गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

खतरे में नागरिक आजादी

-कुसुम
        भारत के संविधान का भाग-3 सभी नागरिकों को समानता का मूल अधिकार प्रदान करता है। इसी भाग में सभी नागरिकों को ‘स्वतंत्रता का अधिकार’ प्रदान किया गया है, जिसके अंतर्गत बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बिना हथियारों के इकट्ठा होने का अधिकार, यूनियन बनाने का अधिकार, भारत की सीमा में कहीं भी जाने का अधिकार और देश के किसी भी भाग में रहने का अधिकार। संविधान का आर्टिकल 21 देश के सभी नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करता है।
        इसमें कोई दो राय नहीं कि देश का संविधान औपचारिक तौर पर देश के नागरिकों को व्यापक स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसके बावजूद कि नागरिक स्वतंत्रता को विभिन्न कानूनों के द्वारा सीमित भी किया गया है। चाहे वे देश की सुरक्षा के नाम पर बनाये गये हों या किसी अन्य विषय के बहाने। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि देश का संविधान इस देश की व्यापक जनता के हितों व आकांक्षाओं को भी व्यक्त नहीं करता। तथापि नागरिक अधिकारों को इसमें समाहित किया जाना इसलिए भी जरूरी था कि तत्कालीन दुनिया में नागरिकों की बढ़ती चेतना और देश के आम जनों की जनवादी चेतना- जो सामंतवाद व उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों की उपज थी- को स्थान दिये बिना पूंजीवादी राज्यव्यवस्था सुदृढ़ नहीं हो सकती थी। 
        जैसे-जैसे भारतीय राज्य व पूंजीपति वर्ग अपनी प्रगतिशीलता खोता गया वैसे-वैसे नागरिक अधिकारों पर भी विभिन्न तरह से कैंची चलायी जाती रही। नित नये बनने वाले दमनात्मक कानूनों द्वारा इसमें कुछ भी अनायास न था। जनता और पूंजीवादी राज्यसत्ताओं के बीच अधिकारों की लड़ाई सभी जगह जारी है। दुनिया के स्तर पर बढ़ती नागरिक चेतना ने इस संघर्ष में कभी जीत हासिल की है तो कभी पराजय। नागरिक अधिकारों को बचाने व बढ़ाने की लड़ाईयां कभी कानूनी तरीकों से लड़ी जा रहीं हैं तो कभी सड़कों पर।
        हमारे देश में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर देश के नागरिकों के अधिकारों पर 1975 में कैंची चलायी परन्तु देश की जनता ने अपने जनवादी अधिकारों की रक्षा के लिए आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में विजय हासिल की। यह इस बात का सबूत था कि देश की जनता अपनी नागरिक आजादी को किस हद तक प्यार करती है। हालांकि उत्तरपूर्व से लेकर कश्मीर तक भारतीय राज्य देश की जनता के नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए भयंकर दमन में लगा हुआ है।
        वैसे तो भारतीय राज्य कभी भी उदारवादी राज्य नहीं रहा परंतु नवउदारवादी नीतियों के बाद से भारतीय राज्य का चरित्र पहले से कहीं ज्यादा नागरिक अधिकारों पर कैंची चलाने वाला हो गया है। देश में आर्थिक नीतियों के बढ़ते जनविरोधी चरित्र के अनुरूप ही राजनीति भी घोर दक्षिणपंथ की ओर खिसकती चली गयी है। समग्र पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों और उनकी राजनीति का एजेण्डा भाजपा और शिवसेना जैसी घोर प्रतिगामी अंधराष्ट्रवादी पार्टियां तय करने लगीं। समाज में सहिष्णुता, विपरीत विचारों का सम्मान, दूसरे धर्मों, भाषाओं व संस्कृतियों का सम्मान सभी कुछ जैसे कहीं खो गया है। 
