शुक्रवार, 20 मार्च 2015

परिचर्चा



                                          विषय- ‘‘शिक्षा व राजकीय काम किस भाषा में होना चाहिए’’

                                                     

                                                        भाषा एक जनवादी विषय है।
  मोदी सरकार यानी भाजपा के सत्ता में आते ही कई मुद्दे चर्चा में आये जैसे ‘हिन्दूवादी राष्ट्र’, ‘लव जिहाद’ आदि इन्हीं में से एक मुद्दा ‘भाषा’ का भी है। जिसमें कि हमारे राजनीतिक विचारकों का मानना है कि देश में शिक्षा व राजकीय काम एक ही भाषा में होने चाहिए। अब यहां यह जानना जरूरी हो जाता है कि क्या सचमुच भारत जैसे देश; जो कि एक बहुभाषी देश है, में सचमुच राजकीय काम व शिक्षा के लिए एक भाषा निश्चित होनी चाहिए। अगर हां तो वह भाषा कौन सी हो भारत जिसमें कि संविधान की 8 वीं अनुसूची में 18 भाषाओं को भारतीय भाषाओं का दर्जा मिला हुआ है और हर क्षेत्र, राज्य की भाषा भी अलग-अलग है तो क्या सरकार को भाषा जैसे जनवादी प्रश्न को एजेण्डे में शामिल करना चाहिए। हो सकता है कि उत्तर भारतीय; जहां कि मुख्य भाषा हिन्दी है, वह हिन्दी का समर्थन कर सकते हैं। लेकिन जरा सोचिए तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उड़ीसा, जहां के लोग क्रमशः तमिल, मराठी, उड़िया आदि भाषाएं बोलते हैं और हिन्दी जानते तक नहीं तो उन पर हिन्दी भाषा को अनिवार्य कर देना क्या तानाशाही को नही दर्शाता है? शिक्षा जिसका की पहले से ही हाल बुरा है, उसके लिए कोई एक भाषा सुनिश्चित कर देना अत्यधिक हानिकार है पहले तो प्रारम्भिक शिक्षा जितना हो सके, क्षेत्रीय भाषा में होनी चाहिए। अगर ऐसा ना भी हो तो कम से कम प्रांतीय भाषा में तो हो। जरा सोचिए अगर उत्तराखंड के किसी बच्चे को स्कूल में जाते ही तमिल या मराठी पढ़ाई जाए तो क्या वह सही मायने में शिक्षा ले पायेगा। भाषा जो कि विचारों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक साधन होता है, अगर उसे भी कोई दूसरा तय करे तो यह किस चीज को दर्शाता है आज के तकनीकी युग में यह अनिवार्य भी नहीं रह गया है। आज जहां ऐसी तकनीक विकसित हो गयी है कि एक बटन दबाकर आप किसी भी भाषा को अपनी भाषा में बदलकर पढ़ सकते हों तो ऐसे में जरूरी नहीं रह जाता कि हमें किसी ऐसी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य किया जाए, जो हमारी है ही नहीं।                                                                                                           रंजना, कोटद्वार(उत्तराखंड)

                                            

                                                   सवाल सिर्फ भाषा का नहीं जनवाद का है

   भारत में कुछ लोगों का मानना है कि भारत एक राष्ट्र है और इसलिए भारत में भी दूसरे राष्ट्रों की तरह ही सिर्फ एक भाषा बोली जानी चाहिए या सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होनी चाहिए। इन लोगों का कहना है कि वह भाषा हिन्दी ही होनी चाहिए।

   लेकिन भाषा के सवाल को हल करने से पहले, हमें यह सवाल हल करना होगा कि भारत एक राष्ट्र है या नहीं। अगर हम वैज्ञानिक परिभाषा के द्वारा राष्ट्र का सवाल हल कर लेते हैं, तो फिर हम भाषा के सवाल को भी हल कर लेंगे।

   वैज्ञानिक परिभाषा के अंतर्गत किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी एक आर्थिक-भौगालिक इकाई, जिसमें एक तरह की संस्कृति, परम्पराओं, वेशभूषा और एक तरह की भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। यह है राष्ट्र की वैज्ञानिक परिभाषा। क्या इस वैज्ञानिक परिभाषा के अंतर्गत भारत एक राष्ट्र घोषित हो सकता है? नहीं!

इन मापदण्डों के हिसाब से भारत एक राष्ट्र नहीं है। भारत में विभिन्न तरह की भाषाएं बोली जाती हैं। भारत में विभिन्न तरह की संस्कृति देखने को मिलती हैं। और इसी तरह यहां परम्परा और वेशभूषा भी भिन्न-भिन्न तरह की मौजूद हैं।

   सच तो यह है कि भारत में कई राष्ट्रीयताएं मौजूद हैं, जो वैज्ञानिक परिभाषा के मापदण्डों में खरी उतरती हैं जैसे- असमी, बंगाली, कश्मीरी, पंजाबी, नगा, मिजो, मराठी, आदि। ये सभी राष्ट्रीयताएं बनती हैं। इसलिए भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि कई राष्ट्रीयताओं का समूह है।

