रविवार, 22 मार्च 2015

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति



इराक की बर्बादी का गुनाहगार अमरीकी साम्राज्यवाद   

                                                                                                                                                   -नितिन

     इस समय इराकी मेहनतकश जनता दोहरी मार झेल रही है। पहली, अमरीकी साम्राज्यवाद की और दूसरी उन्हीं के द्वारा पैदा किये गये इस्लामिक कट्टरपंथ की, एक समय अरब मुल्कों में सबसे धर्मनिरपेक्ष देश माने जाने वाले इराक का हिस्सा आज मध्ययुगीन ‘खिलाफत’ की पुनर्स्थापन का सामना कर रहा है। आखिर इराक यहाँ तक कैसे पहुँचा ? शिया-सुन्नी-कुर्द क्षेत्रों में इराक के बंटवारे की संभावना कैसे निर्मित हुई ? ‘इस्लामिक स्टेट’ के कट्टरपंथी कहां से आये ? ऐसे कुछ सवालों के जवाब अमरीकी साम्राज्यवादियों की इराक में पिछले तीन-चार दशकों में निभाई घृणित भूमिका को देखे बिना नहीं पाये जा सकते।


         विभिन्न मुल्कों में प्रगतिशील-राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों को कमजोर करने के लिए कट्टरपंथी ताकतों को पालने-पोसने की रणनीति अमरीकी साम्राज्यवादियों की आजमाई हुई रणनीति रही है। इसी प्रकार अपनी प्रतिद्वंदी सत्ताओं के खिलाफ भी समय-समय पर उन्होंने कट्टरपंथियों का इस्तेमाल किया है। अफगानिस्तान में सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए अमेरिका ने तालिबान व अल कायदा को खड़ा किया। विभिन्न अफ्रीकी मुल्कों में राष्ट्रवादी सरकारों को गिराने के लिए भी सी.आई.ए. की मदद से कई कट्टरपंथी संगठन खड़े किये गये। बाद के समय में अपने नियंत्रण से बाहर निकल चुके इन्हीं कट्टरपंथियों से निपटने के नाम पर अमरीकी साम्राज्यादियों ने अफगानिस्तान पर हमले से लेकर कई दूसरे मुल्कों में हस्तक्षेप के बहाने बनाये। कट्टरपंथियों को पालने-पोसने, उनका इस्तेमाल करने और बाद में उन्हीं से निपटने की अमरीकी रणनीति का यह क्रम इराक में भी दोहराया जा रहा है।