        संघ और शिवसेना नामक गिरोह जिनके लिए नागरिक आजादी (अपने व्यापक अर्थों के साथ) पहले ही अपवर्जी चीज रही है, पिछले दो-तीन दशकों में बहुत तेजी से समाज में छा गये। विशेषकर संघ के अनुषांगिक संगठनों के दस्ते हिटलर के दस्तों के समान व्यवहार कर रहे हैं। देश के एकाधिकारी घरानों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के ये सेवक एक ओर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के सबसे बडे़ रक्षक के रूप में काम कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर इस पूंजी की आर्थिक-राजनीतिक जरूरतों के अनुसार इस समाज में जनवादी शक्तियों, नागरिक अधिकारों, अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों पर हमले कर रहे हैं। एकाधिकारी पूंजी के नेतृत्व में जारी उदारीकरण की नीतियों के ये संगठन जनविरोधी राजनीतिक उत्तराधिकारी साबित हुए हैं। नब्बे के दशक के बाद से ही जिस पैमाने पर समाज में इनकी स्वीकार्यता और ताकत बढ़ी है उसी अनुपात में नागरिक आजादी पर खतरा भी बढ़ा है। तिरंगे से ज्यादा भगवा को प्यार करने वाले इन फासिस्ट गिरोहों की कार्यवाहियां पिछले दिनों बहुत बढ़ गयी है। ये संघी व शिवसैनिकों के गिरोह मंडली पहले भी वेलेनटाइन डे से लेकर लव जिहाद के नाम पर हिंसक हमले करते रहे हैं परंतु नागरिक आजादी पर हमले की घटनायें मौजूदा मोदी सरकार के बाद बहुत तेजी से बढ़ चली है। ‘जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का’ की तर्ज पर तालिबानों का भारतीय संस्करण यहां वही करना चाहता है जैसा तालिबान अफगानिस्तान मंे कर रहा है। तालिबान वामियान की मूर्ति गिराकर सभ्यता को ‘बुलंदी’ पर ले गये तो संघी व शिवसैनिकों ने बाबरी मस्जिद ढहाकर भारतीय सभ्यता का ‘पुनरुत्थान’ किया था। 
        अल्पसंख्यकों पर हमले करना, दंगे करना, दंगों में मारकाट व लूटपाट जैसा कर्म तो ‘सांस्कृतिक संगठन’ संघ करता ही रहा है। बाल्यावस्था से लेकर अपने यौवन तक इस कथित सांस्कृतिक संगठन ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा के नये कीर्तिमान स्थापित कर रखे हैं परंतु स्वयं जिनके हितों के नाम पर ऐसा किया गया वे भी इस सांस्कृतिक संगठन की हिंसा से बच नहीं पा रहे हैं और न ही बचेंगे। क्या यूरोपीय फासीवाद में सिर्फ यहूदी मरे थे? नहीं। यहूदियों से ज्यादा जर्मन, स्पेनी, फ्रांसीसी, रूसी, यूनानी आदि मरे थे। भारतीय तालिबानों के हमले व कार्यवाहियों में सिर्फ अल्पसंख्यक समूह के लोग ही नहीं मरते, बहुसंख्यक समूह के लोग भी मरते हैं। क्या उपरोक्त फासिस्ट संगठनों के निशाने पर केवल अल्पसंख्यक समूह हैं? या फिर देश की समस्त जनवादी ताकतें वे चाहे हिन्दू ही क्यों न हों?
        अभी हाल के दिनों व वर्षों में इन फासिस्ट संगठनों ने देश के तीन प्रमुख लोगों की हत्या की। इसमें डा0 नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसारे व डा0 एम.एम.कलबुर्गी शामिल हैं। ये तीनों ही अल्पसंख्यक समूहों से ताल्लुक नहीं रखते हैं। फिर भारतीय तालिबानों ने इनकी हत्या क्यों की? इन्होंने तो गौमांस भी नहीं खाया था। इन्होंने तो कोई राष्ट्रद्रोह का कार्य भी नहीं किया था। इन्होंने न तो लव जिहाद किया, न ही धर्म परिवर्तन कराया। फिर क्यों संघी फासिस्ट गिरोह ने उनका कत्ल किया?
