बुधवार, 23 दिसंबर 2015

टीपू सुल्तान के बारे में सच क्या है? वह धर्म निरपेक्ष था या साम्प्रदायिक

-मार्कण्डेय काटजू
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेने वाले शासकों में टीपू का नाम अग्रणी है। टीपू उन शासकों में रहा जिन्होंने अंग्रेजों की नीयत को बहुत पहले भांप लिया था और जीवन पर्यन्त अंग्रेजों से संघर्ष किया। यह अलग बात है कि टीपू के खिलाफ निजाम हैदराबाद सहित मराठों व लावनकोर के राजा ने अंग्रेजों का साथ दिया था। अपने दुर्ग के द्वार पर अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए टीपू सुल्तान शहीद हुए थे। टीपू ने अपने राज्य में सभी धर्मों को समान आदर दिया। श्रृंगेरी के मठ सहित कई  मंदिरों को निरंतर दान दिया। उसके मंत्रिमण्डल में कई हिन्दू मंत्री थे। लेकिन टीपू सुल्तान का मुसलमान होना आज साम्प्रदायिक फसाद का कारण बन गया है। संघ मण्डली जिसका आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं रहा, जिसने अंग्रेजों की कृपा पाने के लिए अपने को आजादी की लड़ाई से न केवल दूर रखा बल्कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ के तहत हिन्दू-मुसलमानों को लड़ाने की नीति को परवान चढ़ाने में उनकी मदद की, आज टीपू सुल्तान के बारे में मनगढ़ंत और झूठी बातें प्रसारित कर टीपू के एक मुस्लिम कट्टरपंथी और हिन्दू विरोधी होने का झूठा प्रचार कर रही है। टीपू सुल्तान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को उजागर करता हुआ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू के इंटरनेट पर प्रकाशित लेख का हिन्दी अनुवाद हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।                             -सम्पादक

        विश्व हिन्दू परिषद के लोग कर्नाटक के मडीकेरी में टीपू जयंती के आयोजन का विरोध कर रहे हैं। इस दौरान एक व्यक्ति की मौत हो गयी है। 
        टीपू सुल्तान के बारे में सच क्या है? वह धर्मनिरपेक्ष था या कट्टरपंथी? इस सवाल का उत्तर जानने से पहले कुछ तथ्यों को जानना जरूरी होगा। 
        भारत आने वाले शुरूआती मुस्लिम आक्रमणकारियों ने बेशक बहुत से हिंदू मंदिरों को तोड़ा जैसे महमूद गजनी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था। (मंदिरों पर होने वाले आक्रमणों का उद्देश्य मूलतः धार्मिक न होकर आर्थिक था। मंदिरों में जमा अपार धन दौलत बाह्य आक्रमणकारियों को सहज आकर्षित करती थी। और मंदिरों की इस दौलत का मुख्य कारण उन्हें शासकों द्वारा भूमिदान में मिली जमीन पर किसानों से वसूला जाने वाला तगड़ा लगान था। -सम्पादक) 
        लेकिन बाद के हिन्दू शासक जो कि स्थानीय शासक बन गये थे, मंदिरों को तोड़ने के बजाय उन्हें अनुदान दिया करते थे तथा होली व दीवाली जैसे हिंदू त्यौहारों को मनाते थे। (बाबर के बारे में लेखक की धारणा से सम्पादक सहमत नहीं हैं -सम्पादक)
