सभ्यता के ‘ठेकेदार’ बर्बरता के पैरोकार
-नगेन्द्र
1914 में नार्वे ने अपने गणतंत्र की सौवीं वर्षगांठ मनाई थी। इस अवसर पर नार्वे की राजधानी ओस्लो में एक भव्य मेले का आयोजन किया गया था। नार्वे के राजा हाकून सप्तम ने इस मेले का उद्घाटन किया था। इस भव्य मेले का सबसे बड़ा आकर्षण एक इंसानी चिड़ियाघर अथवा ‘ह्यूमन जू’ था। इस चिड़ियाघर में 80 पुरुष, स्त्रियां व बच्चे कैद थे; जिन्हें अफ्रीका के विभिन्न हिस्सों से लाया गया था। इन्हें एक छप्पर से बने कृत्रिम गांव में पांच माह तक कैद करके रखा गया था। इस कृत्रिम गांव को नाम दिया गया था ‘‘कांगो विलेज’’। इस विचित्र इंसानी चिड़ियाघर को देखने 15 लाख से अधिक लोग पहुंचे थे। नुमाइश के अंत में नार्वे की एक प्रमुख पत्रिका उर्द ने लिखा, ‘‘यह शानदार है कि हम श्वेत हैं।’’
2014 में नार्वे अपने गणतंत्र की 200वीं वर्षगांठ पर एक बार फिर ‘कांगो विलेज’ की नुमाइश लगा रहा है। चारों ओर से विरोध और आलोचना के स्वरों के बावजूद नार्वे सरकार व नुमाइश के आयोजकों द्वारा इस नुमाइश को वापस नहीं लिया गया है। बल्कि आयोजकों ने 21वीं सदी में इस नस्लभेदी-औपनिवेशिक परंपरा के औचित्य हेतु नए तर्क भी ईजाद कर लिए हैं। आयोजकों के मुताबिक इस इंसानी चिड़ियाघर ‘कांगो विलेज’ की पुनर्रचना का उद्देश्य नस्लभेद के प्रति जागरूकता पैदा करना है। चूंकि नार्वे में नस्लभेद के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी है, अतः ‘कांगो विलेज’ इसी के बारे में जानकारी देने का एक प्रयास है। नार्वे के शासकों व इस नुमाइश के आयोजकों के ये तर्क बेहद धूर्ततापूर्ण व बेहयायी से भरे हैं। दरअसल दीन-हीन व दासता के बंधनों में जकड़े व दर्शकों की नुमाइश हेतु पिंजरेनुमा कृत्रिम गांव में रखे गये अफ्रीकी मूल के लोगों का प्रदर्शन, भले ही आज वह एक ‘नाट्य रूपांतरण’ क्यों न हो, नॉर्वे के शासकों द्वारा अपनी औपनिवेशिक ग्रंथि व नस्लीय श्रेष्ठता बोध को तुष्ट करने का ही एक उपक्रम है।
दुनिया भर के प्रगतिशील व जनवादी लोगों को 2014 के ‘कांगो विलेज’ की नुमाइश 1914 के ‘कांगो विलेज’ की ही पुनरावृत्ति के सिवा कुछ अलग नजर नहीं आती। आयोजकों की मंशा में कोई अंतर नहीं आया है। जहां 1914 में यह आयोजन एक साम्राज्यवादी अहंकारवाद व नस्लीय श्रेष्ठता बोध का प्रच्छन्न प्रदर्शन था, वहीं 2014 में यह ऊपरी तौर पर ‘धूर्ततापूर्ण बयानबाजी व प्रगतिशीलता’ के दावे के बावजूद उसी साम्राज्यवादी अहंकारवाद व नस्लीय श्रेष्ठता बोध की आत्मतुष्टि का छिपा प्रयास है।