   अब ऐसे में भारत में किसी एक भाषा को कैसे लागू किया जा सकता है। जब भारत एक राष्ट्र है ही नहीं, वह तो कई राष्ट्रों का समूह है। अगर किसी एक भाषा को पूरे भारत में लागू किया भी जाता है तो सवाल यह है कि वह भाषा कौन सी होगी? क्योंकि किसी भी भाषा को लागू करते ही हम कई दूसरी राष्ट्रीयताओं का उत्पीड़न कर रहे होंगे। भाषा चुनने का अधिकार सीधे-सीधे जनवाद से जुड़ जाता है। और जनवाद सभी को उसकी भाषा बोलने का अधिकार देता है। कोई भी ऐसा निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए, जो जनवाद का हनन करता है।

   लेकिन सवाल यह है कि फिर भारत में वह कौन सी आम भाषा होगी जो पूरे देश में इस्तेमाल की जाएगी। यह सवाल एक बड़ा सवाल है। लेकिन इसका हल यह नहीं है कि देश के अंदर किसी एक भाषा को तानाशाही के तरीके से लागू कर दिया जाए। इस तानाशाही के निर्णय से यह होगा कि हम बाकी भाषाओं व बोली बोलने वालों का उत्पीड़न कर रहे होंगे और वह भाषाएं बोलने वाले लोग समाज में पिछड़ जायेंगे।

   हमें देश की जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए इस सवाल को हल करना होगा। भारत कई राष्ट्रीयताओं का समूह है। इसलिए यह सवाल जनवादी तरीके से हल होना चाहिए। सभी को उनकी अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार और अपनी भाषा बोलने का अधिकार मिलना चाहिए। रहा सवाल भारत में कोई एक भाषा बोलने का तो यह सवाल हमें भविष्य में छोड़ देना चाहिए। जिस तरह मानव जाति ने अपने इतिहास में कई भाषाओं को विकसित किया है। इसी तरह से भविष्य में भी भारत में इन्हीं सभी भाषाओं से एक नयी भाषा विकसित होगी। लेकिन वह भाषा कब तक विकसित होगी, कौन सी होगी? इन सवालों का जबाव भविष्य के गर्भ में छिपा है। हमें इस सवाल को तानाशाही तरीके से नहीं बल्कि जनवादी तरीके से हल करना होगा।

                                                                                                                           राजू, कोटद्वार (उत्तराखंड)


                                 राजकीय काम व शिक्षा के लिए एक अलग भाषा तो होनी चाहिए
राजकीय काम व शिक्षा व्यवस्था में कैसी भाषा होनी चाहिए यह तो कोई चर्चा का विषय नहीं है। पर हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि हिंदी राष्ट्र भाषा है तो हिंदी ही होनी चाहिए। यह कहना व मानना भी गलत है। किसी भी देश व निवासियों के लिए अलग-अलग भाषा होनी चाहिए। क्योंकि जो जिस देश का होगा, उसको वहीं की भाषा समझ में आयेगी। कोई भी मनुष्य अपने भाव या बोल-चाल की अभिव्यक्ति अपनी-अपनी भाषाा में करता है। क्योंकि किसी भी देश में सबसे अधिक बोली व ठीक ढंग से समझी जाने वाली भाषा उनकी राष्ट्रभाषा कहलाती है। संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाये। हिंदी भाषा को तो 37 करोड़ से अधिक बोलते हैं। मेरा मानना है कि कोई भी राजकीय काम व शिक्षा व्यवस्था के लिए एक अलग भाषा तो होनी चाहिए।

                                                                                                          किरन, कक्षा 12, कोटद्वार (उत्तराखंड)

                                       
                                             अपनी भाषा में परीक्षा देने का अधिकार हो

   हम सब जानते हैं कि भारत देश एक संघ है जिसमें अलग-अलग समुदाय के लोग रहते हैं। जिनकी बोल-चाल, भाषा, रहने का तरीका, खान-पान सब भिन्न-भिन्न है। जहां भारत में अलग-अलग राज्य के लोग अपने ही देश में रहने वाले दूसरे राज्य की भाषा से अपरिचित हैं, वहीं भारत सरकार यह ढोल पीटती है कि हिन्दी उसकी राष्ट्र भाषा है। हर भारतीय का यह उत्तरदायित्व है कि वह इसे बनाये रखे, लेकिन जहां इसे लागू करने व शिक्षा के क्षेत्र में उतारने की बात आती है, वहां सीधे-सीधे दोहरी नीति दिखाई देती है। जिसका बोझ तमाम मजदूर किसान और आम छात्रों व युवाओं पर पढ़ता है। यदि निचले स्तर की परीक्षा हिन्दी में होती है तो ऊंचे स्तर की परीक्षा अंग्रेजी में देनी पड़ती है। तमाम लोग इसकी चपेट से बच नहीं पाते और आक्रोश में आकर एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, जिसका सीधे फायदा सरकारों को होता है। वह इसकी आड़ में सभी सरकारी स्कूलों व कालेजों को निजी करती जा रही है और आम नागरिकों के बच्चे प्राइवेट स्कूल-कालेजों में जाने को मजबूर हैं। क्या तमाम समूहों व समुदायों के लिए किसी एक भाषा को थोपना ठीक होगा। यदि अलग-अलग राज्य के लोग अपनी भाषा में बोल-चाल करना या परीक्षा देना चाहते हैं तो उन्हें पूरा अधिकार होना चाहिए। फिर किसी एक सरल भाषा का विकास करना चाहिए जिसके बारे में सभी तबकों के लोगों को जानकारी हो। ऐसा करना कठिन तो होगा लेकिन धीरे-धीरे शिक्षा के क्षेत्र में सभी राज्यों में और देश में लागू किया जायेगा। तब किसी भाषा को राष्ट्र भाषा कहा जा सकता है।