        शुरूआती आक्रमणकारियों के बाद के मुस्लिम शासकों ने जो कि स्थानीय शासक बन गये थे, एक ऐसी प्रजा का शासन किया जिसमें 80 से 90 प्रतिशत हिंदू थे, वे इस बात को जानते थे कि अगर उन्होंने हिंदू मंदिरों को तोड़ा तो यहां विद्रोह और बगावतें होंगी। इसलिए खुद इन मुस्लिम शासकों ने अपने हित में सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ाने का काम किया, उन्होंने हिंदू मंदिरों के लिये अनुदान दिया, वे हिंदू त्यौहारों को मनाते थे। मुगल सम्राटों, अवध के मुर्शिदाबाद, आकौट के नवाब इसका उदाहरण हैं। अवध के नवाब तो रामलीला का आयोजन करते थे तथा होली और दिवाली को मनाते थे। टीपू सुल्तान 156 मंदिरों को सालाना अनुदान देता था। उसका प्रधानमंत्री पुन्नैया नामक हिंदू और मुख्य सेनापति कृष्ण राय नाम का एक हिंदू था। टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी के शंकराचार्य को अनुदान के साथ सम्मान प्रदर्शित करते हुए 30 पत्र लिखे। (देखें आनलाइन ‘हिस्ट्री इन दि सर्विस आफ इंपीरियलिज्म’ जो कि प्रो. बी.एन.पाण्डे द्वारा 1977 में राज्य सभा में दिया गया भाषण है। ये सब शासक धर्मनिरपेक्ष थे।)
        हमारी पाठ्य पुस्तकों में प्रारंभिक मुस्लिम शासकों द्वारा मंदिर तोड़ने के बारे में बताया जाता है लेकिन उसके दस गुने से अधिक समय जिसमें इसके बाद के मुस्लिम शासकों जो कि स्थानीय थे, ने सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ाने का काम किये। वे मंदिर बनाने के लिए भूमि दान देते थे तथा हिंदू त्यौहारों को आयोजित करते व मनाते थे। इन बाद के शासकों के बारे में, जिनका काल पहले के आक्रमणकारियों की अपेक्षा दस गुना अधिक का रहा, के बारे में (उनके सांप्रदायिक सौहार्द वाले आचरण के बारे में - सम्पादक) इतिहास को हमारे इतिहास की किताबों में अंग्रेजों द्वारा जानबूझकर दबा दिया गया। यह पूरा खेल ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत हिंदू मुसलमानों को आपस में लड़ाने के लिए किया गया। 
        अगर कोई आनलाईन जाकर बी.एन.पाण्डे का भाषण ‘साम्राज्यवाद की सेवा में इतिहास’ को पढ़ेगा तो वह हिंदू मुस्लिमों को आपस में एक दूसरे का शत्रु बनाने की ब्रिटिश नीति के बारे में जान सकेगा। उदाहरण के लिए डा. पाण्डे जिक्र करते हैं कि 1928 में जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर थे तो कुछ विद्यार्थी उनके पास प्रो. हर प्रसाद शास्त्री, जो कि कलकत्ता विश्व विद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे, की लिखी एक किताब लाये जिसमें यह जिक्र किया गया था कि टीपू सुल्तान ने 3000 ब्राहा्रमणों को इस्लाम अपनाने अन्यथा मृत्युदंड देने की बात कही। और उन 3000 ब्राहा्रणों ने मुसलमान बनने के बजाय आत्महत्या कर ली। इसे पढ़ने के बाद प्रो. बी.एन.पाण्डे ने प्रो. हर प्रसाद शास्त्री से उनकी इस जानकारी का स्रोत पूछा। प्रो. शास्त्री ने जवाब दिया कि उनकी सूचना का स्रोत मैसूर गजेटियर है। इसके बाद प्रो. पाण्डे ने मैसूर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रो. श्री कांशिया को पत्र लिखा कि क्या यह सही है कि मैसूर गजेटियर में टीपू सुल्तान द्वारा 3000 ब्राहा्रमणों को इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए कहा गया। प्रो. श्री कांशिया ने जवाब दिया कि यह जानकारी बिल्कुल झूठ है। उन्होंने बताया कि इस विषय पर उन्होंने काम किया है और मैसूर गजेटियर में ऐसा कोई जिक्र नहीं है। बजाय इसके वास्तविकता बिल्कुल विपरीत रही है। टीपू सुल्तान 156 हिंदू मंदिरों को सालाना अनुदान दिया करता था, वह श्रृंगेरी के शंकराचार्य को अनुदान भेजा करता था। सांप्रदायिक होने से कोसों दूर टीपू पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष था।