        इस देश में हर वह नागरिक असुरक्षित है जो संघी स्वयंसेवक नहीं है या फिर किसी दक्षिणपंथी गिरोह का सदस्य नहीं है। जो दक्षिणपंथी संगठनों की हां में हां मिलाने से इंकार करता हो, जो समाज में तार्किक चिंतन व विचारधारा का प्रचार-प्रसार करता हो, जो अल्पसंख्यकों का विरोध न करता हो, जो अमेरिकी-इस्राइल धुरी के आगे न झुकता हो और पाक को गाली न देता हो। वे सारे लोग ही इनके निशाने पर हैं जो धार्मिक कुरीतियों, पाखंड़ों, पिछड़ेपन का विरोध करते हैं। इतना ही नहीं महिलाओं की आजादी का समर्थन करने वाले भी इनके निशाने पर रहते हैं। इसं सबसे ज्यादा इनके निशाने पर वे लोग हैं जो समाज की मौजूदा शासन व्यवस्था को उखाड़कर एक बेहतरीन दुनिया स्थापित करने के सपने के लिए संघर्षरत हैं। 
        धार्मिक कट्टरपंथियों ने संघ परिवार समेत दक्षिणपंथी संगठनों की ऐसी तस्वीर बनायी है, जैसे कि वे केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हैं और ऐसी तस्वीर स्वयं धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के कट्टरपंथियों को ताकत प्रदान करती है। सही मायनों में देश के दक्षिणपंथी गिरोह आमतौर पर नागरिक स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों के विरोधी हैं, न कि उसके केवल एक रूपमात्र (नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता) के। यदि आज गार्गी, मक्खाली घोषाल से लेकर कबीर जैसे लोग जिन्दा होते, जिन्होंने भारतीय दर्शन को गहराई प्रदान की और जो ब्राह्मणवादी दर्शन व धार्मिक कूपमंडूकता के खिलाफ खड़े हुए और वाद-विवाद किया तो वे आज उनकी भी वैसी ही हत्या कर रहे होते जैसा कि दाभोलकर, पानसारे व कलबुर्गी की की है। ब्रूनो और गैलीलियो के कातिल यूरोप की धरती पर ही नहीं थे, 21वीं सदी में वे हत्यारे नये रूप व भेषभूषा के साथ हमारे सामने पुनः अवतरित हैं। 
        आखिर इन तीन तर्कवादियों की हत्या क्यों की गई; इसे देखें। गाोविन्द पानसारे की हत्या की वजह; उनके द्वारा नाथूराम गोडसे की राष्ट्रवादी के रूप में स्तुति करने वालों के विरूद्ध; शिवाजी विश्वविद्यालय में दिया गया भाषण था। साथ ही उन्होंने ‘शिवाजी कौन होता’ नामक पुस्तक में जो कुछ लिखा वह दक्षिणपंथियों को रास नहीं आया। दक्षिणपंथी संगठन शिवाजी को हिन्दुओं के रक्षक के रूप में और मुस्लिम विरोधी राजा के रूप में चित्रण करते रहे हैं। इसके विपरीत पानसारे ने अपनी पुस्तक में यह स्थापित करने की कोशिश की कि शिवाजी सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उनकी सेना में एक तिहाई मुसलमान थे कि उनकी सुरक्षा में और यहां तक कि उनका सचिव भी मुसलमान था कि उनकी सेना के बहुत से जनरल मुस्लिम थे। जाहिर है पानसारे का यह लेखन और भाषण संघ परिवार समेत दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों की गढ़ी गई भूमिका से बिल्कुल अलग था। और इसका परिणाम पानसारे की हत्या के रूप में हुआ।
