्र संसद के सामने जाकर खड़े हो गये। उन्होंने संसद भवन में घुसने का प्रयास करते हुए उच्च शिक्षा मंत्री ब्लेड नजीमानदे से छात्रों के सामने आने की मांग की। छात्रों को संसद भवन में घुसने से रोकने के लिए उन पर आंसू गैस से लेकर स्टन ग्रेनेड बरसाये गये। कई छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर देशद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। इसके बाद सबसे बड़ा प्रदर्शन 23 अक्टूबर को दक्षिण अफ्रीकी सरकार के मुख्यालय व राष्ट्रपति जैकब जूमा के कार्यालय वाली यूनियन बिल्डिंग के सामने हुआ। यहां 10000 से अधिक छात्रों ने प्रदर्शन कर राष्ट्रपति से प्रदर्शनकारियों के सामने आने की मांग की। लेकिन राष्ट्रपति ने खुद सामने आने के बजाय छात्रों का दमन करने के लिए उन पर आंसू गैस व रबड़ की गोलियां बरसाने का काम किया। हालांकि इस प्रदर्शन के बाद द0 अफ्रीकी सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये और राष्ट्रपति ने हाल फिलहाल फीसें न बढ़ाये जाने की घोषणा कर दी।

        राष्ट्रपति द्वारा कदम पीछे खींचनेे के बावजूद छात्रों ने संघर्ष को समाप्त नहीं किया और मांग करना शुरू किया कि 2011 के बाद की समस्त फीस वृद्धि वापस ली जानी चाहिए। हालांकि तात्कालिक सफलता के बाद संघर्ष का ज्वार कुछ घट गया है। फिर भी छात्र नेता नये सिरे से नयी मांगों के लिए छात्रों को एकजुट करने का प्रयास कर रहे हैं। 
        द0 अफ्रीकी छात्रों के इस उभार के पीछे द0 अफ्रीकी जनता के गिरते हालात एक प्रमुख कारण है। वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से सरकार शिक्षा के मद में लगातार कटौती कर शिक्षा का भार अधिकाधिक छात्रों पर थोपने का प्रयास कर रही है। बेरोजगारी भयावह स्तर तक बढ़ चुकी है और ग्रेजुएट होते युवाओं का भविष्य अंधकारमय है। द0 अफ्रीका में काले लोगों की औसत वार्षिक आय 2011 में 60,613 रेण्ड (4250 डालर) थी जबकि वि0वि0 की औसत वार्षिक फीस लगभग 40000 रैण्ड (2800 डालर) थी। ऐसे में बहुसंख्या वाले काले लोगों की शिक्षा के अवसरों की कठिनाई को समझा जा सकता है। इसके साथ ही यह तथ्य कि आज भी द0अफ्रीका में गोरों की औसत आय काले लोगोें से 6 गुना अधिक है। कालों के जीवन में कोई खास बदलाव न आने को दिखलाता है।
        1994 में रंगभेदी शासन की समाप्ति के बाद जब द0 अफ्रीकी गणतंत्र कायम हुआ तो नेल्सन मण्डेला के नेतृत्व से द0 अफ्रीकी जनता को खासी उम्मीदें थी। पर 21 वर्षों बाद भी आज द0 अफ्रीका में गोरे, कालों में आर्थिक गैरबराबरी के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में भेदभाव मौजूद है। दरअसल 94 के बाद द0 अफ्रीकी सरकार ने गोरे पूंजीपतियों के हितों को सुरक्षित रखते हुए सबके लिए समान कानूनी प्रावधानों की घोषणा कर दी। इसका परिणाम यह निकला कि सभी क्षेत्रों में वर्चस्व गोरे लोगों का बना रहा। हालांकि कुछ काले लोग भी समृद्ध हुए पर बहुतायत काले लोग गरीबी व वंचना के दलदल में पड़े रहे। राज्य मशीनरी का काले लोगों के साथ भेदभावपूर्ण रवैय्या बरकरार रहा। 