        1771 में परशुराम भावे (भाऊ) ने टीपू के सबसे सम्पन्न प्रांत बेदनूर पर आक्रमण किया। रघुनाथ राव पटवर्धन के नेतृत्व में मराठा घुड़सवारों ने श्रृंगेरी मठ की बहुमूल्य धन सम्पदा को लूट लिया, बहुत से लोगों को मौेत के घाट उतार दिया, बहुतों को घायल कर दिया, पवित्र शारदा देवी मंदिर को अपवित्र किया तथा उसमें से बहुमूल्य चीजें लूट लीं।
        मराठों के उत्पात से अचंभित और दुखी होकर उस समय के श्रृंगेरी के जगद्गुरू श्री सच्चिदानंद भारती तष्तीय उस स्थान को छोड़कर श्रष्ंगेरी से पचास मील दक्षिण स्थित करकला में रहने के लिए मजबूर हुए। मंदिरों के नगर कि इस तबाही जो कि पहली बार कलमबद्ध हुई, को देखकर और इस हमले से दुखी और असहाय होकर शंकराचार्य ने टीपू सुल्तान के पास सहायता के लिए अर्जी भेजी।
        टीपू सुल्तान ने मंदिर की तबाही की इस घटना पर क्षोभ व दुख व्यक्त करते हुए शंकराचार्य को पत्र लिखा; ‘‘जिन भी लोगों ने इस तरह के पवित्र स्थान को अपवित्र किया है उन्हें निश्चित रूप से इस कलियुग में जल्द ही अपने कर्मों का फल मिलेगा।’’
        उन्होंने इस सम्बंध में संस्कृत का एक श्लोक भी उद्धृत किया। ‘‘हसदभीह क्रियते कर्म सदाभीर-अनुभूयते’’
‘‘(लोग बुरे कर्म हंसते हुए करते हैं परंतु उसके परिणामों को रोेते हुए भुगतते हैं।)’’
        टीपू सुल्तान ने तुरंत अपनी फौजों को मराठा आक्रमणकारियों को पीछे धकेलने का आदेश दिया तथा जगदगुरू शंकराचार्य को 6 जुलाई 1791 को एक पत्र लिखा जो निम्नवत है-
सम्माननीय, श्रीमद परमहंस शंकराचार्य श्रृंगेरी सच्चिदानंद 
        स्वामीमल, 
        हमने आपका पत्र प्राप्त किया तथा मामले की गंभीरता को महसूस किया। हमने इस तथ्य का संज्ञान लिया है कि मराठा राजा की घुड़सवार सेना ने श्रृंगेरी पर आक्रमण किया और ब्राह्मण तथा अन्य लोगों को प्रताड़ित किया, देवी शारदा अम्मानावरू (मां) की मूर्ति को हटा दिया तथा श्रृंगेरी मठ की बहुमूल्य संपत्ति को लूटा। हमने यह भी संज्ञान में लिया है कि श्रृंगेरी मठ के चार शिष्यों को श्रष्ंगेरी छोड़कर करकला में शरण लेनी पड़ी है। श्रृंगेरी शारदा अम्मानावरू की मूर्ति को अतीत में स्थापित किया गया था और इस प्रतिमा को एक बार फिर स्थापित करना है। जिसके लिए सरकार के सहयोग की जरूरत है। भगवान की पुनस्र्थापना का काम सरकार द्वारा प्रदत्त धन की मात्रा के अनुरूप भोज के आयोजन द्वारा होगा। वे जिन्होंने इस अपराध को अंजाम दिया है इसका परिणाम भुगतेंगे, जैसा कि संस्कृत श्लोक में कहा गया है- ‘‘ हसदभीह क्रियते कर्म, सदाभीर-अनुभूयते’’
‘‘(लोग बुरे कर्म हंसते हुए करते हैं परंतु उसके परिणामों को रोेते हुए भुगतते हैं।)’’
        हमले की खबर सुनकर सरकार ने एक हाथी उसके महावत अहमद के साथ भेजा है। शहर के आसफ को आदेश दिया गया है कि मठ के लिए एक निर्मित, एक पालकी और 200 रहती नकद तथा 200 रहती श्री शारदा अम्बानावरू की प्रतिमा के पवित्रीकरण के लिए भोज हेतु धान एवं उससे सम्बन्धित कामों के लिए तुरंत भेजने की व्यवस्था करें। उसे इस सम्बन्ध में हमें सूचित करने के लिए भी कहा गया है।
