शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

मानव शरीर क्रिया: हार्मोन की सिम्फनी

-शाकिर
        पंचतंत्र में एक मजेदार श्लोक है। वह कुछ इस प्रकार है:-
द्वौ उपायौ इह प्रौक्तौ विमुक्तौ शत्रुदर्शने 
हस्तयोश्चालनात एकः द्वितीयः पादवेगज
        यानि शत्रु का सामना होने पर दो ही उपाय प्रयोग में लाये जा सकते हैं- एक, हाथों से भिड़ लिया जाये या दूसरा, पांवों से तेजी से भाग लिया जाये। यह वही चीज है जिसे जीव विज्ञान में फाइट या फ्लाइट सिन्ड्रोम कहते हैं यानि खतरे का, खासकर अचानक सामने आने वाले खतरे का जन्तु दो ही तरीके से सामना करते हैं या तो वे लड़ते हैं या वे भाग लेते हैं।
        फाइट या फ्लाइट की यह क्रिया अचानक खतरे के सामने तेजी से घटित होती है और अक्सर ही जन्तु समझने से पहले ही क्रिया सम्पन्न कर चुका होता है। यह कैसे होता है? 
        हममें से हर कोई जीवन में कभी न कभी अचानक खतरे का सामना कर चुका होता है। उस समय क्या होता है? उस समय अक्सर ही शरीर में इस तरह के लक्षण प्रकट होते हैं- रोंगटे खड़े हो जाते हैं, पुतलियां फैल जाती हैं, पसीना आने लगता है, हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, सांस तेजी से चलने लगती है, पूरा शरीर तन जाता है। असल में ये लक्षण इस बात के संकेत हैं कि पूरा शरीर फाइट या फ्लाइट के लिये तैयार है। इन ऊपरी लक्षणों के पीछे पूरे शरीर में होता यह है कि ग्लूकोज, प्रोटीन और वसा के अपघटन की प्रक्रिया तेज हो जाती है। यानि फाइट या फ्लाइट में खर्च होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा पैदा होने लगती है। 
        अब सवाल यह है कि पूरे शरीर में यह प्रतिक्रिया तेज होती कैसे है? इसका क्या मेकेनिज्म है? हम शाम या रात के धुंधलके में चले जा रहे हैं। अचानक हमारे सामने कोई चीज आ जाती है या अचानक हमें कोई आवाज सुनाई देती है। हमारी आंखों ने जो देखा या हमारे कानों ने जो सुना उससे अचानक उपरोक्त शारीरिक प्रतिक्रिया कैसे होती है? 
        जैसा कि ‘परचम’ के एक पहले के लेख में बताया गया था, हमारे शरीर में मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र का एक पूरा तंत्र है जो शरीर के बाहरी और भीतरी सभी अंगों का संचालन करता है। यह संचालन बाहर से ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त संवेदनों के आधार पर होता है। जहां बाहरी अंगों का संचालन ऐच्छिक होता है वहीं भीतरी अंगों का संचालन अनैच्छिक होता है। हाथ-पांव का संचालन जहां इच्छानुसार होता है वहीं दिल, फेफड़े या किडनी का संचालन, उनका तेज या धीमा होना, अपने आप होता है।
        इसमें यह भी होता है कि अचानक घटनाओं के प्रति पहली प्रतिक्रिया मस्तिष्क के बदले स्पाइनल कार्ड से होती है। मस्तिष्क उसे बाद में विश्लेषित करता है। हाथ में कुछ चुभने पर हाथ तुरंत हट जाता है, दमाग उस पर ध्यान बाद में देता है।
        पिन चुभने पर हाथ का ऐच्छिक या अनैच्छिक तरीके से हटना हाथ की मांसपेशियों को क्रिया के लिए स्पाइनल कार्ड या मस्तिष्क द्वारा संदेश के जरिये होता है। मोटर तंत्रिका से मांसपेशी में संवेदन पहुंचते ही मांसपेशी सिकुड़ जाती है और हाथ हट जाता है। पर खतरे के सामने दिल तेजी से धड़कने इत्यादि की क्रियाएं कैसे होती हैं? कैसे ग्लूकोज इत्यादि का तेजी से अपघटन होने लगता है?