        न केवल समाज में बल्कि शिक्षा में भी गोरों के शासनकाल के ढेरों अवशेष जस के तस पड़े रहे। काले छात्रों को अभी भी शिक्षा या तो अंग्रेजी या अफ्रीकी भाषा में लेनी पड़ती है। हालांकि 11 भाषाओं को राज्य ने मान्यता दी है पर उसमें उच्च शिक्षा नहीं दी जाती। तमाम औपनिवेशिक मूल्य शिक्षा में जस के तस हैं। इसलिए काले छात्र लगातार शिक्षा के विऔपनिवेशीकरण की मांग करते रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने कुछ समय पूर्व एक गोरे शासक रोड्स की मूर्ति वि0वि0 से हटाने के लिए ‘रोड्स मस्ट फाल’ आंदोलन चलाया था। 
        द0 अफ्रीका के मौजूदा फीस वृद्धि विरोधी संघर्ष में काले छात्रों को गोरे छात्रों के भी एक हिस्से का समर्थन व सहयोग मिला। एक रणनीति के तहत काले छात्रों ने खुद को गोरे छात्रों के घेरे के बीच प्रदर्शनों के दौरान रखा। यह कदम इस तथ्य के मद्देनजर उठाया गया कि गोरोें पर हमला करने में पुलिस बल संकोच करता है जबकि कालों पर बर्बरतापूर्ण ढंग से हमला किया जाता है। गोरे छात्रों ने भी इस रणनीति में खुद को आगे रखने में कोई संकोच नहीं किया। 
        छात्रों के इस संघर्ष को द0 अफ्रीकी जनता का भी व्यापक नैतिक व भौतिक समर्थन हासिल हुआ। 23 अक्टूबर के केप टाउन प्रदर्शन के दौरान एक मां अपने बेटे के प्रदर्शन में शामिल होने की बात जानकर एक गाड़ी भरकर खाद्य सामग्री, बर्तन और साबुन आदि लेकर प्रदर्शन का समर्थन करने जा पहुंची। एक पानी सप्लाई करने वाली कंपनी ने छात्रों के प्रदर्शन के दौरान पानी की व्यवस्था की। प्रिटोरिया में एक पिज्जा बनाने वाले ने 600 पिज्जा प्रदर्शनरत छात्रों को भेजे। 
        इस तरह छात्रों के फीस वृद्धि के खिलाफ संघर्ष ने प्रकारान्तर से समाज में गैरबराबरी, देश के संसाधनों पर चंद लोगों के कब्जे के मुद्दे को तीखेपन से सामने ला दिया। छात्र प्रदर्शनों के दौरान खुलकर अपनी तंगहाली के लिए 1994 के बाद देश की दिशा की आलोचना कर रहे थे। वे कह रहे थे कि 1994 में उनके माता-पिता को सपनों का बाण्ड दिया गया था वे उसे कैश कराने आये हैं। यहां तक नेल्सन मण्डेला की आलोचना भी वे खुलकर कर रहे थे। मौजूदा सरकार का भ्रष्टाचार व सरकार का कालों के प्रति, मेहनतकशों के प्रति दमनकारी रुख भी उनकी बातोें का एजेण्डा था। 
        द0 अफ्रीका में कुछ वर्ष पूर्व खान मजदूरों का व्यापक दमन मारीकाना खानों में हुआ था जब संघर्षरत मजदूरों को चारों ओर से घेर कर यहां तक कि हैलीकाप्टरों तक से गोलियों से भून डाला गया था। 34 मजदूर मारे गये थे व ढेरों घायल हो गये थे। उस वक्त सैन्य बल लाश उठाने वाली मार्चरी गाड़ी साथ लेकर आयी थी। तब से हर दमन के वक्त मारीकाना के मजदूरों का दमन द0 अफ्रीका में याद किया जाता है और मौजूदा छात्र संघर्ष मेें भी मारीकाना का दमन चर्चा में बना रहा। 
        द0 अफ्रीका के छात्रों के इस संघर्ष ने दुनिया भर के छात्रों-नौजवानों के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर दिया, जो भविष्य में समान हालातों से जूझ रहे छात्रों द्वारा दोहराया जायेगा। 