        हम शारदा देवी अम्बानावरू हेतु सोने की कढ़ाई वाली एक भारी साड़ी व ब्लाउज का कपड़ा और एक साॅल आपके पास भेज रहे हैं। शहर के आसफ को मठ की समस्या को हल करने के लिए आदेश जारी कर दिया गया है। आप उनसे सम्पर्क कर लें। 
        दिनांक 26,माह समरीसाला बावरबाढ़ी, सन् 1219, महाम्मद विरोधीकृता संवत असाढ़ बहुला 12 लेखक नरसइया, हस्ताक्षर नबी मलिक।
        यह विशिष्ट घटना जो कि तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान घटी पूरी तरह दस्तावेज में दर्ज है, जिसके बारे में इतिहासकार ही नहीं बल्कि सामान्य जन भी जानकारी रखते हैं। कन्नड़ में लिखे लगभग 30 पत्रों का एक संग्रह जो कि टीपू सुल्तान के दरबार व श्रृंगेरी के शंकराचार्य के बीच परस्पर लिखे गये थे सन् 1916 में मैसूर में पुरातत्व विभाग के निदेशक के द्वारा खोज निकाले गये।
        टीपू के श्रृंगेरी मठ के साथ रिश्ते श्रृंगेरी पर मराठा हमले के समय नहीं बने बल्कि उससे पूर्व 1785 ई. से बने थे, जब टीपू ने एक राजाज्ञा (निरुपा) जारी की जिसके अनुसार श्रृंगेरी मठ के पट्टे या दस्तावेज को नवीनीकृत किया गया। इस पट्टे या दस्तावेज में इस बात को सत्यापित किया गया था कि श्रृंगेरी मठ को पिछले समयों से जारी ‘सर्वमान्य’ का सम्मान जारी रहेगा तथा उसे सारी समस्या या झंझटों से मुक्त रखा जायेगा। सर्वमान्य का मतलब यह था कि इस फैसले के तहत आने वाली सीमाओं को कर देने से छूट रहेगी तथा इस सीमा के भीतर स्वतंत्र रूप से कर व कानून लागू करने की उन्हें (मठ को) छूट होगी। 
        श्रृंगेरी के मठ व नगर के ध्वंस (मराठों द्वारा -सं.) से ठीक पहले टीपू और शंकराचार्य के बीच पत्र व्यवहार हुुआ था (अप्रैल-जून 1791) जिसमें टीपू ने शंकराचार्य को भरोसा दिलाया था कि मैसूर की सेना उन लोगोें के खिलाफ संघर्षरत है जिन्होंने उस राज्य का अतिक्रमण किया है तथा जनता पर हमला किया है। टीपू दृढ़ता के साथ यह विश्वास करता था कि शंकराचार्य का आशीर्वाद उसके राज्य में खुशियां व सम्पन्नता लायेगा। इन पत्रों में से एक में टीपू लिखता है कि उसके राज्य में शंकराचार्य जैसे संतों की बदौलत सम्पन्नता है, अच्छी वर्षा होती है, अच्छी फसलें होती हैं इत्यादि। 
        टीपू के महल श्रीरंगपट्टनम के सामने लगभग 1000 ई. का बना एक विशाल विष्णु मंदिर है जिसे रंगनाथ स्वामी मंदिर कहते हैं। इस मंदिर को मैंने स्वयं देखा है। अगर टीपू सांप्रदायिक होता तो क्या उसने इस मंदिर का ध्वंस नहीं किया होता? इसके विपरीत उसने इस मंदिर को कई महंगे उपहार दिये। 
        टीपू सुल्तान का खजांची कृष्ण राय समैया आयंगर उसका डाक व पुलिस मंत्री, उसका भाई रंगा आइंगर भी एक अधिकारी था। पुणैया के पास बहुत महत्वपूर्ण ओहदा ‘मीर आसफ’ का था। मूलचंद व सुजान राय मुगल दरबार में उसके दूत थे। उसका पेशकार सुब्बाराव भी हिंदू था। 