        यह प्रतिक्रिया थोड़ी लम्बी और जटिल है। इसमें शरीर के मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के अलावा अन्य अंग भी भागीदारी करते हैं। इन अन्य अंगों को अंतः स्रावी ग्रंथियां बोलते हैं, जिनसे खास तरह के रसायन निकलते हैं, जो खून के जरिये जरूरत की जगह पहुंचते हैं। इन रसायनों को हार्मोन कहते हैं। 
        फाइट या फ्लाइट सिंड्रोम में शरीर में उपरोक्त प्रतिक्रिया पैदा करने वाला रसायन एड्रिनलीन है। यह रसायन किडनी के ऊपर स्थित छोटी सी एड्रिनल ग्रंथि से निकलता है। शरीर में मौजूद दोनों किडनी के ऊपर यह ग्रंथि पाई जाती है। 
        पर यह ग्रंथि स्वयं कैसे सक्रिय होती है यानी इससे एड्रिनलीन रसायन निकलने का संकेत कहां से आता है? यह संकेत आता है मस्तिष्क के निचले हिस्से में मौजूद पियूष ग्रंथि से। यहां से एड्रिनोकोर्टिकोर्फिक रसायन निकलता है, जो एड्रिनल ग्रंथि को सक्रिय करता है। 
        लेकिन स्वयं पियूष ग्रंथि (पिचुटरी ग्लैण्ड) इस मामले में सक्रिय होती है, मस्तिष्क के दूसरे हिस्से हाइपोथैलमस से। यह मस्तिष्क के अगले हिस्से के पिछले भाग (अग्र मस्तिष्क पश्च) में होता है। हाइपोथैलमस कुल सात मुक्तिकारी और तीन विरोधी हार्मोन पैदा करता है और पियूष ग्रंथि में भेजता है। इन्हीं में से एक पियूष ग्रंथि से एड्रिनोकोर्टिकोर्फिक हार्मोन स्रावित करने का संकेत देता है। 
        इस तरह फाइट या फ्लाइट सिंड्रोम की पूरी प्रक्रिया इस प्रकार होती है। आंख या कान के जरिये अचानक खतरे का संवेदन जाते ही सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम (मस्तिष्क और स्पाइनल कार्ड) प्रतिक्रिया करता है। यह प्रतिक्रिया हाइपोथैलमस को सक्रिय करती है, जिससे एक मुक्तिकारी हार्मोन पियूष ग्रंथि में स्रावित होता है। इस हार्मोन के प्रभाव में पियूष ग्रंथि एक हार्मोन स्रावित करती है जो किडनी के ऊपर स्थित एड्रिनल ग्रंथि के लिए होता है। वहां पहुंचने पर यह हार्मोन एड्रिनल ग्रंथि से एड्रिनलीन हार्मोन स्रावित होने को प्रेरित करता है। एड्रिनल ग्रंथि से एड्रिनलीन खून के जरिये शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंचता है और भांति-भांति की क्रियाओं को प्रेरित करता है, जैसे सांस का तेज होना यानी ज्यादा सांस लेना, दिल की धड़कन तेज होना यानी शरीर में खून का प्रवाह तेज होना इत्यादि। इस सबके जरिये शरीर फाइट या फ्लाइट के लिए तैयार हो जाता है।
        इस तरह मस्तिष्क, तंत्रिका तंत्र और हार्मोन ग्रंथियों के सम्मिलित प्रभाव से ही फाइट या फ्लाइट की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। इसीलिए जीव विज्ञान में इसे संयोजन और एकीकरण कहते हैं। जहां मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र बिन्दु दर बिन्दु यह काम करता है और तंत्रिका तंत्र के विस्तार तक सीमित रहता है, वहीं हार्मोन के जरिये रासायनिक संयोजन एवं एकीकरण शरीर की एक-एक कोशिका तक पहुंच जाता है। दोनामिलकर शरीर को सूक्ष्म (कोशिका) और वृहद (अंग) दोनों स्तर पर नियंत्रित और संचालित करते हैं। 
