शुक्रवार, 20 मार्च 2015

पाठको की कलम से


                         अविश्वास और प्रतियोगिता बढ़ते जाना इस व्यवस्था में निहित है

   भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजीपतियों की पूंजी के दखल से और उसके बढ़ते प्रभाव से ही यह भावना भारतीय नागरिकों में समा रही है, कि जो आम नागरिक को बेवकूफ बनायेगा, वही स्मार्ट है और उसे ही जीवन के ऐशो-आराम मिलेंगे। फिर यह चाहे पूंजीपतियों और नेताओं के गठजोड़ से हो रहे घोटालों के रूप में सामने आता हो। 1991 का कारगिल का ताबूत घोटाला हो या टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अन्य। फर्जी कालेजों को खोलकर नकली डिग्रियां देकर छात्रों को ठगा जा रहा है। पिछले एक-दो दशक में   भारत के स्तर पर ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं। सरकारों द्वारा शिक्षा का बजट लगातार कम करते जाना और निजी कालेजों को मान्यता देते जाने से; छात्रों के माता-पिता की जेबों को खाली करने के जरिये; भी यही किया जा रहा है।

   1991 के बाद से अब तक बनीं सरकारों ने निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को ही आगे बढ़ाया है। सरकारी सेक्टरों को निजीकरण के तरत पूंजीपतियों के लिए मुनाफा कमाने के लिए बेचा जाना लगातार जारी है। श्रम कानूनों में परिवर्तन किया जा रहा है। पूंजीपतियों की पूंजी कैसे बढ़े इसके लिए कानून बनाये और बदले जाते हैं। न कि गरीबों को जीवन की गारंटी देने वाले सम्मानजनक और स्थायी रोजगार देने के लिए।

   शिक्षा का निजीकरण से निजी कालेजों के खुलने से उनकी भारी भरकम फीस 20 रु. प्रतिदिन पर जीवन व्यतीत करने वाली 77 प्रतिशत जनता के छात्र नहीं चुका सकते। हां! थोड़ी सम्पत्ति रखने वाले जीवन की सुरक्षा की आस में सम्पत्ति बेचकर डिग्री लेने के लिए निजी कालेजों के मालिकों की जेब भरकर और फिर बेरोजगारों की फौज में शामिल होकर अपने को ठगा पाते हैं। सरकारों द्वारा किये जा रहे वायदे या फिर बजाये जा रहे खोखले ढ़ोल इसलिए बजाये जाते हैं कि जब तक जनता को बहलाया जा सके बहलाया जाये, जब लोगों का संयम का बांध टूटे तब लोग यह निष्कर्ष निकालें कि यह सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी।

   आज इस पूंजीवादी व्यवस्था को पल-पल मौत देने वाली जनविरोधी और पूंजी के हित वाली नीतियों का पर्दा उठाने की जरूरत है। खोखला ढोल बजाने वाले का नहीं, बजवाने वाले असली खिलाड़ी का चेहरा जनता के सामने लाने की जरूरत है। जिससे 67 वर्षों के इस खोखले लोकतंत्र की हकीकत को समझकर इसे ढहाया जा सके और एक खुशहाल समाज के लिए संघर्ष को तेज किया जा सके।

                                                                                                                                उमेश, बरेली(उ.प्रदेश)


                                                                         धर्म का विरोधाभास

   जैसे कि कई लोग कहते हैं कि ‘धर्म के बिना जीवन सम्भव नही है’, यह बात सही नहीं है। धर्म तो सत्ता पक्ष की सेवा करता है। जैसा कि कई लोग मानते हैं कि धर्म सांत्वना देता है, लेकिन यह बात मन-मष्तिस्क पर थोड़ा जोर डालने पर सही नहीं लगती। क्योंकि धर्म किसी असफल व्यक्ति को यह कहके सांत्वना देता है कि उसका नसीब खराब है या उसके पिछले जन्म के कर्म ठीक नहीं है। धर्म द्वारा यह उपाधि पाकर वह व्यक्तिवादी हो जाता है और अपनी असफलताओं, कठिनाईयों को भी व्यक्तिवादी नजरिये से देखने लगता है। वह खुद को एकांत कर सकता है या डिप्रेशन का शिकार हो सकता है। कह सकते हैं कि धर्म का रोल एक व्यक्ति को व्यक्तिवादी बनाने में ही है।

   मनुष्य एक समाजिक प्राणी है, वो ना तो व्यक्तिगत रूप से अपनी विफलताओं के लिए न ही सफलताओं के लिए। यदि कोई समृद्ध है; तो वह सोचता है,  उसकी किस्मत अच्छी है, उसके कर्म बहुत अच्छे थे, पूर्व जन्म में। जिनके कर्म खराब हैं; वो गरीब हैं, दुःखी हैं, इस प्रकार भी वह व्यक्तिवादी होकर गरीबों से घृणा करता है।

   धर्म ने नारियों के साथ भी बराबरी का व्यवहार नहीं किया। तुलसीदास महिलाओं को ताड़ना की अधिकारी मानते हुए ढोल, पशु के बीच खड़े करते हैं।

   धर्म में विरोधाभास भी अजीव है गीता जो एक युद्धों की किताब है वो मरने-मारने के सिद्धांत में जीती है। किसी की हत्या हो जाने  पर कोई दोषी नहीं, बल्कि किसी की मृत्यु तो पहले से किसी के द्वारा होना निश्चित है। कृष्ण, अर्जुन को यही तो कहते हैं कि, ‘पार्थ तुम कौन होते हो किसी को मारने वाले, तुम तो सिर्फ अपना कर्तव्य करो। मरने वाले की मृत्यु तो तुम्हारे हाथों ही लिखी गयी है’। जबकि धर्मानुसार जीव हत्या तो पाप है। इस तरह धर्म का दर्शन विरोधाभासी है। वह बातों को अपने हिसाब से तोड़ता-मरोड़ता है।

                                                                                                मनीष जोशी, एमए प्रथम, हल्द्वानी(उत्तराखंड)

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