        मैसूर गजेटियर के संपादक प्रो. श्रीकांतैया ने 156 मंदिरों को सूचीबद्ध किया है जिन्हें टीपू सुल्तान अनुदान देता था। अनुदान राजाज्ञाओं (डीड) के रूप में तथा सुल्तान के दरबार व मंदिरों के बीच पत्र व्यवहार के रूप में इसके कई सबूत हैं कि उसने सोने के आभूषण व भूमि मंदिरों को दान दी। 1782 से 1799 ई. के बीच टीपू ने 34 सनदें अपने राज्य की सीमा के भीतर मंदिरों के लिए दान हेतु जारी की जिसमें इन मंदिरों को सोने व चांदी की प्लेटें दान की गयीं। नंजनगर के श्रीकांतेश्वर मंदिर के पास अभी भी आभूषण युक्त वह प्याला रखा है जो सुल्तान ने दान दिया था। टीपू ने श्रीरंगपट्टनम के रंगनाथ मंदिर को हरे रंग का एक लिंग भेंट किया तथा चांदी के प्याले तथा चांदी का एक कपूरदान दान दिया। यह मंदिर उसके महल से मात्र कुछ गज की दूरी पर था। टीपू अपने महल से मंदिर की घंटियां और मस्जिद से मुअज्जिन की अजान को एक साथ सुनता था। कलाते स्थित लक्ष्मीकांत मंदिर को उसने चांदी के चार प्याले और चांदी का एक थूकदान दिया। 
        बी.ए.सालेतारे ने टीपू सुल्तान को ‘हिंदू धर्म के रक्षक’ के रूप में चित्रित किया है, जिसने कई अन्य मंदिरों को भी नियमित अनुदान दिया। इनमें एक मेलकोटे में स्थित है, जिसके लिए उसने कन्नड़ में राजाज्ञा जारी की कि वहां श्री वैष्णव के छंद युक्त गीत प्रतिदिन परंपरागत रूप में गाये जायें। मेलकोटे के मंदिर में आज भी एक सोने और एक चांदी का पात्र है, जिसमें यह खुदा हुआ है कि वे टीपू सुल्तान द्वारा मंदिर को उपहार स्वरूप दी गयी। टीपू सुल्तान ने कलाते स्थित लक्ष्मीकांत मंदिर को भी चांदी के चार प्याले उपहार दिये थे। 
        इस तरह अब हर कोई समझ सकता है कि हमारे इतिहास के साथ किस प्रकार की शरारत की गयी है। हमारे इतिहास की पुस्तकों को जानबूझकर झूठ पर आधारित किया गया है ताकि बहुत शुरूआती समय से ही, जब दिमाग में धारणायें बननी शुरू होती हैं, भारत में एक हिंदू बच्चा मुसलमानों से नफरत करने लग जाये और पाकिस्तान में एक मुस्लिम बच्चा हिंदुओं से नफरत करने लग जाये। शुरूआती धारणाओं के निर्माण के समय बच्चों के दिमाग में जो बैठ जाता है जिंदगी भर उसे दिमाग से निकाल पाना मुश्किल होता है। हमारी सभी इतिहास की किताबों में इस प्रकार का मिथ्याकरण किया गया है। 
        टीपू सुल्तान जो कि एक दृढ़ धर्मनिरपेक्ष शासक था, का चरित्र हनन करके उस पर एक सांप्रदायिक शासक का ठप्पा क्यों लगाया जा रहा है। इसका उत्तर साफ है कि वह अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बहादुरी से लड़ा। यह ब्रिटिश सरकार और उसके वफादार चाकर ही हैं जिन्होंने यह शरारत की है।
        यह समय है कि हम इतिहास की पुस्तकों को सही तरीके से पुनः लिखें और यह दिखायें कि वास्तव में 1857 तक भारत में सांप्रदायिक समस्या नहीं थी। तब तक भारत में एक मिली जुली संस्कृति का निर्माण हों चुका था। हिंदू ईद और मोहर्रम में भाग लेते थे तथा मुस्लिम होली और दिवाली मनाते थे। 
        हमारी राजनीतिक देह में सांप्रदायिकता का प्रवेश ब्रिटिशों ने ‘फूट डालो और राज करो’ के तहत 1857 के विद्रोह को दबाने के बाद किया था जिसमें हिंदू व मुसलमानों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और यह नीति कुछ लोगों द्वारा अपने तुच्छ स्वार्थों की खातिर 1947 से जारी है।

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