        जनसंहार हथियारों की मौजूदगी का बहाना बनाकर 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला कर कब्जा कर लिया था। दस वर्ष से भी ज्यादा समय अमेरिका की इराक में प्रत्यक्ष उपस्थिति को हो चुके हैं। इसके बावजूद वहां अमेरिका को कोई जनसंहारक हथियार नहीं मिले। अमेरिका का मकसद इराक के तेल क्षेत्रों पर कब्जा करने का था, वह पूरा हो गया
था। इन्हीं क्षेत्रों पर कब्जे के लिए अमेरिका ने 1991 में भी इराक पर हमला किया था। 1991 में इराक में स्थिति और सद्दाम हुसैन की सत्ता उतनी कमजोर नहीं थी। जितनी कि 2003 में हो चुकी थी। उस समय अमेरिका इराक की घेराबंदी ही कर पाया। उसने एक तरह से इराक की नाकेबंदी ही कर दी। उस पर दुनिया भर के आर्थिक प्रतिबंध थोप दिये । इन सबसे इराक की हालत काफी जर्जर हो गयी।  2003 में हमले से पहले ही सद्दाम हुसैन ने दुनिया के सामने घोषित कर दिया था कि उसके पास कोई जनसंहारक हथियार नहीं है। इराक के पास वहीं हथियार हैं, जो 1979-88 के इराक युद्ध के दौरान खुद अमेरिका ने उसे दिये थे। अंततः सद्दाम हुसैन की ही बात सही साबित हुई।  1979 में ईरान के अंदर शिया धर्मगुरूओं के नेतृत्व में तत्कालीन ईरानी शासक शाह और अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरूद्ध एक सत्तापलट हुआ, जिसे उसके प्रस्तोता इस्लामिक क्रांति कहते हैं। इस सत्तापलट से ईरान में अमेरिकी दखलंदाजी पर रोक लग गयी, जो स्थिति कमोबेश अभी तक कायम है। ईरान में सत्तापलट के मद्देनजर अमेरिका ने इराक-ईरान के बीच क्षेत्रीय विवाद गरमाकर लगभग एक दशक तक दोनों देशों को युद्ध में झोंके रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय सद्दाम हुसैन अमेरिका का चहेता था। उसे पैसे व हथियारों की पूरी मदद पहुँचाई गयी। पैसा मुहैय्या करने में सऊदी अरब व कतर की शेखशाहियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस लंबे युद्ध के बाद भी ईरान की सत्ता का तो कुछ नहीं बिगड़ा, किंतु इराक के अंदरूनी हालात काफी मुश्किल हो गये। इराक-ईरान युद्ध की समाप्ति के तीन साल बाद ही अमेरिका ने इराक की इस कमजोर स्थिति से फायदा उठाने के लिए उस पर हमला बोल दिया। काफी भीषण हवाई हमलों के बावजूद भी अमेरिका उस समय इराक की धरती पर पैर रखने में कामयाब न हो सका। बाद में उसने नाकेबंदी और प्रतिबंधों के जरिये इराक को और कमजोर करने की रणनीति अपनाई।      लंबे इराक-ईरान युद्ध, 1991 का भीषण हमला और उसके बाद की जबर्दस्त आर्थिक-भौगोलिक नाकेबंदी ने इराक को वहाँ पहुँचा दिया, जहां 2003 के अमेरिकी हमले का वह सामना नहीं कर सका। अंततः अमेरिका इराक पर कब्जा करने में कामयाब रहा। दो दशकों से ज्यादा समय तक इराक को बाहर से बर्बाद करने के बाद 2003 से अमेरिका उसे अंदर से भी बर्बाद करने में लगा हुआ है। इराक के प्राकृतिक-तेल गैस के संसाधनों की लूट के साथ इस लूट को बनाये रखने के लिए अमेरिका ने इराकी जनता की एकजुटता को तोड़ने की घृणित चालें चलना शुरू कर दिया। इराक में ‘इस्लामिक स्टेट’ के कट्टरपंथियों का उभार उन्हीं चालों का एक नतीजा है। 2003 में औपचारिक युद्ध समाप्ति के बावजूद इराकी जनता ने अमेरिका से लड़ना कभी नहीं छोड़ा। कुछ समय तक सद्दाम हुसैन के बचे-खुचे लड़ाके प्रतिरोध करते रहे। उसके बाद 2004-05 से ही शिया धर्मगुरू मुकतदा अल सद्र की मेहदी सेना ने आतंकी व छापामार तौर-तरीकों से अमेरिकी सेना के ठिकानों पर हमले करना शुरू कर दिया। 2004 में ही अमरीकी रणनीतिकारों ने इराक का शिया-सुन्नी-कुर्द बहुल क्षेत्रों के रूप में बंटवारा करने की पेशकश करके साम्प्रदायिक तनाव को हवा देना शुरू कर दिया था। 2004 में ही अल तफरा नामक स्थान पर सुन्नी अल कायदा की शाखा इराक मे भी खुल गयी। अब यह छुपी हुई बात नहीं रही है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी शिया व सुन्नी लड़कों की एक-दूसरे के खिलाफ पैसे व सूचनाओं से मदद करते रहे हैं। सुन्नी सद्दाम हुसैन को शियाआंे के त्यौहार के खास मौके पर ही फांसी देना भी शिया-सुन्नी विभाजन को बढ़ावा देने की ही कार्यवाही थी। 2007 से साम्प्रदायिक नजरिये से आतंकी हमलो में काफी तेजी आ गई। भिन्न सम्प्रदाय के लड़के, दूसरे सम्प्रदाय के धार्मिक स्थलों व आयोजनांे पर आतंकी हमले करते थे। अमेरिकी कब्जे के दौरान हुये चुनावों मे गठित सरकारों में शियाओं की ही प्रमुखता-बहुलता रही। काफी समय तक प्रधानमंत्री रहे नूरी अल मलिकी सभी सम्प्रदायों को साथ लेकर चलने पर जुबानी जमा खर्च ही करता रहा, किन्तु सुन्नी विरोध की उसकी नीति स्पष्ट थी। आज एक लाख से ज्यादा सुन्नी आबादी इराकी जेलों में बंद है। ऐसी ही उपरोक्त सारी स्थितियों में इराक में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व संघर्ष की अमरीकी योजना कामयाब होती गई और इराक का माहौल अधिकाधिक अंधकारमय बनता गया। नवगठित सरकार से भी उम्मीद कम ही है कि वह साम्प्रदायिक तनाव पर मुलम्मेसाजी से बढ़कर किसी वास्तविक समाधान की राह पकड़े। इराक में स्थित अल कायदा की शाखा से निकले लोगों ने 2007 में इस्लामिक स्टेट इन इराक ‘‘आई.एस.आई.’’ का गठन किया। किन्तु 2011 तक इसकी स्थिति कोई खास नहीं रही। यह छिटपुट कार्यवाहियों तक ही सीमित रहा। 2011 मे हुये अरब विद्रोह के माहौल का फायदा उठाने के लिहाज से 2012-13 मे अमेरिका व अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने अपनी विरोधी सीरिया की असद सरकार के खिलाफ भी विद्रोह भड़काने की कोशिश की, कुछ शुरूआती विरोध प्रदर्शनों के बाद साम्राज्यवादियों को अपनी योजना में कोई खास सफलता नहीं मिल पायी। ऐसे मंे साम्राज्यवादियों ने सीरिया सरकार के खिलाफ सीधे-सीधे सुन्नी कट्टरपंथी लड़ाको को पैसे, संसाधन व हथियारों के साथ उतार दिया। इस प्रकार साम्राज्यवादियों ने सीरिया को गृहयुद्ध मे धकेल दिया। इराक में बने आई.एस.आई. को भी सीरिया की इस मुहीम में लगा दिया गया। अब वह ‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक एण्ड अल शाम’ यानी आई.एस.आई.एस बन गया। जिसे अब संक्षेप में ‘इस्लामिक स्टेट’ या आई.एस. कहा जा रहा है। सीरिया में इसने दूसरे तकफीरी कट्टरपंथी संगठनों खासकर अलनुसरा के साथ गठबंधन कायम किया। असद सरकार के खिलाफ लड़ने के लिए शुरूआत में इन कट्टरपंथी संगठनों के गठबंधन को सीरिया के अंदर कुछ इलाकों में बढ़त हासिल हुई। किंतु गृहयुद्ध के दूसरे चरण में असद सरकार ने मजबूती हासिल कर ली। उत्तरी सीरिया के दो प्रांतों को छोड़ बाकी सीरिया से असद सरकार ने इन कट्टरपंथी विद्रोहियों को खदेड़ दिया। 2013 में हुए आम चुनाव में बशर अल असद भारी बहुमत से राष्ट्रपति पद पर पुनः काबिज हो गया। इस प्रकार सीरिया में उसकी राजनीतिक स्थिति काफी सुदृढ़ हो गयी। इस बीच कट्टरपंथी विद्रोहियों के विभिन्न धड़ों के बीच अंतर्कलह भी अपने चरम पर पहुंच गयी। सीरियाई सेना से परास्त हो, वे अपने कब्जे वाले इलाकों में वर्चस्व के लिए परस्पर संघर्ष पर उतर आये। इस संघर्ष में आई.एस. धड़ा काफी मजबूत साबित हुआ। सीरिया में दो प्रांतों पर अपने प्रभाव को उसने कायम किया, किंतु वह सीरिया में और आगे बढ़ने के लिहाज से कमजोर था। ऐसे में उसके लड़ाकों ने इराक की ओर रूख कर दिया।

