मंगलवार, 24 मार्च 2015

आवरण कथा

नवरंग बिहारी औरंगजेब: कुछ तथ्य    -स्वामी वाहिद काज़मी


   यह एक रोचक सच्चाई है कि मुगल बादशाहों के जो नाम सामान्यतः प्रसिद्ध हैं, वास्तव में वे उनके मूल नाम नहीं है- जैसे बाबर, हुमांयू, अकबर आदि। ये उनकी उपाधियां अर्थात् खिताब भी नहीं हैं, बल्कि ये उनके प्रताप व सम्मान के सूचक अलंकरण अर्थात् लक़ब हैं। हिंदी में इसके लिए एक विशेष शब्द है- ‘विरुद’, यथा सम्राट चन्द्रगुप्त का विरुद था विक्रमादित्य। अधिकतर बादशाहों के मूल नाम कुछ और हैं। राज्याभिषेक के समय वे लकब धारण करके तख्त पर बैठते थे। बाबर से शुरू करें तो उनका मूल नाम जहीरूद्दीन मुहम्मद था तथा बाबर लक़ब था और लक़ब सहित अन्य नाम इस प्रकार हैं: अबुलफतह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, अबूज़फ़र नुरूद्दीन मुहम्मद जहांगीर, शहाबुद्दीन मुहम्मद शाहजहां, अबूमुजफ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब आदि। अन्तिम मुगल ताजदार का पूरा नाम मुहम्मद सिराजुद्दीन बहादुर शाह था, अबूजफर तखल्लुस था। मूल नाम काफी बड़ा होने के कारण केवल इतिहास में दर्ज रह गये और लक़ब संक्षिप्त होने के कारण नाम का स्थानापन्न बनकर प्रचलन पा गए।