                                                                    रश्मि, लालकुआं (उत्तराखंड)

                        

                                           शिक्षा में शासक वर्ग अपनी भाषा थोपता है
शिक्षा किसी भी समाज के विकास में योगदान देने का एक माध्यम है। समाज कितना सभ्य है, यह उसकी शिक्षा से तय किया जाता है। शासन व्यवस्था को  चलाने के लिए हम किसी भाषा का प्रयोग करते हैं। भाषा का अपना विकासक्रम है। अगर समाज का विकासक्रम शासकों के हाथों संचालित होता है तो वे भाषा को भी अपने हिसाब से संचालित करते हैं। भारत में कई भाषाएं हैं, शासन करने या राजकीय काम करने में यहां हिन्दी (देवनागरी) या अंग्रेजी का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है। यह भी शासन का एक माध्यम है। शिक्षा को भी शासक अपने माध्यम से देते हैं। शिक्षा में भी छात्रों को शासकीय मूल्य दिये जाते हैं। भारतीय समाज एक वर्गीय समाज है। इसमें एक ओर शासक तो दूसरी ओर जनता है, एक ओर शोषक तो दूसरी ओर शोषित हैं। एक ओर परोपजीवी हैं तो दूसरी ओर श्रमजीवी हैं या कहंे कि एक ओर अमीर हैं तो दूसरी ओर गरीब हैं। यह वर्गीय विभाजन भारतीय समाज में साफ-साफ दिखता है। अभी शोषक, परोपजीवी अमीर वर्ग जो अल्पसंख्यक हैं, का शासन भारत में है। वह अपने शासन को चलाने के लिए अपने तरीके से शिक्षा देने से लेकर राजकीय काम में भाषा की अनिर्वायता लागू करते हैं। समाज विकासक्रम में आगे बढ़ता है तो वह वर्गीय सरंचना को समझने लगता है। संघर्ष से समाज एक नई दिशा में बढ़ता है। वह वर्गीय संरचना को खत्म करते हुए शासकीय शिक्षा व राजकीय काम में भाषा की अनिवार्यता तक को खत्म करेगा तभी एक सही समाज के लिए शिक्षा व भाषा आगे बढ़ेगी।                                                                                                                  मोहन मटियाली, हल्द्वानी

                                         भाषा को जनता के खिलाफ इस्तेमाल करता शासकवर्ग

  भारत एक बहुराष्ट्रीय देश है। जिसमें अलग-अलग प्रकार की संस्कृति और सभ्यता के लोग रहते हैं। उनकी वेशभूषा खाना-पीना, रहना-सहना, आय के स्रोत आदि सब अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग हैं। बंगाल में बांग्ला, तमिल वाले इलाके में तमिल भाषा। ऐसे ही पूरे देश में अलग-अलग क्षेत्रों के राजकीय स्कूलों में अलग-अलग भाषा में शिक्षा प्रदान की जाती है। उनके आपस में बात करने की भाषा भी अलग-अलग है। वह अपनी भाषा के अनुसार पूरी तरीके से ढल चुके हैं। ऐसे में अचानक से हिन्दी भाषा को पूरे देश में लागू कर देना एक तरह से उन पर जबरदस्ती थोपने जैसा है। यह उनके लिए फांसी पर चढ़ने जैसा है। इस तरह शिक्षा को किसी एक भाषा के अंदर समेटना कोई अच्छी बात नहीं है। इससे उनके काम करने के तरीके व उनकी शिक्षा बुरी तरह से प्रभावित होगी।

   हां! हिन्दी भाषा को हम एक वैकल्पिक भाषा के तौर पर धीरे-धीरे सिखाने की कोशिश कर सकते हैं। शिक्षा के पाठयक्रम में एक वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल कर सकते हैं। हिन्दी भाषा को पूरे देश में शिक्षा और राजकीय कार्यों में लागू कर सरकार पूंजीपति वर्गों के काम को और आसान कर रही है।

   इससे पूंजीपतियों को किसी स्थान में जिस स्थान में मजदूर कम हैं या वहां के मजदूर किसी शोषण के कारणवश उनके खिलाफ खड़े होते हैं, तो ऐसे में पूंजीपति किसी दूसरे स्थान के मजदूरों को वहां ले जाकर अपना काम आसानी से पूरा करा सकते हैं। इससे उस क्षेत्र के मजदूरों की आवाज आसानी से दब सकती है।

                                                             सुनील सिंह बोहरा, बीएससी द्वितीय, एमबीपीजी, हल्द्वानी (उत्तराखंड)

                                                     किसी विशेष भाषा को न थोपा जाए

   जिस देश में हम रहते हैं, वहां भिन्न-भिन्न भाषाओं और जाति-धर्म के लोग रहते हैं। इसके साथ ही भारत देश एक लोकतांत्रिक देश है, जहां सभी लोगों को अपनी बात रखने का पूरा अधिकार होता है। जनवाद का मतलब ही सभी चीजों में समानता या बराबरी का अधिकार होता है। वहीं आज शासक वर्ग केवल भाषा का अधिकार दे सकने में हिचक रहा है। जबकि हमारे सामने भाषा की बात शीशे की तरह साफ है। भारत देश में अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं। दोस्तों! सभी चीजों की समानता है, तो भाषा को हम इससे भिन्न कैसे रख सकते हैं।