        हार्मोन रसायनों की क्रिया को थोड़ा बारीक स्तर पर देखना फायदेमंद होगा। कोशिका के भीतर आण्विक स्तर पर जैव रासायनिक क्रियाएं चलती रहती हैं। इसके जरिए भांति-भांति के जैविक अणु बनते-बिगड़ते रहते हैं। इन्हीं अणुओं से कोशिका के भीतर की संरचनाएं (आर्गनेल) बनती हैं। 
        इन जैविक अणुओं के बनने-बिगड़ने की जैव-रासायनिक क्रिया उत्प्रेरकों के द्वारा होती है। उत्प्रेरक ही किसी क्रिया को शुरू या खत्म करते हैं या तकनीकी तौर पर सही-सही कहें तो किसी जैव-रासायनिक क्रिया को जरुरत भर तेेज या धीमा करते हैं यानि सब कुछ इन उत्प्रेरकों पर निर्भर करता है।
        हार्मोन असल में इन्हीं उत्प्रेरकों को सक्रिय करने का काम करते हैं या फिर उस रासायनिक प्रक्रिया को सक्रिय करने का (यानि किसी अन्य उत्प्रेरक को सक्रिय करने का) जो इन उत्प्रेरकों को पैदा करें। ऐसा वे कोशिका में प्रवेश करके या बिना प्रवेश किये ही करते हैं। 
        जब हार्मोन रसायन किसी लक्षित कोशिका तक पहुंचता है तो दो में से एक चीज होती है। एक मामले में यह रसायन (अक्सर प्रोटीन या प्रोटीन का घटक पेप्टाइड अणु) कोशिका की झिल्ली में मौजूद प्रोटीन अणु से संबद्ध हो जाता है। (कोशिका की झिल्ली प्रोटीन और वसा अणुओं से बनी होती है)। इस संबद्धता से झिल्ली के प्रोटीन अणु में कुछ परिवर्तन हो जाता है, जो अपनी बारी में झिल्ली की भीतरी सतह यानि कोशिका द्रव्य में मौजूद कुछ अणुओं पर प्रतिक्रिया करता है। इससे रासायनिक क्रियाओं की वह श्रृंखला शुरू होती है, जो लक्षित जैव अणु के उत्पादन या विघटन तक ले जाती है। 
        दूसरे मामले में हार्मोन रसायन कोशिका झिल्ली को पार कर कोशिका द्रव्य या कोशिका के नाभिक में पहुंच जाता है। वहां वह जैव रासायनिक क्रियाओं की श्रृंखला शुरू करता है। 
        इस तरह आंखों और कानों द्वारा संवेदन का अंतिम प्रभाव कोशिकाओं के भीतर जैव रासायनिक क्रियाओं तक होता है, जिसमें जैविक अणु जरूरत के मुताबिक बनते या टूटते हैं। फाइट या फ्लाइट सिंड्रोम में ग्लूकोज, प्रोटीन और वसा के अणु टूटते हैं, ऊर्जा मुक्त होती है जो लड़ने या भागने के काम आती है। 
        परन्तु हार्मोन का काम तात्कालिक तौर पर संयोजन और एकीकरण का ही नहीं होता। बल्कि जीव के वृद्धि और विकास में भी इनकी अहम भूमिका होती है। एक उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करते हैं।
        लड़के-लड़कियां शैशव अवस्था में लगभग एक जैसे होते हैं। उनका शारीरिक विकास भी लगभग एक जैसा होता है। एक जैसे बाल और कपड़े होने पर कई बार लड़के-लड़की में भेद करना मुश्किल हो जाता है। 