        एम.एम. कलबुर्गी मशहूर कन्नड़ विद्वान और हंपी वि0वि0 के पूर्व कुलपति थे। उन्हें मार्ग 4 अपने शोध लेखों के एक संग्रह के लिए 2008 में राष्ट्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए सम्मानित किया गया था। कलबुर्गी ने 2014 में बैंगलोर में ‘अंधविश्वास विरोधी बिल’ पर एक सेमिनार में यू.आर.एन्थामूर्ति की 1996 में लिखी गई किताब ‘Bethale Puje yake Kudadu’ (नग्न पूजा क्यों गलत है) को उद्धृत किया जिसमें लेखक ने अपने बचपन का एक अनुभव सुनाया जिसके तहत उसने प्रयोग के तौर पर मूर्तियों पर पेशाब यह देखने के लिए की कि दैवीय प्रतिफल क्या होगा। जिसके बाद उनके खिलाफ विहिप, बजरंग दल व श्री राम सेना जैसे संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया। ‘मार्ग 1’ के अपने लेखों के कारण उनका अपना समुदाय अर्थात लिंगायत समुदाय भी उनके खिलाफ था। वे कर्नाटक के इस आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से मजबूत समुदाय की रूढ़िवादिता, ऐतिहासिक सच्चाईयों को सामने ला रहे थे। प्राचीन कन्नड़ साहित्य के खोजकर्ता होने के कारण उनके ‘मार्ग 1’ के लेखों से लिंगायत समुदाय खासा खिलाफ था और उन्हें मारने की धमकी दी जा रही थी। हाल में ही कलबुर्गी ने यह भी घोषित किया था कि लिंगायतों को हिन्दू नहीं कहा जा सकता। इस घोषणा ने उन्हें संघ परिवार का घोर शत्रु बना दिया। इस प्रकार कन्नड़ साहित्य के इस विद्वान की खोजों और निष्कर्षों के कारण ही संघ परिवार व अन्य दक्षिणपंथी ताकतें उनकी ज्ञान की दुश्मन बन गयी थीं। 
        ठीक इसी प्रकार की कहानी डाॅ. अनिल दाभोलकर की है। डाॅ. दाभोलकर भारतीय तर्कवादी और लेखक थे। वह महाराष्ट्र अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक अध्यक्ष थे जिसे कि 1987 में अंध श्रद्धा के खात्मे के लिए गठित किया गया था। उन्हें उनके सामाजिक कार्यों के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपने डाक्टरी पेशे को छोड़कर अपना जीवन समाज से अंधविश्वास के खात्मे के लिए समर्पित कर दिया।
        डाॅ. दाभोलकर 1990 से ही छुआछूत के विरुद्ध संघर्षरत रहे। 2010 में दाभोलकर ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास विरोधी कानून लागू करवाने के कई विफल प्रयास किये। उनके निर्देशन में ही ‘महाराष्ट्र अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति’ ने जादू टोना विरोधी बिल का मसविदा तैयार किया। दक्षिणपंथी समूहों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि यह भारतीय संस्कृति, तौर-तरीकों और परम्पराओं को बुरी तरह प्रभावित करेगा। उन पर धर्मविरोधी होने का आरोप लगाया गया। अपनी हत्या के कुछ दिन पूर्व ही (6 अगस्त 2013) उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की आलोचना की थी जिसके एक दिन बाद महाराष्ट्र कैबिनेट ने बिल पर अपनी मुहर लगा दी थी।
        अभी हाल ही में कर्नाटक में एक दलित लेखक (दुचंगी प्रसाद) पर हमला किया गया और उसकी दोनों हाथों की उंगलियों को काट देने की धमकी दी गयी क्योंकि उसने अपनी पुस्तक ‘Odala kichchu’ में प्राचीन जाति व्यवस्था के विरुद्ध लिखा था। 
        उपरोक्त सभी उदाहरण क्या यह बताने के लिए नाकाफी हैं कि संघ परिवार समेत दक्षिणपंथी संगठन भारत को क्या बनाना चाहते हैं? क्या वे अफगानी तालिबानों व आई.एस.आई.एस. से जरा भी भिन्न हैं? वे भारत के नागरिकों को न सिर्फ ब्राहा्रमणवादी जाति व्यवस्था के ढांचे में बांधे रखना चाहते हैं वरन् वे चाहते हैं इस देश में मनुस्मृति के आधार पर दलितों को नारकीय जीवन में बनाये रखा जाये। वे प्राचीन जाति व्यवस्था के कट्टर संरक्षक हैं और अगर कोई देश की इस कथित हिन्दू संस्कृति के खिलाफ बोलेगा या कलम उठायेगा तो वे उसका सर कलम या हाथ कलम कर देंगे। अगर कोई जादू-टोने के खिलाफ प्रचार करेगा तो वे उसे कत्ल कर देंगे, अगर कोई मूर्तिपूजा का विरोध करेगा तो वे उसकी हत्या कर देंगे। यदि किसी वैज्ञानिक, समाजविज्ञानी, भूगर्भशास्त्री या किसी अन्य शोध करने वाले की खोजें इन दक्षिणपंथी संगठनों के अनुसार न हुई तो वे उसे मार देंगे। 