   शासक वर्ग द्वारा रची गयी दोहरी शिक्षा प्रणाली को हम साफ देख सकते हैं, जहां एक तरफ प्राइमरी तथा माध्यमिक शिक्षा को हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में रखा गया है वहीं उच्च शिक्षा को अंग्रेजी में रखा गया है। समानता का अधिकार होते हुए भी सभी भाषाओं को समानता नहीं दी जा रही है। सरकार किसी एक भाषा को थोपना चाहती है।

   अलग-अलग भाषाओं के चलते विभिन्न क्षेत्रों के छात्र जब परीक्षा देने के लिए आते हैं, तो भाषाओं के इस जाल में फंस कर वे गलती करते हैं और अन्ततः परिणाम जो निकलता है, वह असफलता ही होता है। क्या हमारी शिक्षा केवल भाषा से ही पहचानी जानी चाहिए? यदि हमें भाषा विशेष नहीं आती तो क्या हमारी शिक्षा बेकार हो जाएगी। यदि हम दूसरी भाषा सीख भी लेेते हैं तो क्या हम उसे समझ पायेंगे? या केवल उसे रट पाना ही आज की जरूरत है। कई बार भाषा के चलते हमारी असफलता हमें खुद को जिम्मेदार मानने के लिए मजबूर कर देती है। हमारे देश में अलग-अलग भाषाएं हैं, इसलिए सरकारी काम-काज अलग-अलग भाषा में ही होना चाहिए। शिक्षा भी अलग-अलग भाषा में ही होनी चाहिए ताकि सभी लोग आसानी से अपनी भाषा को समझकर काम-काज आसानी से कर पायें या तो किसी ऐसी भाषा को वरियता दी जाए जो सभी लोगों के लिए सामान्य हो।

                                                                                                                     रूपाली, लालकुआं(उत्तराखंड)

                                                  शिक्षा और राजकीय काम मातृभाषा में होने चाहिए


   भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है। बगैर भाषा के मानव विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। दुनिया में अनेक देश हैं और उनकी अपनी-अपनी भाषायें हैं। भारत जैसा देश जो कि अनेक ‘राष्ट्रीयताओं’ का संघ है, में बहुत सारी भाषायें हैं। अलग-अलग राष्ट्रीयताओं की अपनी मातृभाषायें हैं। क्षेत्र विशेष की मातृभाषा उसके विकास को भी दर्शाती है। मातृभाषा में शिक्षा क्षेत्र विशेष में सहज तरीके से उसके निवासियों के लिए ग्राह्य होती है। यदि किसी राष्ट्र विशेष में उनकी मातृभाषा से हटकर किसी अन्य भाषा में शिक्षा दी जाती है तो यह उनके लिए असहज और तनावपूर्ण होती है। क्योंकि उनकी मनोवैज्ञानिक बनाटव के हिसाब से दूसरी भाषा में शिक्षा अनुचित है। ज्ञान तो किसी भी भाषा में दिया जा सकता है, तो वह मातृभाषा में ही क्यों न हो? शिक्षा और राजकीय कामों में मातृभाषा के प्रयोग से समाज विकास को गति मिलती है। मातृभाषा में राष्ट्र विशेष की जनता रची-बसी होती है, इसलिए शिक्षा व राजकीय कामों में मातृभाषा का प्रयोग ठीक है।

   मातृभाषा के अलावा शिक्षा को अन्य भाषा में देना, उस राष्ट्र विशेष के विकास में बाधक बनेगा और दबावपूर्ण होगा।

   भारत जैसे राष्ट्रीयताओं के संघ में हिन्दी या किसी अन्य भाषा को थोपना तानाशाही पूर्ण होगा जो कि जनता के अधिकारों का हनन होगा। यह स्थिति भाषा विशेष के प्रति नफरत का भाव पैदा करेगा। इसलिए शिक्षा और राजकीय कामों को मातृभाषा में ही किया जाना चाहिए अन्य भाषाओं को वैकल्पिक शिक्षा के रूप में शामिल किया जा सकता है।
                                                                                                           जयप्रकाश, हल्द्वानी(उत्तराखंड)