1914 में जिस नुमाइश का आयोजन किया गया था, वह अपने आप में कोई अपवाद स्वरूप घटना नहीं थी और न ही विशिष्ट तौर पर नॉर्वे से जुड़ी हुई ही थी। दरअसल, यह उस समय एक शताब्दी से अधिक समय से प्रचलित यूरोपीय परंपरा का हिस्सा थी। ऐसे आयोजन लगभग हर साम्राज्यवादी देश में किये जाते थे। इंसानी चिड़ियाघर अथवा ‘ह्यूमन जू’ के निमार्ण के पीछे की स्पष्ट सोच थी ‘श्रेष्ठतर’ व ‘हीन’ इंसानों के बीच स्पष्ट विभाजन को स्थापित करना, यूरोपीय श्वेत लोगों की अफ्रीकी या अश्वेत लोगों पर नस्लीय श्रेष्ठता को स्थापित करना। इस तथ्य को यूरोपीय इतिहासकार पास्कल ब्लैकर्ड भी मानते हैं।
इंसानी चिड़ियाघर अथवा ‘ह्यूमन जू’ के लिए अफ्रीकी कबीलों के लोगों को किसी तरह गुलाम बनाकर या कुछ पैसे देकर पूर्णतः पशुवत स्थितियों में रखा जाता था। उपनिवेशवादियों द्वारा इन गुलामों के स्वाभिमान और इंसानी गरिमा को किस कदर नष्ट कर उन्हें जानवरों की स्थिति में धकेल दिया जाता था। इसकी बानगी को बयां करती कुछ हकीकतें इस प्रकार है।
बीनस हॉटैनटॉट का जन्म 1790 में दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। अभी वह किशोरावस्था में पहुंची ही होगी कि डच उपनिवेशवादियों द्वारा उसे गुलाम बना लिया गया। वीनस को गुलाम बनाने वालों ने उसका नाम बदलकर सारा बार्टमैन रख दिया तथा उसे पशुओं को प्रशिक्षण देने वाले एक पारसी को बेच दिया। इस पशु प्रशिक्षक ने इस नौजवान महिला की शारीरिक बनावट; भारी कूल्हों व लंबे पतले होठों’ जो गैमटूस घाटी की खोई प्रजाति के लोगों की विशिष्ट पहचान थीं, से प्रभावित होकर उसे नुमाइश के लिए उपयुक्त माना नुमाइश ‘नस्लों से संबंधित नए वैज्ञानिक अध्ययन’ नाम से आयोजित की गयी। इसके पश्चात वीनस को लंदन के ‘म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री’ में लाया गया। उसकी मृत्यु
के उपरांत फ्रांसीसी शरीर विज्ञानी जॉर्ज कूवियर ने उसका परीक्षण किया तथा उसका मस्तिष्क व यौन अंग एक पारसी अजायबघर में रख दिये गए।नेल्सन मंडेला के अनुरोध पर उसके अवशेषों को उसके गृहक्षेत्र गैमटूस घाटी वापस भेजा गया तथा फ्रांसीसी राष्ट्रीय असेम्बली में काफी तीखी बहसों के बाद ‘वीनस हॉटेनटॉट के अवशेषों को 2002 में दफनाया गया।
इसी तरह 1835 में एक अमरीकी सर्कस के मालिक पी.टी.बारनम ने आर.डब्ल्यू.लिंडसे नामक अमरीकी से एक बुजुर्ग अफ्रीकी-अमरीकी महिला जोयस हीथ को खरीदा। लिंडसे द्वारा बारनम को बताया गया कि उक्त अश्वेत महिला प्रथम अमरीकी राष्ट्रपति व अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के नायक जॉर्ज वाशिंगटन के पिता ऑगस्टिन वाशिंगटन की एक दासी थी, कि उसने जार्ज वाशिंगटन का बचपन में पालन पोषण किया है। इस कहानी के साथ बारनम ने अपने सर्कस की सबसे शानदार नुमाइश के रूप में जोयस हीथ को पूरे न्यू इंग्लैण्ड में घुमाया और दावा किया कि वह 161 वर्ष की उम्र की है। जोयस हीथ पूरी तरह अंधी तथा आंशिक रूप से लकवाग्रस्त थी। लाखों की संख्या में लोग जोयस हीथ को देखने उमड़ पडे थे। उन हाथों को छूना चाहते थे जिन्होंने जार्ज वाशिंगटन को पाला पोसा।
