-चंदन
शिक्षा के निजीकरण ने अपनी 30 साल की यात्रा में शिक्षा की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। शुरुआत में छोटे डग भरते हुए बाद के समय में शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया बहुत तेजी से आगे बढ़ी है। छोटे कुकुरमुत्ते सरीखे स्कूल-कालेज और आलीशान फाइव स्टार सरीखे स्कूल-कालेज हमारे सामने हैं। शिक्षा का निजी हाथों में होना वैसे तो हमेशा की बात रही है। सेठ-व्यापारियों, धार्मिक समूहों व अन्य द्वारा स्कूल-कालेेज खोलना भारत का सच रहा है। ‘शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी है’ कहकर भी हकीकत में निजी स्कूल-कालेज भारत में फलते-फूलते रहे।
1991 में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को सरकार द्वारा अपनाने के बाद ‘शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी है’ जैसी बातें सरकार की जुबान व कामों से मिटती चली गयी हैं। ‘सरकार कोई धर्मशाला नहीं है’ जैसे वाक्य उसके आत्म वाक्य बन गये। निजीकरण की नीति ने शिक्षा को एक माल के रूप में तब्दील कर दिया है। छुटभैये पूंजीपति से लेकर देश का बड़ा पूंजीपति वर्ग शिक्षा से मुनाफा कमाने की गरज से स्कूल-कालेज खोलने लगा।
1986 में तत्कालीन सरकार ने नयी शिक्षा नीति से शिक्षा को बाजार भाव के लिए छोड़ दिया। निर्विवाद रूप से आगे की सरकारों ने इसे जारी रखा। क्या तो संयुक्त मोर्चा की गठबंधन सरकार (जनता दल, सीपीआई, सीपीएम आदि), भाजपा, कांग्रेस और क्या राज्य सरकारें सभी शिक्षा के व्यापार के लिए मंडियां सजवाने लगे।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 कहती है ‘‘संसाधनों को, जहां तक भी संभव होगा डोनेशन की उगाही को प्रोत्साहन देेकर, उच्च शिक्षा के स्तरों पर फीस वृद्धि करके तथा सुविधाओं के कुशल इस्तेमाल के द्वारा बचत करके हासिल किया जायेगा। ये सभी कदम राज्य के मौजूदा बोझ को घटाने के लिए ही नहीं बल्कि शिक्षा तंत्र में और गहन जिम्मेदारी की भावना के विकास के लिए उठाये जायेंगे।’’ (अनुच्छेद-11.2)। इसके परिणाम को आज हम सरकारी शिक्षण संस्थानों के हालात देखकर जानते हैं। यहां सुविधाओं का इतना कुशल इस्तेमाल हुआ कि शिक्षकों, कुर्सी, मेजों, किताबों प्रयोगशालाओं की कमी से प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा, तकनीकी और मेडिकल शिक्षा जूझ रहे हैं। यही तो है सुविधाओं का कुशल इस्तेमाल। संसाधनों को जुटाने के लिए निःशुल्क शिक्षा, शुल्क शिक्षा में बदल गयी। छात्रों के विरोध प्रदर्शन इसे टाल तो सके पर रोक नहीं पाये। अक्सर ही ये विरोध विश्वविद्यालय की सीमा तक रहे जिसने समग्र शिक्षा नीति(जड़) की जगह फीसों(लक्षण) पर हमला किया और जड़ कायम रही। यह शिक्षा को मुनाफे की वस्तु बनाने की सरकारी शुरुआत थी।
इस शुरुआत का दूसरा हिस्सा था निजी शिक्षण संस्थानों का खुलना और बढ़ना। प्राथमिक से उच्च और तकनीकी, मेडिकल शिक्षा तक प्राइवेट कालेजों और विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आ गयी। ये निजी शिक्षण संस्थान विशुद्ध मुनाफे के लक्ष्य के साथ खुले थे। निजी संस्थानों की बढ़ोत्तरी का आलम ये था कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने नये सरकारी कालेज खोलने पर रोक लगा दी थी; फिर भी 80 के दशक के 4000 कालेजों की तुलना में 1999 तक 9000 कालेज थे। सरकारी शिक्षा में ‘सुविधाओं के कुशल इस्तेमाल’ का नतीजा निजी कालेजों में बढ़ती छात्र संख्या के रूप में हुआ। प्रवेश के समय ली जाने वाली डोनेशन-कैपीटेशन फीसों ने पूंजीपतियों को इस ओर आकर्षित किया। इसीलिए बिड़ला, रिलायंस, पीयरलेस आदि पूंजीवादी घरानों ने शिक्षा क्षेत्र में निवेश पर उत्सुकता दिखाई। नर्सरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक यह व्यापार खूब फलने-फूलने लगा।