        इसकी पहली बानगी तब देखने को मिली जब संयुक्त राज्य अमेरिका में छात्रों ने एक नये संघर्ष की नवम्बर माह में शुरूआत की, जिसे उन्होंने ‘मिलियन स्टूडेण्ट मार्च’ का नाम दिया। जब 12 नवम्बर को एक ही दिन अमेरिका के विभिन्न शहरों में छात्र सड़क पर उतरकर अपनी मांग पेश करने लगे तो लगा कि द0 अफ्रीका की पहलकदमी अमेरिका पहुंच गयी। यहां छात्रों ने अपनी 3 मांगें सामने पेश की। ये मांगें थी (1) टयूशन फीस रहित सरकारी कालेज, (2)  सभी छात्रों के कर्जों को रद्द करना व (3) सभी कैम्पस वर्करों के लिए 15 डालर प्रतिदिन की मजदूरी।
        छात्रों की मांगें बेहद स्पष्ट थी कि शिक्षा मुफ्त होनी चाहिए। अमेरिका में 4 करोड़ अमेरिकी छात्र 1.2 ट्रिलियन डालर कर्ज से दबे हैं। औसतन प्रति छात्र पर 35000 डालर का कर्ज है। इसमें से भी 58 प्रतिशत कर्ज सबसे गरीब नीचे के एक चैथाई अमेरिकियों पर है। 
        12 नवम्बर को टेक्सास, मैसाचुएट्स वि0वि0 से लेकर शिकागो तक छात्र सड़कों पर उतर कर इन मांगों को आगे बढ़ाने में शामिल थे। इस पहल के अभी आगे और गति पकड़ने की संभावना है। 
        अमेरिका में सरकार ने शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी से मुकरते हुए शिक्षा के लिए छात्रों को बड़े पैमाने पर ऋण मुहैय्या करा शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण कर रखा है। परिणाम यह हुआ कि पढ़ने वाले छात्र अपनी युवावस्था में पहुंचते-पहुंचते भारी पैमाने पर ऋणग्रस्त हो जा रहे हैं। नौकरियों की खस्ताहालत उन्हें इस ऋण को चुका पाने में लगातार असफल साबित कर रही है। ऐसे में छात्र मुफ्त शिक्षा और कर्ज रद्द करने को लेेकर मैदान में उतर रहे हैं। 
        अमेरिका व द0 अफ्रीका के भौगोलिक तौर पर बेहद दूर होने के बावजूद दोनों जगहों पर छात्रों के संघर्ष बेहद समानता लिए हुए हैं। दोनों जगह छात्र पिछले 3-4 दशकों से जारी उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के तहत शिक्षा को बाजार के हवाले किये जाने का शिकार हुए हैं। वे दोनों जगह पूंजीवाद में आर्थिक संकट के काल में चैतरफा बढ़ रही गैरबराबरी के शिकार हैं। दोनों जगह वे असुरक्षित भविष्य को लेकर आक्रोशित हैं। 
        संघर्ष के ये मुद्दे आज द0 अफ्रीका, अमेरिका ही नहीं दुनिया के सभी देशों के छात्रों-युवाओं के सामने हैं। हमारा देश भारत भी इससे अछूता नहीं है। इसलिए आने वाले वक्त में छात्रों का सैलाब दुनिया के अलग-अलग कोनों में सड़कों पर उतरता दिखलाई देगा। अपनी राजनैतिक दिशा ग्रहण कर यह पूंजीवादी व्यवस्था की तार्किकता पर प्रश्न चिह्न भी खड़ा करेगा। 
        द0 अफ्रीका से लेकर अमेरिका में संघर्ष के  प्रसार में आधुनिक सोशल मीडिया के इस्तेमाल ने छात्रों को एक सूत्र में बंधने में मदद की। आने वाले वक्त में सोशल मीडिया संघर्ष के आह्वान का बड़ा जरिया बनता जायेगा। हालांकि जमीनी स्तर पर भी गोलबंदी के संपर्क वैकल्पिक इंतजामों का संघर्षों के नेतृत्व को इंतजाम करना होगा। क्योंकि संघर्ष बढ़ने पर सरकारें सोशल मीडिया बैन करने से पीछे नहीं हटेंगी। 
        कुल मिलाकर वैश्विक संकट के गहराते जाते हर एक दिन के साथ पूंजीवादी शासकों के खिलाफ मजदूरों-मेहनतकशों के साथ छात्रों का आक्रोश दुनिया के हर कोने में बढ़ता जायेगा। द0 अफ्रीका व अमेरिकी छात्रों का संघर्ष इसी का संकेत मात्र है।

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