रविवार, 22 मार्च 2015

समसामयिक



स्वच्छ भारत अभियान: नाम बड़े पर दर्शन छोटे   

                                                                                                                                                         -स्वेता

    15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से नरेंद्र मोदी को; महात्मा गांधी का सच्चा अनुयायी खुद को साबित करने की सनक सवार हुई। मोदी को अपने में और महात्मा गांधी में केवल एक ही समानता नजर आयी की दोनों ही सफाई पसन्द हैं। वास्तविकता भी यही है कि गांधी और मोदी ज्यादातर मामलों में एक दूसरे के उलट हैं। तो फिर क्या था मोदी ने झटपट गांधी के जन्म दिवस 2 अक्टूबर से अगले 5 वर्षो में देश को स्वच्छ बनाने का अभियान शुरू कर डाला।


        मोदी की झाडू लगाती तस्वीरें टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया पर फैल गयी। मोदी के आह्वान पर बाकी मंत्री छुटभैय्ये नेता, कुछ अभिनेता, कुछ पूंजीपति भी झाडू ले फोटो खिचाने लगे। इनमें से तो कुछ ने झाडू लगाकर साफ की गयी सड़कों पर पहले कूड़ा डाला फिर साफ करते हुए फोटो खिंचाई। लगे हाथ मोदी ने सभी सरकारी कर्मचारियों से लेकर देश की जनता से साल में 100 घण्टे सफाई करने का आहवान कर डाला।

        फिर क्या था हर छोटे-बड़े शहर में 10 अक्टूबर को राष्ट्रीय सफाई दिवस के दिन खाते-पीते-अघाये मोदी के प्रशंसक झाडू हाथ में ले फोटो खींचने को जुट गये। मोदी अमेरिका के उन खाते-पीते भारतीयों जिन्हें भारत को गन्दगी पर शर्म आती थी, से भी वायदा कर आये कि 5 वर्ष में वर्ष में वे भारत को साफ कर डालेंगे।

        मीडिया के तगड़े प्रचार से झांसे में आये मध्यम वर्ग को भी लगने लगा कि अब देश के हर कस्बे, गांव, शहर को मोदी साफ-सुथरा कराकर दम लेंगे, तो इनमें से कुछ लोग  देखा-देखी शर्माते हुए झाडू लगाने में सहयोग करने आ डटे।

        सोशल मीडिया व इलेक्ट्रानिक मीडिया में ब्रांडिंग के जरिये स्वच्छ भारत बनाने का ढिं़ढोरा इतना ज्यादा पीटा गया कि सबको लगने लगा कि अब देश की हर गली, चौराहा जल्द ही साफ-सुथरा हो जायेगा।

        आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व इंदिरा गांधी ने जब ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था तो उसका प्रभाव भी देश की जनता पर ऐसा ही पड़ा था कि जैसा आज मोदी के ‘गंदगी हटाओ’ का पड़ रहा है। यह दीगर बात है कि गरीबी 40 वर्षो में घटने के बजाय और बढ़ गयी व गंदगी के भी और बढ़ने की ही संभावना है।

        क्या साल में खाये-पीये-अघाये लोगों व उनके साथ मध्यम वर्ग के कुछ लोगों के साल में 100 घण्टे झाडू लगाने से देश की गंदगी मिट सकती है? पहली बात तो यह खाये-पीये-अघाये लोग साल में 100 घण्टे झाडू लगायेंगे इसमें भारी संदेह है, अगर मान भी लिया जाये कि ये 5 साल तक लगातार हर हफ्ते 2 घण्टे की दर से झाडू लगाते रहे तो भी इससे देश में सफाई की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ने वाला।

        चूंकि ये खाये-पीये अघाये लोग केवल अपने शहर की साफ सड़कों पर ही झाडू फेरने उतरेंगे। वे कीचड़ से बजबजाती नालियों या फिर गटर में नहीं उतरेंगे। इसीलिए उनके इस दिखावे से सफाई की अवस्था पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा।

        भारत में साफ सफाई करना हिन्दू जाति व्यवस्था के तहत एक खास निचली जाति का पेशा माना जाता रहा है। आज भी सफाई कर्मचारियों में इसी जाति के लोगों की बहुलता है। इसी जाति के लोग आज भी सिर पर मैला उठाने से लेकर पूरे समाज की गंदगी ढोते है। उसके इस काम को समाज में बेहद निचले दर्जे के काम के बतौर लिया जाता है। उनसे अस्पृश्यता तक का व्यवहार किया जाता है। इस जाति के लोग आर्थिक विपन्नता की स्थिति में जीने को मजबूर है। इसी तरह कूड़ा बीनने वालों की एक बढ़ी आबादी भी देश में मौजूद है जो कूड़े की रिसाइक्लिंग में मदद करती है।

        मोदी के स्वच्छ भारत मिशन में वाल्मिकी जाति के लोगों, कूड़ा बीनने वालों, का कहीं कोई जिक्र नहीं है। यानि जो लोग वास्तव में सफाई में जुटे हैं; उनके उद्धार या विकास की कोई नीति सरकार के पास नहीं हैं। इसलिए भी यह अभियान उसी तरह धूल चाटेगा, जैसे 2007 में मोदी का गुजरात को स्वच्छ बनाने का अभियान आज धूल चाट रहा है।

        देश को साफ सुथरा बनाने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले सफाई के काम को निकृष्ट काम के बतौर देखा जाना खत्म हो। इसके लिए जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष जरूरी है। इसके साथ ही यह जरूरी है कि देश में गरीब बस्तियों-गांवों में; नालियों-पक्के शौचालयों-सड़कों की उचित व्यवस्था व उनकी नियमित सफाई हो, बारिश के पानी की निकासी, घरेलू गन्दे पानी की निकासी की उचित व्यवस्था हो। इसके साथ ही कूड़े के निस्तारण का इंतजाम भी बेहद जरूरी है। उन्हें गरीबों की बस्तियों के आस-पास बड़े ढेरों के रूप में डालने के बजाय नियमित तौर पर रिसाइकल किया जाय। कूड़े के जिस हिस्से को खाद में रूपान्तरित किया जा सकता है; उसकी खाद बनायी जाय।

        इस सबके लिए जरूरी है कि सरकार बड़े पैमाने पर सफाईकर्मी नियुक्त करे। सफाई पर सरकारी खर्च बढ़ाया जाय। नालियों-गलियों-सड़कों-नालों का बड़े पैमाने पर निर्माण किया जाय व उनकी नियमित सफाई हो। सफाई के काम में आधुनिक मशीनों का प्रयोग हो। अमीरों की कालोनियों की ही नहीं गरीबों की झोपड़ पट्टी तक में बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम हो। तब जाकर कहीं स्वच्छ भारत का सपना पूरा किया जा सकता है। जाहिर है मोदी सरकार का पी.पी.पी मॉडल यह सब कुछ नहीं कर सकता। इसीलिए मोदी के ‘गंदगी हटाओ’ अभियान का हस्र इंदिरा के गरीबी हटाओ सरीखा होना तय है। हां! इंदिरा ने भी खासी वाहवाही लूटी थी, मोदी भी वाहवाही लूट रहे हैं। इससे यही साबित होता है कि मोदी का लक्ष्य भी वाहवाही लूटना है न कि गंदगी हटाना।      ×××

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