                                          अन्य भाषा सीखने का अनावश्यक तनाव न डाला जाए


   शिक्षा और राजकीय काम भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में वहां की मातृभाषा में होना चाहिए। मातृभाषा में शिक्षा होने से बच्चों को समझने और आत्मसात करने में आसानी होगी। राजकीय कामों को मातृभाषा में करने से आम लोगों को उन्हें समझने में आसानी होगी। मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने पर बच्चों के दिमाग पर किसी अन्य भाषा को सीखने का अनावश्यक दबाव नहीं होगा। शिक्षा और राजकीय कामों में अंग्रेजी व हिन्दी भाषा का वर्चस्व बना हुआ है। इससे अधिकतर छात्रों व नागरिकों में काफी तनाव की स्थिति रहती है तथा अधिकतर बच्चे इस तनाव को नहीं झेल पाते तथा प्रतियोगिता से बाहर हो जाते हैं। मातृभाषा में शिक्षा होने से किसी अन्य भाषा को सीखने का अनावश्यक तनाव बच्चों पर नहीं पड़ेगा। हां! किसी बच्चे, नागरिक की रुचि किसी अन्य भाषा को सीखने की है तो उसे अवसर जरूर दिया जाना चाहिए। फिर एक सवाल उठता है कि अलग-अलग क्षेत्रों के लोग आपस में विचार-विमर्श कैसे करेंगे तो इसमें मेरा कहना है कि अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों द्वारा परस्पर मेल-मिलाप से स्वतः ही एक सामान्य भाषा का विकास हो जायेगा। अतः शिक्षा और राजकीय काम अलग-अलग क्षेत्रों में वहां की मातृभाषा में होना चाहिए।                                                                                मुकेश, काशीपुर(उत्तराखंड)

                                               भाषायी भेदभाव शासक वर्गीय राजनीति है।

   भारत के एक देश के रूप में गठन के बाद से ही भाषा का प्रश्न एक चिरस्थायी महत्व प्राप्त कर चुका है। संस्कृति, धर्म, भाषा आदि के लिहाज से भारत बेहद विभिन्नता वाला देश है। भारत के लोक भाषा सर्वेक्षण द्वारा हाल ही में कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत में लगभग 780 भाषायें बोली जाती थीं, जिनमें से 250 पिछले 50 वर्षों में समाप्त हो गयीं। यदि अगले सौ वर्षों तक भी ऐसा ही रहा तो भारत अपनी सम्पन्न भाषायी इतिहास खो देगा और बिना सांस्कृतिक जड़ों के कुछ भाषाओं की अर्द्धविकसित लिपियां ही रह जायेंगी।

   ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के भारत में उदय के साथ ही भाषा का सचेतन स्थानीय लोगों पर शासन करने या गुलाम बनाने के लिए इस्तेमाल किया। स्थानीय लोगों का शोषण करने के लिए यह जरूरी था कि देश की रीढ़ को न केवल सैनिक ढंग से बल्कि एक ऐसा शैक्षिक तंत्र खड़ा करके भी तोड़ा जाये, जो स्थानीय लोगों की तुच्छ और उपनिवेशवादियों की सांस्कृतिक श्रेष्ठता की तस्वीर प्रस्तुत करेे। भारत के शिक्षा तंत्र के संदर्भ में मैकाले का वक्तव्य विचार करने योग्य है। वह कहता है,‘‘वर्तमान में हमें अपनी पूरी कोशिश करके एक वर्ग तैयार करना होगा जो हमारे और हमारे द्वारा शासित दसियों लाख लोगों के बीच दुभाषिये का काम करेे। लोगों का एक ऐसा वर्ग जो खून व रंग में भारतीय हो लेकिन रूचियों, विचारों व मूल्यों व बौद्धिकता में अंग्रेज हो।’’ इन्हीं परिस्थितियों में एक मध्यम वर्ग पैदा हो रहा था, जिसकी पहुंच फ्रांसीसी क्रांति (1789) के बाद पूरे विश्व को अपनी जद में ले लेने वाले स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के विचारों तक हो चुकी थी, लेकिन साथ ही यह ऐसा वर्ग भी था, जो उपनिवेशवादियों के तलुए चाटने वाला भी था। न्युगी वा थियोंगो के शब्दों में,‘‘किसी शासन तंत्र की यह अंतिम विजय है कि शासित जनता उसका गुणगान करने लगे’’ और यह ठीक वही था, जो अंग्रेजों ने भारत में हासिल किया। कांग्रेस पार्टी (भू-स्वामियों व निम्न पूंजीपति वर्ग की पार्टी) के अंतर्गत जिस समय भारत को आजादी दी गयी, उसी समय ‘अंग्रेजी’ भारत के शासक वर्ग की भाषा बन चुकी थी और यह जारी रहा, तब अंग्रेजी भारत में औपचारिक भाषा बना दी गयी। गोरे शासकों की जगह भूरे शासकों ने ले ली।

   हाल में लोक सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों की सीसैट(हिंदी भाषी क्षेत्र के छात्रों को होने वाले नुकसान के कारण) पैटर्न में बदलाव लाने की मांग ने एक बार फिर शिक्षा और प्रशासनिक कामों में अंग्रेजी के इस्तेमाल पर सवाल खड़े कर दिये। आजादी के 67 साल बाद भी शासक वर्ग सभी को शिक्षित करने का प्रबंध नहीं कर पाया है। और केवल 20 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी बोल सकते हैं। पिछले 25 सालों में खुले सभी निजी स्कूल व कालेज शैक्षिक माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार के वातावरण में सीखना महज एक मानसिक कार्यवाही बन चुकी है, न कि भावनात्मक तौर पर हासिल अनुभव क्योंकि जब कोई बच्चा किसी ऐसी भाषा में सीखता है, जिसे वह अपने दैनंदिन जीवन में प्रयोग न करता हो, तो वह विकास की अपनी क्षमता खो देता है, साथ ही ऐसी भाषा विचारों के मामले में उसे पंगु बना देती है। पूंजीपति वर्ग अथवा शासक वर्ग ने ऐसे मापदंड बना दिये हैं। जहां अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को साक्षरता का पर्याय स्थापित कर दिया है और अपनी भाषा में बात करने को नीची नजर से देखा जाता है। भारत के पूंजीपति वर्ग ने मैकाले की परंपरा को स्थायी बना दिया है। इस प्रकार ऐसा वातावरण निर्मित हो गया है, जहां अपनी भाषा को लेकर स्थानीय लोगों के अंदर हीन भावना घर कर गयी है।