        इराक की मलिकी सरकार भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद में आकंठ डूबे होने के कारण खासी अलोकप्रिय हो चुकी है। इराक में साम्प्रदायिक सौहार्द कायम करने का उसका वायदा खोखला साबित हुआ। खासकर सुन्नी समुदाय के अंदर उसके खिलाफ काफी रोष है। इराक की इस जर्जर राजनीतिक हालत में आई.एस. कट्टरपंथियों को वहां आगे बढ़ने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आई। मोसुल, फाल्लुजा जैसे प्रमुख शहरों व महत्वपूर्ण बेजी रिफायनरी पर उन्होंने आसानी से कब्जा कर लिया। वह बगदाद के निकट तक पहुंच चुके हैं। इस समय सीरिया के अलेप्पू से लेकर बगदाद के निकट तक एक काफी बडे क्षेत्र पर आई.एस. का प्रभाव क्षेत्र कायम हो चुका है। यह इलाका लगभग ग्रेट ब्रिटेन के क्षेत्रफल जितना बड़ा है। इसे आई.एस. ने इस्लामिक ‘खिलाफत’ व आई.एस. प्रमुख अल बगदादी ने स्वयं को खलीफा इब्राहीम घोषित कर दिया है। इस पूरे क्षेत्र में मध्ययुगीन कट्टरपंथी शासन चलाया जा  रहा है। इस प्रकार अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने पूर्व धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र इराक में मध्ययुगीनता के पुनरूत्थान को जन्म दिया है। अब इन्हीं कट्टरपंथियों से लड़ने के लिए अमेरिका पुनः इराक और साथ ही सीरिया में अपनी प्रत्यक्ष सैनिक उपस्थिति को मजबूत करने के प्रयास कर रहा है। ओबामा सरकार ने पूर्व में मलिकी सरकार के साथ 2011 के अंत तक इराक से अपनी सेनायें पूर्णतः हटा लेने का समझौता किया था। लेकिन उसकी ऐसी मंशा कभी नहीं रही। अब उसे अपनी सैनिक उपस्थिति को जायज ठहराने के लिए आई.एस. कट्टरपंथियों का बहाना भी मिल गया है। एक तरफ आई.एस. के सुन्नी कट्टरपंथियों की बढ़त को वह मलिकी की शिया सरकार व ईरान के प्रभाव को कम करने में कर रहा है। तो दूसरी ओर आई.एस. से लड़ने के नाम पर अपनी सैनिक उपस्थिति को मजबूत कर रहा है।। आई.एस.के खिलाफ अमेरिका ने 30 देशों का गठबंधन बनाया है। गौरतलब है कि सीरिया की पेशकश के बावजूद उसे इस गठबंधन में शामिल नहीं किया गया है। इससे अमेरिका की साम्राज्यवादी मंशायें स्पष्ट हो जाती हैं।समकालिक इतिहास में इराक साम्राज्यवादी कुचक्रों से फैली बर्बादी का सबसे जीता-जागता उदाहरण बन चुका है।




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