        इसलिए संघ परिवार समेत हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों के बारे में यह सोचना गलत है कि अगर कोई गौमांस खाना बंद कर देगा तो वह सुरक्षित हो जायेगा कि अगर  अयोध्या, काशी व मथुरा तथाकथित हिन्दू समाज के ठेकेदारों को सौंप देगा तो मुसलमान देश में सम्मानजनक जीवन जी सकेगा या इसी तरह का और भी बहुत। सही मायने में उपरोक्त करने से भी अल्पसंख्यकों की समस्या हल नहीं होंगी। दरअसल दक्षिणपंथी संगठन व्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास नहीं करते। वे अपने स्वयं द्वारा स्थापित व माने गये विश्वासों को सर्वोपरि रखते हुए उसे सभी पर आरोपित करना चाहते हैं। इसलिए वे इस देश के हर नागरिक की नागरिक स्वतंत्रता के विरोधी हैं वह चाहे किसी भी धर्म या जाति का हो। जनवाद और जनवादी विचार के विरोधी इन संगठन या पार्टियों को अगर खुलकर खेलने का मौका दे दिया तो भारतीय समाज सदियों पीछे जाने को अभिशप्त होगा। 21 वीं सदी के भारत के लोग मनुस्मृति से नहीं चल सकते। 21 वीं सदी के लोग सती प्रथा और देवदासी प्रथा जैसी प्रथाओं से आगे नहीं बढ़ सकते दक्षिणपंथी संगठन यह निर्णय नहीं कर सकते कि इस देश के लोग कैसे रहेंगे और जियेंगे। 
        देश आगे तब बढ़ेगा जब सभी तरह के विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार हो, कि जब लोगों को अपने सही या गलत विचारों को बोलने, लिखने या किसी भी अन्य तरीकों से अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता हो कि तर्क और विज्ञान ही वह आधार हो जो सही गलत का फैसला करे न कि चंद दक्षिणपंथी समूह। आइये हम तर्क और विज्ञान पर खड़े होकर अपने समाज को आगे बढ़ायें। हर उस विचार का विरोध करें जो तर्क और विज्ञान पर खरा नहीं उतरता, चाहे वह किसी भी व्यक्ति या समूह को अच्छा लगे या बुरा। हम गार्गी, मक्खाली घोषाल, कबीर जैसे दार्शनिकों वाले देश के नागरिक हैं। हमें अपनी उस तार्किक और वैज्ञानिक पद्धति पर गर्व करना चाहिए व उसे आगे बढ़ाना चाहिए जिसके आधार पर ही हम दुनिया की उन्नत कौमों में शरीक हो सकते हैं न कि पुरातनपंथी विचारों के कवच को पहनकर। अब वक्त आ गया है जब हम सभी जिन्दादिल लोग संघ परिवार समेत सभी दक्षिणपंथी गिरोहों का सामना करें और घोषणा करें कि हमारे जीवन जीने के तरीकों को केवल हम ही निर्धारित करेंगे और कोई नहीं। इस देश के हम सभी छात्र व युवा यह घोषणा करें कि तर्क-वितर्क, वाद-विवाद इस देश की पहचान हैं, कि हमारे देश की संस्कृति असहमतियों के लिए जगह देती है, कि ऐसा करके ही हमारा नागरिक समाज यहां तक पहुंचा है और कि हम इस संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अपनी जान की बाजी भी लगा देंगे। हमें पुरजोर तरीके से यह अस्वीकार करना होगा कि संघी गिरोह मण्डली व अन्य फासिस्ट संगठन जिसे भारतीय संस्कृति घोषित कर रहे हैं वह भारतीय संस्कृति नहीं हिटलर जैसे फासिस्टों की संस्कृति है और उस संस्कृति के लिए इस देश में कोई जगह नहीं है। केवल ऐसा करके ही इस देश के सभी नागरिक अपनी आजादी बचा सकते हैं और दक्षिणपंथी ताकतों के बढ़ते खतरे का सामना कर सकते हैं। 

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