   शिक्षा हर बच्चे का मूलभूत अधिकार है। उसके पास अपनी भाषा में शिक्षित होने का विकल्प होना चाहिए। लेकिन पूंजीवादी समाज में यह खासा मुश्किल है क्योंकि इसमें शासक वर्ग बाकी आबादी पर हमेशा अपनी ही भाषा थोपने का उद्देश्य रखता है और इस तरीके से लोगों को अपनी गुलामी में बनाये रखता है। भाषा किसी व्यक्ति की कार्यकुशलता की योग्यता या क्षमता को निर्धारित नहीं करती। इसीलिए भाषा के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव करना, अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शासक वर्ग की राजनीति है। प्रत्येक भाषा को फलने-फूलने के लिए पर्याप्त स्थान मुहैय्या होना चाहिए और यह वर्गविहीन समाज में ही संभव है।                                                                                                                                      शिप्रा, दिल्ली

                                     शुरूआत क्षेत्रीय भाषा से फिर कामन भाषा में शिक्षा हो


   भाषा का सवाल हमारे देश में मेहनतकश जनता और मध्यम वर्ग के सामने लम्बे समय से एक सवाल ही बना हुआ है। सामान्यतः यह सवाल मध्यम वर्ग का बनता ही है। जबकि शिक्षा एक सामाजिक सम्पत्ति है तथा समाज के द्वारा विकसित या उत्पादित की गयी है, इसीलिए पहले कहा जाता था कि शिक्षा न खरीदी जा सकती है, न बेची जा सकती है। अतः शिक्षा एक ऐसा माध्यम रहा है (इतिहास में भी), जिसके द्वारा पूरे समाज को विकसित करने में अहम भूमिका रही है, लेकिन वर्तमान समय में एक हद तक इसकी भूमिका बदल चुकी है, यही हाल अधिकतर सरकारी प्रक्रिया का भी है और हमारे देश में जैसे इतिहास और वर्तमान में शिक्षा सम्पन्नशील लोगों के हाथ में रही है, जैसा कि हमारे देश में सामन्तवाद के समय ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन और ब्रिटिश हुकुमत का वर्चस्व; भारत में भाषा का सवाल और चिन्तशील किया गया था, उस समय में भी प्रभुत्वशाली लोगों की भाषा लगभग आम जनता से अलग अंग्रेजी भाषा हुआ करती थी। उसकी छाप वर्तमान समय में भी बनी हुयी है। और हमारे देश में तमाम क्षेत्रीय भाषाये, गुजराती, मराठी, तमिल आदि भाषाओं पर भी अंग्रेजी भाषा वर्चस्व बनाये हुये है। जबकि समय-समय पर भारत में भाषाओं से संबधित आंदोलन होते रहे हैं। वह चाहे भूत काल में राम मनोहर लोहिया या हाल ही में सी-सैट का आंदोलन रहा हो। जबकि हमारे देश में वर्तमान समय में इतनी तकनीक विकसित हो चुकी है तथा हाल ही में प्रधानमंत्री का भाषण रेडियो पर 26 भाषाओं में प्रसारण किया गया हो या सारी क्षेत्रीय भाषाओं का बिटिश शासन में आपस में आपसी सम्बन्धों के द्वारा कॉमन भाषा को नहीं किया गया वैसे ही वर्तमान समय में भी देश की सरकारों का रूख भी ब्रिटिश शासन की ही तरह है। अर्थात हमारे देश में एक हद तक शासन की सेवा करने के लिए जिसकी जरूरत पड़ती है, उतना ही वह भाषा के सवाल का समाधान भी करती है, किन्तु वह देश के मेहनतकश या मध्यम वर्ग के लिए कोई फायदेमंद नहीं है तथा वर्तमान सरकार भाषा का सवाल बनाकर भी रखना चाहती है जैसे कि सी-सैट वाले आंदोलन को ले लें। यदि हिन्दी भाषी लोगों के लिए वैकल्पिक हिन्दी व्यवस्था कर दी गयी, तब भी जितनी सीटें हैं, उतने ही लोगों को चयनित किया जायेगा। अधिकतर छात्र तो बाहर ही रहे जायेंगे। फिर भी छात्र को ऐसी मांगों का समर्थन तो करना ही चाहिए, लेकिन मूल सवाल पर भी छात्रों का ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए कि पूंजीवादी व्यवस्था का चरित्र ही इस तरह का है कि अधिकतर छात्र बदहाल व अवसादग्रस्त हो जायें। इसलिए मूल सवाल हमारा यह होना चाहिए कि सारे छात्रों को पढ़ाई की व्यवस्था तथा उसके रोजगार की व्यवस्था सरकार के द्वारा ही की जाये। शुरूआती दौर में एक हद तक उनकी क्षेत्रीय भाषाओं तथा उसके बाद; विकसित हुई कॉमन भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए। यह काम वर्तमान मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था करने में नाकाम रही है। इसलिए छात्र को भी मजदूर वर्ग से कंधे से कंधा मिलाकर व्यवस्था परिवर्तन और समाजवादी क्रांति की तरफ लड़ाई और संघर्ष लक्षित करना चाहिए, तभी भाषा का सवाल ठीक रूप में हल हो पायेगा।                                                     सूर्यप्रकाश बीटेक छात्र, रूहेलखंड वि.वि.  बरेली उ.प्रदेश