व्यवस्था के एक हिस्से के रूप में न्यायालय की पक्षधरता को भी समझना उपयोगी रहेगा। 1992 में मोहिनी जैन व अन्य ने कर्नाटक सरकार व अन्य के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की। 30 जुलाई, 1992 में न्यायालय ने फैसला दिया ‘‘एक गरीब छात्र बेहतर योग्यता रखते हुए भी दाखिला नहीं पा सकता, केवल इसलिए कि वह गरीब है, जबकि अमीर दाखिला ‘खरीद’ लेता है। निश्चित ही यह प्रक्रिया गलत और अतार्किक है। अतः इसके अलावा और कोई निष्कर्ष हो ही नहीं सकता कि शिक्षण संस्थाओं में दाखिले के लिए कैपीटेशन फीस लिया जाना पूर्णतः मनमाना और निरंकुश प्रक्रिया है तथा संविधान के प्रदत्त मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है....।’’ साफ है कि यह फैसला निजीकरण के पक्ष में नहीं था। अक्सर ही ऐसे फैसले व्यवस्था के ‘गलत तालमेल’ से हो जाते हैं। ऐसे में उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ ने फैसले को बदल दिया ‘‘कम से कम 50 प्रतिशत सीटें योग्यता के आधार पर भरी जाएं, जबकि शेष 50 प्रतिशत बिना योग्यता के डोनेशन के आधार पर भरी जा सकती हैं। इस डोनेशन कोटेे की सीटों के लिए फीस निर्धारण का कार्य संस्था का प्रबंधन करेगा, जिससे योग्यता सूची के आधार पर हुए दाखिलों से हुई आर्थिक कमी की भरपाई की जा सके और निवेशक को उसका मनचाहा लाभ मिल सके।’’ अक्सर ही किसी नीति के बनने के बाद न्यायालय उसको व्याख्यायित करता है। सार यह है कि न्यायालय शिक्षा के निजीकरण व लूट के साथ खड़ा हो गया है, मजबूती से। स्थिति यहां पहुंच गयी कि 2009 में सरकार द्वारा गठित यशपाल कमेटी की सिफारिशों मेें निजी संस्थाओं के मनमानी कैपिटेशन फीसों पर चिंता जाहिर की और उसे रोकने के सुझाव दिये।
नयी शिक्षा नीति का समय ऐसा है जिसमें देश की आर्थिक नीतियों के मामले में सरकार ने बड़े बदलाव किए। ये बदलाव अर्थव्यवस्था के तथाकथित जनकल्याणकारी रूप को छोड़कर पूंजी के हितों के नये खोल में जाना था। इसका मुख्य कारण भारतीय पूंजीपतियों के लिए मुनाफा कमाने के लिए नए क्षेत्र खोलना था। 1947 में कमजोर पूंजीपति वर्ग 40 सालों में मजदूरों-मेहनतकशों के खून-पसीने-मज्जा को चूसकर मोटा हो चुका था। अब वह लंबी अवधि में मुनाफा देने वाले शिक्षा क्षेत्र में जाना चाहता था। उसे इसमें अकूत मुनाफे की संभावना दिखी। बस कुछ नीतियां बदलनी थीं। आगे चलकर भारतीय अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए खोल दिया गया। जिन्हें निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण का नाम दिया गया। इसने शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार सभी को मेहनतकशों से और दूर कर दिया।
निजीकरण के पिछले 25 सालों ने शिक्षा के प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक पांव पसार लिए हैं। आज देशी-विदेशी निगम इसमेें शामिल हैं। प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक(12 वीं) तक का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र चला रहा है। शिक्षा की गुणवत्ता आदि कारण गिनाकर निजीकरण को प्रोत्साहित किया गया था। लेकिन ये सारे वादे आज खोखले साबित हो चुके हैं। उच्च व तकनीकी शिक्षा के मामले में भी यही हुआ। लगातार मानकों का उल्लंघन करते हुए निजी संस्थान दोषी पाये जाते रहे। आज भी तकनीकि व मेडिकल शिक्षा के मामले में देश के आईआईटी व एम्स निजी संस्थानों से अधिक संसाधन वाले हैं। सरकार ने शिक्षा से हाथ पीछे खींचकर और संसाधनों को सीमित करके ही निजी संस्थाओं को आगे बढ़ाया है। साथ ही साथ संसाधन स्वयं जुटाने के नाम पर सरकारी शिक्षा की फीसों को भी निजी संस्थाओं की बराबरी में पहुंचा दिया।
निजीकरण के इस पूरे दौर की हकीकत यह है कि गुणवत्ताहीन महंगी शिक्षा ही उपलब्ध है। शिक्षा का सामाजिक महत्व खत्म कर निजी हित और ऊपर हो गए हैं। शिक्षा से व्यवसाय के मूल्यों को खत्म करके ही शिक्षा मानवता के लिए उपयोगी हो सकती है। वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था, जिसकी सरकार-न्यायालय सहित सभी अंग, जो हर स्तर पर शिक्षा को व्यवसाय बना चुकी है, को उखाड़ कर समाजवादी समाज ही शिक्षा के सामाजिक मूल्यों को स्थापित कर सकता है।
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