विपिन चन्द्र: सरकारी मार्क्सवादी इतिहासकार
-जुनैद
ऐसे समय में जब दीनानाथ बत्रा से कई सारे प्रकाशक डरकर अपनी पुस्तकें बाजार से वापस मांग रहे हों और नष्ट कर रहें हों तथा जब भारत में प्रचलित हिन्दू मिथकों को इतिहास मानने वाला व्यक्ति भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किया जा रहा हो, तब विपिन चन्द्र जैसे इतिहासकार काफी प्रगतिशील बन जाते हैं, हालांकि उनकी वास्तविक भूमिका उनके ही प्रिय शिष्य आदित्य मुखर्जी (जो स्वयं एक इतिहासकार हैं) के शब्दों में ‘मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा विकृत किये गये’ आजादी के आंदोलन के इतिहास को ठीक करने की थी।मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा आजादी के आंदोलन का वह कौन सा विकृतीकरण था जिसे ठीक करने का श्रेय विपिन चन्द्र को दिया जाना चाहिए। इतिहास के इस संशोधन की किसे जरूरत थी और यह किसके हित में था?
इतिहास औपचारिक तौर पर भले ही अतीत का यथातथ्य प्रस्तुतीकरण हो पर वह वास्तव में वर्तमान की रोशनी में अतीत का पुनर्मूल्यांकन या पुनर्प्रस्तुतीकरण होता है। इसीलिए इतिहास लेखन इस बात पर निर्भर करता है कि लिखने वाले की दृष्टि क्या है, उसके सरोकार क्या हैं, उसकी प्रतिबद्धताएं क्या हैं, उसके हित क्या हैं? इसीलिए भारत जैसे देश में भी, जो स्वयं को लोकतांत्रिक कहता है और जिसकी शासन सत्ता विचारधाराओं से ऊपर होने का दावा करती है, सरकार बदलने पर स्कूल में इतिहास की किताबें बदल जाती हैं। 1977, 1998 में ऐसा हो चुका है और अब 2014 में यह एक बार फिर हो रहा है।
आजादी के समय तक भारत में गंभीर इतिहास लेखन की तीन धारााएं थीं- औपनिवेशक, राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी। जहां औपनिवेशिक इतिहासकार अंग्रेजों के दृष्टिकोण से भारत के अतीत और वर्तमान को देखते थे, वहीं राष्ट्रवादी इतिहासकार उभरते हुए भारत के पूंजीपति वर्ग के दृष्टिकोण से। औपनिवेशिक इतिहासकार भारत के अतीत को अबाध स्वेच्छावादी शासन का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला मानते थे जिसका अन्त अंग्रेजी शासन ने किया। उनके अनुसार अज्ञान में डूबे परिवर्तनहीन भारत में ज्ञान, प्रकाश तथा गति और परिवर्तन अंग्रेज लेकर आये। इसके लिए भारतीयों को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए तथा भारत में अंग्रेजी शासन को जारी रखना चाहिए। इसके बदले राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारत के अतीत का गुणगान किया था। अतीत के भारतीय ज्ञान-विज्ञान का बखान किया। उनके अनुसार भारत की दुर्गति या तो मुस्लिम शासकों के भारत में आने से शुरू हुई (हिन्दूवादी रूझान
भारत के मार्क्सवादी इतिहास लेखन की शुरूआत 1920 के दशक में हुई। इसमें अग्रणी भूमिका कौमिन्टर्न (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) से जुड़े हुए इतिहासकारों या सिद्धान्तकारों की रही। 1920-30 के दशक के इन प्रयासों की परिणति 1940 में प्रकाशित रजनीपाम दत्त के ‘आज का भारत’ में हुयी।
रजनीपाम दत्त ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में थे तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ उनके घनिष्ट संबंध थे। उनकी किताब ‘आज का भारत’ मूलतः औपनिवेशिक भारत से संबंधित है। इस किताब में उन्होंने अन्य बातों के अलावा कांग्रेस पार्टी तथा उनके नेता महात्मा गांधी के चरित्र का विश्लेषण किया। उनकी किताब में गान्धी व कांग्रेस जरा भी खुशनुमा रंग में नहीं पेश किये गये। इसके बावजूद कि उस समय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी संयुक्त मोर्चे की नीति के तहत कांग्रेस पार्टी में शामिल थी (व्यक्तिगत स्तर पर)।