                                                   शिक्षा की सुलभता के लिए मातृभाषा जरूरी

   भारत में कई स्थानीय भाषा एंव उनकी संस्कृतियां है। जिन्हें किसी एक भाषा या मातृभाषा से नहीं बांधा जा सकता है। वहीं शिक्षा समाज के प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे समाज के भीतर सुलभ बनाये जाने के लिए स्थानीय भाषा का प्रयोग  पूर्ण रूप से किया जाना चाहिए जिससे कि कोई भी व्यक्ति शिक्षा के लिए सरलता से ग्रहण कर सके ना कि थोपी गई दुर्लभ व कठिन भाषा जिसे कि स्थानीय लोग सीख न सके। राजकीय काम-काज की भाषा संविधान द्वारा तय की गई एक उभयनिष्ट (कॉमन) भाषा के तौर पर होनी चाहिए, जिसे हमारी शिक्षा के दौरान ही स्थानीय भाषा के साथ दर्शाया जाना चाहिए। जिससे की राजकीय काम एक संवैधानिक भाषा में होने सम्भव हो सके।

                                                                                                                      गौरव, बरेली उ.प्रदेश

 परचम की अवस्थिति

   शिक्षा व राजकीय काम किस भाषा में होने चाहिए? सवाल को समझने से पूर्व आज की स्थिति को सैद्धांतिक, ऐतिहासिक दृष्टि से समझने की जरूरत है।

   पंूजीवादी समाज के अस्तित्व में आने के साथ-साथ राष्ट्र-राज्य की अवधारणा सामने आयी। लोग अपनी-अपनी राष्ट्रीय पहचानों से पहचाने जाने लगे। यह राष्ट्रीयता की पहचान के मुख्य तत्व आर्थिक व भौगोलिक इकाई, भाषा, संस्कृति और इन पर आधारित एक खास मनोवैज्ञानिक बनावट है।

   भारत में पूंजीवाद की शुरूआत औपनिवेशिक शासन की छत्र-छाया में हुई। जिसे भारत कहा जाता है, उसमें कोई एक राष्ट्रीयता नहीं थी बल्कि कई विकसित, अविकसित राष्ट्रीयताओं का समूह था। विकसित राष्ट्रीयताओं की भाषाएं अपने आप में बेहद विकसित थीं, और हैं। इन भाषाओं में व्यापारिक हिसाब-किताब से लेकर साहित्य भरपूर मात्रा में था, और है। पहले अंग्रेज शासकों और फिर भारतीय शासकों द्वारा इन राष्ट्रीयताओं के साथ अपमानजनक व भेदभावपूर्ण ढंग के रिश्ते कायम किये गये। यह अपमानजनक व भेदभावपूर्ण रिश्ते पूंजीवाद की चारित्रिक विशेषता हैं। जिस कारण ही; भारत में राष्ट्रीयता और भाषा का सवाल बेहद उलझा हुआ सवाल रहा है।

   अंग्रेजों के भारत को उपनिवेश बनाने के बाद भारत की संप्रभुता, संस्कृति को कुचला गया। अपनी उपनिवेशवादी श्रेष्ठता को भारत में थोपा गया, अपनी संस्कृति-भाषा को भारतीय संस्कृति-भाषा से श्रेष्ठ बताया गया। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीय समाज में जबरन अंग्रेजी थोप दी गयी। राजकीय काम-काज, शिक्षा; में अंग्रेजी को थोप दिया गया। हिन्दी, उर्दू को सीमित स्तर के स्थानीय कामों के लिए रख दिया गया।

   भारतीय पूंजीपति वर्ग जिसने अंग्रेजों के विरूद्ध मरियल संघर्ष, सुलह-समझौते के जरिए आजादी हासिल की थी। आजाद भारत के नये शासक वर्ग ने भी भारतीय जनता को भाषाई उत्पीड़न से मुक्ति नहीं दिलाई।

   आजादी की लड़ाई लड़ी जनता पर; किसी केन्द्रीय भाषा को थोप देना आसान नहीं था, ना ही उस समय की जनता इसके लिए तैयार होती। भारतीय शासक वर्ग द्वारा तभी भारत को एक संघीय राष्ट्र के रूप में  संविधान में दर्ज किया और 18 भाषाओं को सरकारी मान्यताएं दी। किन्तु राज-काज चलाने के लिए केन्द्रीय भाषा के तौर पर 10 वर्ष के लिए अंग्रेजी अपनाने की भी घोषणा की। इस घोषणा में निहित था कि 10 वर्षों में औपनिवेशिक भाषा से भारतीय जनता को मुक्ति मिल जायेगी। भारतीय संघ की अपनी राज-काज व केन्द्रीय भाषा होगी। किन्तु 60 साल बीत जाने के बावजूद ऐसा कुछ नहीं हुआ। 60 के दशक में जब भारतीय शासक वर्ग द्वारा दूसरी केन्द्रीय भाषा के तौर पर हिन्दी को समाज में थोपना चाहा तो इसका अलग-अलग राष्ट्रीयताओं में भारी विरोध हुआ।