इन नुमाइश के सात माह बाद हीथ की मृत्यु हो गयी। हीथ की वास्तविक आयु की जांच के लिए सार्वजनिक तौर पर उसका शवविच्छेदन किया गया, जिसमें प्रत्येक दर्शक से 50 डालर वसूले गये। परीक्षण या आटोप्सी में उसकी उम्र 75-80 वर्ष पाई गयी। बारनम ने सारा दोष लिंडसे को दिया, जिसने उसे गलत जानकरी दी।
मानव या इंसानी चिड़ियाघर वास्तव में 1870 के बाद अस्तित्व में आए। जर्मन पशु व्यवसायी कार्ल हाइजेनबर्ग ने मानव विज्ञान की नुमाइश के रूप में प्रचारित कर ‘हेजेनबैक जू’ के नाम से हैम्बर्ग में एक इंसानी चिड़ियाघर की स्थापना की। इसमें ‘सामी’ लोगों की ‘पूर्णतः प्राकृतिक जन’ के रूप में नुमाइश की गयी।
हेजेनर्ले बैक ने इंसानी चिड़ियाघर में कैद लोगों को लेकर पूरी दुनिया का चक्कर लगाया। 1876 में उसने मिश्री सूडान से नूबियन प्रजाति के लोगों को भी पाने के लिए अपने सहयोगियों को भेजा। हेजेनबैक के इंसानी चिड़ियाघर से प्रेरित होकर हैंस मची ने ‘ह्यूमन जू’ नाम से एक प्रसिद्ध डाक्यूमेन्टरी फिल्म भी बनाई। हैंस मची के अनुसार इन इंसानी चिड़ियाघरों को राजकीय समर्थन मिलता रहा था। ऐसे इंसानी चिड़ियाघरों का निमार्ण पूरी सभ्य दुनिया में होता रहा।
इन नुमाइशों के लिए उपनिवेशों से कुछ पैसा देकर व नौकरी के बहाने दलालों के माध्यम से लोगों को लाया जाता था। दलाल व औपनिवेशिक प्रशासन उनका घोर शोषण करते थे। मार्सिले से लेकर न्यूयार्क तक उन्हें नुमाइश के रूप में रखा जाता था।
मार्सिले व पेरिस में 1907 से 1931 के दौरान इंसानों को पिंजरों के अंदर नग्न व अर्द्धगग्न अवस्था में दिखाया जाता था। 1931 में 3.4 करोड लोगों द्वारा छः माह तक चलने वाली औपनिवेशिक नुमाइश को देखा गया। इन नुमाइशों में मानवीय गरिमा को तार-तार करते हुए महिलाओं को अनावृत्त वक्ष के साथ अर्द्धनग्न पुरुषों के साथ रखा जाता था।
बेहद दयनीय जीवन हालातों व कम तापमान में रखे जाने के चलते लंबी यात्राओं (टूअर) के दौरान बहुत से बंधक रास्ते में ही मर जाते थे। कुछ शो के दौरान मर जाते थे, जिन्हें आसपास दफना दिया जाता था।
औपनिवेशिक शासकों की इन नुमाइशों का जनपक्षधर व प्रगतिशील तत्वों द्वारा विरोध भी हुआ। फ्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी ने 1931 में औपनिवेशिक नुमाइश के विरोध में ‘उपनिवेशों का सच’ के नाम से एक प्रतिरोध प्रदर्शनी का आयोजन किया, जिसमें औपनिवेशिक शासकों द्वारा उपनिवेशों में लूट-शोषण-दमन व उत्पीड़न को प्रदर्शित किया गया।
साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के विकास व राष्ट्रमुक्ति आंदोलन के आगे बढ़ने के साथ खासकर 1930 के दशक के बाद इन इंसानी नुमाइशों के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर मजबूत होते चले गये। अंततः वे बंद हो गये। लेकिन इसके बावजूद समय-समय पर अचानक प्रकट भी हो जाते थे। औपनिवेशिक शासकों के लिए इन्हें भुलाना काफी मुश्किल था। 1958 में ब्रुसेल्स में आयोजित विश्व मेले में ‘कांगोलीज विलेज’ की नुमाइश की गयी। इसी तरह फ्रांस के नान्तेस के निकट पोर्ट सैंट पेरे में एक आईवरी कोस्ट के गांव को अफ्रीकन सफारी के तहत दर्शकों के लिए नुमाइश के बतौर 1994 तक रखा जाता रहा। 2005 में लंदन के चिड़ियाघर में मनुष्यों को अंजीर के पत्ते पहनाकर चिड़ियाघर में नुमाइश के लिए रखा गया और इसी तरह 2007 में एडिलेड (न्यूजीलैंड) में एक आयोजन के तहत एक खास नस्ल के लोगों को एक ऐसे बाड़े में रखा गया जो पहले एक लंगूर का था।
इंसानी चिड़ियाघर जहां साम्राज्यवादी शासकों के नस्लीय श्रेष्ठताबोध को संतुष्ट करते थे, वहीं तमाम साम्राज्यवादी देशों के मानव विज्ञानी इनका अध्ययन नस्लीय श्रेष्ठता के औपनिवेशिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए किया करते थे।
औपनिवेशिक सिद्धांतों के अनुसार उपनिवेशिवाद के मूल में साम्राज्यवादी मुल्कों द्वारा तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के संसाधनों व जनता की लूट व शोषण नहीं बल्कि उन्नत सभ्यता के प्रसार की परियोजना थी। साम्राज्यवादी मुल्क अपने को श्रेष्ठ नस्ल व उन्नत सभ्यता का स्वामी समझते थे। उनके अनुसार श्रेष्ठ नस्ल के होने के चलते हीन नस्लों पर शासन का उनका हक विज्ञान सम्मत व प्राकृतिक था। इसी तरह उन्नत सभ्यता के स्वामी होने के चलते सभ्यता व आधुनिकता का प्रचार उनका नैतिक कर्तव्य था। इसे लोकप्रिय भाषा में ‘ह्वाइट मेन्स बर्डन’ यानी ‘श्वेत आदमी का बोझ’ कहा जाता था। इस तर्क के मुताबिक तीसरी दुनिया के देशों को उपनिवेश बनाना उनकी स्वाधीनता व संप्रभुता को रौंदना, उनके संसाधनों व जनता के श्रम की लूट यूरोपीय देशों द्वारा इन असभ्य जनगणों को सभ्य बनाने की एक मुहीम थी।
आज वैश्विक स्तर पर व्याप्त आर्थिक संकट के दौर में दुनिया भर में पूंजीवादी शासक घोर प्रतिक्रियावादी मूल्यों, विचारों व संस्थाओं को आगे बढ़ा रहे हैं। साम्राज्यवादी मुल्कों में घोर दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी व नस्लीय घृणा फैलाने वाले तत्वों को वहां का शासक वर्ग पाल-पोस रहा है ताकि उसकी जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनाक्रोश को दूसरी दिशा में मोड़ा जा सके। आस्टेªलिया-अमेरिका-कनाडा में हाल के वर्षों में एशियाई मूल के लोगों पर हो रहे हमले हों या फिर लंदन में अफ्रीकी मूल के लोगों के खिलाफ भड़के दंगे हों या फिर यूरोप में नव नाजीवादी तत्वों का उभार ये सब पूंजीवादी साम्राज्यवादी शासकों द्वारा पालित-पोषित व प्रोत्साहित रहे हैं।नॉर्वे सरकार द्वारा अपने औपनिवेशिक अहंकार व नस्लीय श्रेष्ठताबोध के प्रतीक के रूप में ‘कांगो विलेज’ की नुमाइश पतित पूंजीवाद की ही एक अभिव्यक्ति है।
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