1940 के दशक में इस किताब का संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ और इसने एक लम्बे समय तक उपनिवेश कालीन भारत के बारे में मार्क्सवादी इतिहास की पाठ्य पुस्तक का काम किया। जब आदित्य मुखर्जी मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा इतिहास के विकृतीकरण की बात करते हैं तो उनका आशय इस किताब के निष्कर्षों से भी है।
रजनीपाम दत्त की ‘आज का भारत’ ने भारत के निकट अतीत और वर्तमान को खंगाला था। 1940 के दशक में ही डी.डी. कौशाम्बी ने भारत के अतीत को मार्क्सवादी नजरिये से खंगालना शुरू किया। जिसे उन्होंने 1956 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास: एक ऐतिहासिक रूपरेखा’ में प्रस्तुत किया। भारतीय इतिहास के अतीत को परखने का कौशाम्बी ने जो मापदंड स्थापित किया, वह एक नजीर बन गया और उसने मार्क्सवादी इतिहासकारों की एक के बाद दूसरी पीढ़ी को अनुप्राणित किया। रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, डी एन झा, इरफान हबीब, हरबंस मुखिया, सुमित सरकार, इत्यादि इनमें से कुछ नाम हैं। इन्होंने भारतीय इतिहास के प्राचीन, मध्य और आधुनिक तीनों कालों पर काम किया। इनकी ही बदौलत भारतीस इतिहास लेखन में मार्क्सवादी इतिहास लेखन प्रमुख हो गया। भारत में नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा दोनों ने स्वयं को प्रगतिशील तथा समाजवाद का हामी बताया। इसलिए इनकी सरकारों के समय में मार्क्सवादी इतिहासकारों को काफी अनुकूल माहोैल मिला। वे विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में जम गये। आज भी वहां उनकी उपस्थिति प्रमुख है और यह संघी सरकार के लिए परेशानी का कारण है।
भारत के आजादी के आंदोलन और उसमें कांग्रेस तथा गांधी-नेहरू की भूमिका के बारे में मार्क्सवादी इतिहासकारों की दृष्टि रजनीपाम दत्त की तरह ही आलोचनात्मक थी। देश में नक्सलवादी आंदोलन फूटने के बाद तो इसके नेताओं द्वारा कांग्रेस व गांधी को अंग्रेजों का दलाल ही घोषित कर दिया गया। इस आंदोलन के एक नेता टी नागा रेड्डी द्वारा लिखी किताब ‘बंधक भारत’ (जो उनके द्वारा न्यायालय में प्रस्तुत किया गया बयान है) में बहुत विस्तार से इसे साबित करने का प्रयास किया गया।
विपिन चन्द्र द्वारा किया गया आधुनिक भारत का इतिहास लेखन इसी को संशोधित करने का प्रयाय था। वे रजनीपाम दत्त से लेकर टी.नागी.रेड्डी तक कांग्रेस और नेहरू-गांधी की मार्क्सवादी आलोचना को ठीक करना चाहते थे और वह भी मार्क्सवादी नजरिये से ही। वह मार्क्सवादी इतिहास को कांग्रेसी सरकार के मनोनुकूल बनाना चाहते थे। कुल मिलाकर वे एक सरकारी मार्क्सवादी इतिहास गढ़ना चाहते थे।
इतिहासकार होने के चलते विपिन चन्द्र कांग्रेस व गांधी-नेहरू की सीमाओं से वाकिफ थे। और यह तब और भी था जब वे स्वयं को मार्क्सवादी कहते थे तथा उनके पहले ही कांग्रेस व गांधी-नेहरू का एक पूरा और कटु मार्क्सवादी मूल्यांकन मौजूद था। ऐसे में कांग्रेस व गांधी-नेहरू को खुशनुमा रंगों में पेश करने की सीमाएं थीं। पर तब भी विपिन चन्द्र ने इसका भरपूर प्रयास किया। यह प्रयास अंततः इस रूप में अभिव्यक्त हुआ कि वे एक ही साथ महात्मा गांधी और भगतसिंह दोनों की तारीफ करते थे। आपातकाल पर लिखी उनकी पुस्तक से यह तय करना मुश्किल है कि वे आपातकाल का समर्थन करते हैं या विरोध। वे इंदिरा गांधी का समर्थन करे हैं कि विरोध?
संभवतः उनके इसी गुण के कारण उनके निधन पर संघी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना शोक व्यक्त किया। आखिर विपिन सरकारी मार्क्सवादी इतिहासकार जो ठहरे। लेकिन तब भी यह कहा ही जाना चाहिए कि दीनानाथ बत्रा एण्ड कंपनी तथा उनके मोदी, शाह जैसे संरक्षकों के इस काल में उनका सरकारी मार्क्सवाद व उनकी धर्मनिरपेक्षता एक प्रगतिशील चीज थे।×××
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