   भारतीय शासकों ने भारत को एक संघ(यूनियन) के रूप में संविधान में दर्ज तो कर लिया किन्तु यह महज औपचारिकता ही थी। सारे अधिकार वित्त, विदेश, रक्षा, प्राकृतिक संसाधन से लेकर करों का बड़ा हिस्सा आदि केन्द्र ने अपने पास सुरक्षित रखे। यह संघीय राष्ट्र की अवधारणा से बेमेल कार्यवाही है। भारत के बडे़ पूंजीपति वर्ग ने केन्द्रीय सत्ता स्थापित की और राष्ट्रीयताओं के साथ बेहद गैरबराबरीपूर्ण सम्बंधों को कायम किया गया। उनके अधिकारों, संस्कृति भाषा को हमेशा दबाता रहा है। इस कष्टप्रद्र लम्बे रास्ते में कई राष्ट्रीयताओं को इसने अपने साथ आत्मसात कर लिया किन्तु देश में कई राष्ट्रीयताएं आज भी अपने जनवादी अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। भारतीय राजसत्ता भारी दमन के साथ जैसे-तैसे इन्हें साथ में रखे हुए है। आत्मसात की गयी राष्ट्रीयताएं व संघर्षरत राष्ट्रीयताओं दोनों ही जगहों पर भाषाई सांस्कृतिक उत्पीड़न कम ज्यादा रूप में बना हुआ है।

   अंग्रेज शासकों की जूठन पर पला-बड़ा हुआ, भारतीय पूंजीपति वर्ग द्वारा अंग्रेजी को जस का तस अपना लिया गया। उसने राज-काज की भाषा, तकनीकी शिक्षा, उच्च शिक्षा में अंग्रेजी भाषा को हमेशा के लिए थोप दिया। अन्य भाषाओं को शुरूआती शिक्षा व स्थानीय कामों की भाषा तक सीमित कर दिया। निचली अदालतों में क्षेत्रीय भाषा और ऊपरी अदालतों में अंग्रेजी की अनिवार्यता को बनाये रखा गया। भारतीय पूंजीपति वर्ग के लिए भाषा का सवाल इस तरह से एक हल सवाल है। अंग्रेजी को शासक वर्ग की भाषा बन जाने के बाद, इसका समाज में व्यापक असर पड़ा, अंग्रेजी सीखना-पढ़ना-बोलना अभिजात होने का प्रमाण बन गया। अंग्रेजी सीख-पढ़-बोल ना पाने वाले कुंठाग्रस्त होने लगे।

   भारतीय भाषाओं से बेमेल, उत्पीड़नकारी होने के बावजूद अंग्रेजी का व्यापक प्रसार किया गया। गांव-गांव में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे। पराई जुबान रोजमर्रा की भाषा ना होने के कारण विद्यार्थी पिछड़ ना जाने के डर से रट-रट कर अंग्रेजी भाषा पर माथा खपाते हैं।

   अंग्रेजी भाषा को राजकीय काम-काज की भाषा व उच्च, तकनीक शिक्षा में अनिवार्यता ने; अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाकर रखा हुआ है। क्षेत्रीय भाषाओं के विकास व सम्मान पर कुठाराघात किया।

   अंग्रेजी के वर्चस्व के विकल्प के तौर पर हिन्दी को रखा जाता है सबसे ज्यादा उग्रता से उसे संघी मंडली रखती है। एक देश, एक धर्म, एक भाषा के नाम पर वह पूरे भारत में वही सब कुछ करना चाहती है जो एक समय अंग्रेज और अंग्रेजी ने किया। संघी मंडली अपनी साम्प्रदायिक सोच और अंधराष्ट्रवाद को फैलाने के लिए यह सब करती है। हिन्दी अपनी उप भाषाओं और बोलियों (कुमाऊंनी, गढ़वाली, भोजपुरी, राजस्थानी, हरियाणवी आदि) हिन्दीभाषी प्रदेशों की भाषा है। किन्तु इसे समान रूप से पूरे भारतीय संघ पर थोपना संघीय ढांचे के साथ गैर बराबरीपूर्ण व्यवहार को अधिक बढ़ायेगा। यह भाषा की समस्या को सुलझाने की जगह और उलझाव को जन्म देगा।

   संप्रेषण की एक केन्द्रीय भाषा के विकास की सम्भावनाओं को बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि संघीय ढांचे को मजबूत किया जाए। पूर्ण बराबरी व जनवादी रिश्ते; संघों के राष्ट्रों व भाषायी समूहों के बीच कायम हों। संघों की भाषा, सभी बोली, संस्कृति का पूर्ण सम्मान किया जाये।

        उपरोक्त बातों की रोशनी में समझा जा सकता है कि हर व्यक्ति को अपनी भाषा में पढ़ने व बोलने का अधिकार होना चाहिए। राजकीय काम-काज की भाषा भी उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए। सभी भाषाओं और बोलियों को विकसित होने के लिए समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। वैज्ञानिक जनवादी ढंग से ही हमारे देश में भाषा के प्रश्न को हल किया जा सकता है         ×××

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