        पर किशोरावस्था शुरू होते ही ऐसा नहीं रह जाता। अब लड़के-लड़की में तेजी से शारीरिक फर्क शुरू होता है और कुछ ही सालों में यह परिवर्तन पूरा हो जाता है। अब लड़के-लड़की या स्त्री-पुरुष शारीरिक तौर पर साफ-साफ पहचाने जा सकते हैं। उनके शरीर में यह परिवर्तन केवल बाहरी ही नहीं बल्कि आंतरिक भी होता है। बल्कि आंतरिक परिवर्तन ही जरूरत के मुताबिक बाहरी परिवर्तनों को जन्म देते हैं।
        इस परिवर्तन की शुरूआत हाइपोथैलमस जी.एन.आर.एच. या गोनाडोट्राफिन रिलीजिंग हार्मोन से होती है। यह हार्मोन पियूष ग्रंथि में गोनाडोट्रोफिन (जनन) हार्मोन के स्राव को प्रेरित करता है। पियूष ग्रंथि से लुटिनाइजिंग हार्मोन (एल.एच.) और फालिकल स्टिमुलेटिंग हार्मोन (एफ.एस.एच.) नामक दो गोनाडोट्राफिन हार्मोन निकलते हैं। एल.एच. पुरुष के वृषण में पहुंचकर वहां एंड्रोजन नामक हार्मोन को स्रावित करने के लिए प्रेरित करता है जबकि एफ.एस.एच. स्त्री के अण्डाशय में पहुंचकर वहां एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टरोन नामक हार्मोन के स्राव को प्रेरित करता है। एंड्रोजन पुरुष लैंगिक अंगों के विकास के साथ-साथ पुरुष वाले बाल शरीर पर उगाता है जबकि स्त्रियों में यही काम एस्ट्रोजन करता है। इन्हीं से शरीर का आकार-प्रकार भी बदल जाता है। प्रोजेस्टरोन गर्भावस्था को संभालता है। (थोड़ा बारीकी में बात करें तो एल.एच. और एफ.एस.एच. तथा एंड्रोजन और एस्ट्रोेजन की क्रमशः पुरुष और स्त्री में इन प्रमुख भूमिकाओं के साथ-साथ विपरीत लिंग में भी कुछ द्वितीयक भूमिकाएं भी होती हैं, जो कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं। इसीलिए कहा जाता है कि हार्मोन के स्तर पर हर पुरुष साथ में स्त्री तथा हर स्त्री साथ में पुरुष भी होती है। बात केवल प्रमुखता की है)।
        पहले हाइपोथैलमस, फिर पियूष ग्रंथि, फिर संबंधित हार्मोन ग्रंथि तथा अंत में कोशिकाओं के स्तर पर प्रभाव। इसीलिए किसी ने इसे सिम्फनी का नाम दिया है और कहा है कि शरीर रसायनों की सिम्फनी है। यदि यह सिम्फनी है तो कहना होगा कि हाइपोथैलमस इसका कन्डक्टर है और इस सिम्फनी को आयोजित एक कोशिकीय जाइगोट (शुक्राणु और अण्डाणु के मिलने से) से ही शुरू हो जाती है और जीवन पर्यन्त बजती रहती है। 
        यह सिम्फनी अद्भुत है पर यह याद रखना होगा कि जैविक मामले में हर चीज की तरह इसकी शुरुआत भी बहुत मामूली स्तर पर हुई थी। शुरुआती जीवों में रसायन का यह संयोजन एवं एकीकरण बहुत सरल होता है, जो जैव विकास के साथ जटिल होता जाता है। मानव शरीर में यह अन्य चीजों की तरह ही बहुत जटिल स्तर पर पहुंच जाता है। पर इस जटिलता मंे भी बुनियादी सरलता विद्यमान रहती है। जीवों में सरलता और जटिलता की यह बुनियादी एकता जीवन की एक अहम चारित्रिक विशेषता है। 
        मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के साथ अंतःस्रावी ग्रंथियों की पूरी व्यवस्था समूचे शरीर को इस तरह संयोजित और एकीकृत करती है कि पूरा शरीर एक इकाई की तरह काम करता है। इसके जरिये शरीर बाहरी और भीतरी तौर पर तथा सूक्ष्म से लेकर वृहद स्तर पर अपनी क्रियाएं सुचारू रूप से सम्पन्न करता है। चार सौ करोड़ साल में क्रमशः पैदा हुई यह व्यवस्था इतनी मजी हुई है कि कभी-कभी ही इसमें व्यवधान या व्यतिरेक पैदा होता है, जिसे हम बीमारी या विकृति के नाम से जानते हैं।एक ऐसी ही बीमारी डायबिटीज या मधुमेह है। आधुनिक जीवन शैली में इसकी अधिकता के कारण आज ज्यादातर लोग इससे परिचित हैं। आम भाषा में इसका मतलब है ग्लूकोज या शुगर की अधिकता। 
        हम अपने भोजन में जो कुछ भी खाते हैं उसमें कम या ज्यादा मात्रा में कार्बोहाइड्रेट होता है जो शरीर में ऊर्जा प्रदान करने के काम आता है। पाचन के दौरान कार्बोहाइड्रेट अपने सरल अणु ग्लूकोज में टूट जाता है खून में अवशोषित होकर हर कोशिका तक पहुंचता है और वहां स्थित माइट्रोकाण्ड्रिया में इसके टूटने से ऊर्जा निकलती है जो जैव-रासायनिक क्रियाओं में काम आती है। 
        जरूरत भर ऊर्जा से ज्यादा ग्लूकोज होने पर यह ग्लाइकोजेन अणु के रूप में शरीर में इकट्ठा कर लिया जाता है। जब शरीर को ऊर्जा की आवश्यकता होती हैे तो ग्लाइकोजेन टूट कर ग्लूकोज अणु में बदल जाता है। ग्लूकोज को ग्लाइकोजेन में और ग्लाइकोजेन को ग्लूकोज में बदलने का काम दो हार्मोन करते हैं जो अग्नाशय (पैंक्रियास) में पैदा होते हैं। इन्हें क्रमशः इन्सुलिन और ग्लूकागान कहते हैं।
        जब किन्हीं वजहों से अग्नाशय में इंसुलिन हार्मोन का स्राव बाधित हो जाता है तब ग्लूकोज के ग्लाइकोजन अणु में बदलने की क्रिया बाधित हो जाती है। इससे खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है। ग्लूकोज की इस बढ़ी हुुई मात्रा को कम करने के लिए किडनी ज्यादा मूत्र पैदा करती है, जिससे ग्लूकोज शरीर से बाहर निकल जाये। इसीलिए डायबिटीज के मरीज ज्यादा पेशाब करते हैं और उनके पेशाब में ग्लूकोज की मात्रा ज्यादा होती है। 
        खून में ग्लूकोज की मात्रा होने से शरीर के कई अंगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। खासकर किडनी और आंख की रेटिना इससे प्रभावित होते हैं। इसीलिए खून में ग्लूकोज की बढ़ी मात्रा को नियंत्रित करना ज्यादा जरूरी हो जाता है। इसके लिए शरीर में बाहर से इंसुलिन पहुंचाई जाती है। इसके लिए डायबिटीज के मरीज समय-समय पर इंसुलिन का इंजेक्शन लेते हैं।
इंसुलिन हार्मोन के इस एक उदाहरण से शरीर में रासायनिक संयोजन और एकीकरण तथा उसमें होने वाली विकृतियों और उसके प्रभावों को समझा जा सकता है।     

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