बचपन में शहजादों के जो घरेलू नाम रखे जाते थे वे, शहज़ादगी की अवधि तक चलते थे, सो भी महलों के भीतर तक। राज्याभिषेक के समय चूंकि वे बादशाह हो जाते थे, अतः पुराने नाम प्रयोग न करके शाही लक़ब ही प्रयोग किये जाते थे, बड़े-बूढ़े भले उन्हें लाड़ में घरेलू नाम से पुकारते हों। किसी-किसी बादशाह के एक से अधिक लक़ब होते थे और शाही दस्तावेजों, पत्रों तथा तहरीरों में सभी लक़ब प्रयोग भी होते थे। औरंगजेब के यद्यपि तीन लक़ब हैं- गाजी, आलमगीर तथा औरंगजेब फिर भी बादशाह  बनने के बाद भी उसका घरेलू नाम प्रचलित रहा, यह आश्चर्य की बात है। उसका यह नाम था- नवरंग बिहारी।
   यह जानना रोचक रहेगा कि शहजादों के घरेलू नाम का चयन किसी- न किसी आधार पर किया जाता था, जिसमें उसकी पूरी पृष्ठभूमि समायी रहती थी। अकबर के यहां 37 वर्षों तक कोई संतान नहीं हुयी। जो भी शिशु जन्मता, वह मर जाता था। पुत्र का मुंह देखने को तरसते बादशाह को उसके कुछ हितैषियों ने सलाह दी कि यदि वह अजमेर स्थित ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ (मुईनुद्दीन चिश्ती) के मज़ार पर जाकर मनौती माने तो सम्भवतः उसका मनोरथ पूर्ण हो जाए। अकबर मज़ार पर पहुंचा और गिड़गिड़ाकर दुआ मांगी, ‘‘अगर खुदा ने मुझे जीता जागता बेटा अता किया तो आगरा से अजमेर तक पैदल आकर हाजिरी दूंगा।’’
आगरा के निकट कस्बा सीकरी में प्रसिद्ध दरवेश हज़रत शेख़ सलीम  चिश्ती का आश्रम था। अकबर उनकी सेवा में भी पहुंचा और पुत्र-प्राप्ति के लिए उनसे दुआ कराई, संकल्प भी किया- ‘मेरे जो पहला पुत्र होगा उसे आपके कदमों में डाल दूंगा।’ हज़रत ने फरमाया -‘जा, उसका नाम मुबारक हो। हमने अपने नाम पर उसका नाम सलीम रख दिया।’ जब अकबर की हिन्दू मलिका(जो आमेर के राजपूत राजा बिहारीमल की बेटी थी) गर्भवती हुई तो अकबर ने उसे शेख सलीम के आश्रम में सीकरी भेज दिया। वहीं सन् 1569 ई. में जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम सलीम रखा गया। बाद में अकबर मनौती पूरी करने के लिए आगरा से अजमेर तक पैदल गया और ख़्वाजा ग़रीबनवाज के मज़ार पर हाज़िर होकर शुकराना अदा किया। सीकरी को उसने एक शानदार नगर में बदल दिया और उसका नया नाम फतहपुर किया। शेख सलीम चिश्ती का वह इतना अधिक सम्मान करता था कि उसने अपने बेटे को कभी सलीम कहकर नहीं पुकारा। वह उसे शेख़ बाबा या शेख़ कहकर पुकारता था। यही शहजादा सलीम सन् 1605 ई. में जहांगीर का लक़ब धारण कर सिंहासनरूढ़ हुआ। पन्द्रह वर्ष की आयु में जहांगीर की पहली शादी, आमेर के राजा भगवानदास की बेटी से और एक वर्ष बाद दूसरी शादी जोधपुर के राजा उदयसिंह की बेटी से हुई। इसी हिन्दू रानी से जहांगीर का तीसरा बेटा शहज़ादा खुर्रम सन् 1591 ई. में पैदा हुआ, जो आगे चलकर अबुलजफर मुहम्मद शहाबुद्दीन शाहजहां नाम से सन् 1626 ई. में तख़्त पर बैठा।
   शाहजहां को नई-नई इमारतें बनवाने और बाग़ान लगाने का बेहद शौक था। ताजमहल तो शाहकार है, उसका जिक्र क्या, बाकी वह जिधर से भी गुजरता जहां भी ठहरता, कोई नई इमारत या उद्यान तैयार कर देता था। अपने बाप (जहांगीर) और दादा (अकबर) की भांति वह भी शायरों, विद्वानों, कवियों का संरक्षक और खुद भी कला एवं विद्या का प्रेमी था। उर्दू का प्रथम शायर चन्द्रभान ब्राहम्ण इसी के दरबार का एक रत्न था। प्रसिद्ध नायिकाभेद ग्रन्थ ‘सुन्दर सिंगार’ का रचयिता सुन्दर कवि भी इसी के दरबार की शोभा था, जिसे उसने ‘महाकविराय’ की उपाधि प्रदान की थी। स्वयं भी हिन्दी में कविता करता था। शाहजहां की सबसे चहेती मलिका थी- मुमताज महल (मूल नाम अर्जुमन्द बानो) उसी के प्रेम का स्मारक है- ताजमहल। अपने पीछे मुमताज जो अपनी संतानें छोड़ गयी थी, उनमें पांचवीं संतान शहजादा थी, वहीं शहजादा बड़ा होने पर सन् 1657 ई. में अबुमुजफ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब नाम से सिंहासन पर बैठा। शाहजहां नेअपने इस पुत्र का नाम बचपन में नवरंग बिहारी भी रखा था, जो उसके हिन्दी प्रेमी तथा हिन्दी-हृदय होने का प्रमाण है।यथार्थ के आइने में औरंगजेब
   अकबर ने अपने शासनकाल में एक निषेधाज्ञा जारी कर गौ-वध को वर्जित कर दिया था। फिर जितने भी मुगल बादशाह हुए उन्होंने भी गौ-वध को प्रतिबंधित रखा। औरंगजेब भी उन्हीं के चरण-चिह्नों पर चलता रहा। अंतिम मुग़ल बादशाह ज़फ़र के समय तक गौ-वध प्रतिबंधित था। अंग्रेजों ने ही इसे फिर से प्रचलित किया था। राज्याभिषेक से पहले औरंगजेब जहां-जहां सूबेदार रहा, वहां मद्यनिषेध को सख्ती से लागू किया। शराब बेचने-बनाने वालों को कठोर दण्ड दिए। अंधविश्वासों का कूड़ा-कचरा, साफ करने-हटाने में लगा। औरंगजेब ने ही ब्रजभूमि में मोर का शिकार न करने का आदेश हिन्दुओं के कहने से जारी किया था।
   अकबर की भांति औरंगजेब भी गंगाजल के अलावा कोई और पानी नहीं पीता था। सत्तासीन होने के बाद उसे अनेक कारणों से दिल्ली से दूर दक्कन में लगभग 26 वर्ष गुजारने पड़े, किन्तु उसने ऐसा प्रबंध कर रखा था कि वहां भी उसे गंगा जल मिलता रहे। एक बार शाही डाक चालीस दिन बाद गंगा जल लेकर पहुंची। इस मुद्दत में उसने जैसे-तैसे अपना काम चलाया, किन्तु कोई और पानी पीना गवारा नहीं किया।
   औरंगजेब ने भी अकबर तथा जहांगीर की भांति, राजपूत राजाओं से वैवाहिक सम्बन्ध बनाकर चलना पसंद किया। उसकी एक पत्नी उदयपुरी बेगम राजपूत राजा की बेटी थी, जिसे वह अपनी तमाम बेगमों में सबसे अधिक पसन्द करता था। उसने रानी उदयपुरी बाई पर न कभी धर्म-परिवर्तन के लिए जोर दिया, न उसके धर्म-पालन में किसी प्रकार की कोई बाधा या कठिनाई आने दी। इसी उदयपुरी बाई के गर्भ से उत्पन्न शहजादा कामबख्श को ही वह अपनी सब संतानों में सबसे अधिक चाहता था। इतना ही नहीं, अपने एक अन्य बेटे, शहजादा मुअज्जम का विवाह बड़ी धूम-धाम से राजपूत राजा रूपसिंह की बेटी से किया था। इन विवाहों का पूर्ण विवरण उपलब्ध है।औरंगजेब हिन्दी प्रेमी थाऔरंगजेब हिन्दी प्रेमी भी था और हिन्दी कवियों का संरक्षक भी। उसके दरबार में जो हिन्दी कवियों की पूरी मण्डली रहती थी। उसमें वृन्दकवि सबसे उल्लेखनीय है। वीर रस का अमर कवि भूषण भी पहले उसी के दरबार में रहता था। बाद में किसी बात से अप्रसन्न होकर अन्यत्र चला गया था। जिस प्रकार उर्दू-फारसी की एक-एक रुबाई पर उसी प्रकार एक-एक हिन्दी पद पर उसने 7-7 हजार तक के पुरूस्कार दिये थे। कभी-कभी वह स्वयं भी हिन्दी में कविता करता था। अपनी सबसे प्रिय, रूप-गुण-सम्पन्न बेगम, उदयपुरी बाई की प्रशस्ति में उसका रचा एक छंद भी मिलता है, जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियां ये हैं-

   ‘‘तुव गुण उदय रवि कीनो,

    याही ते कहत तुम कौं बाई उदयपुरी।’’

   इतना ही नहीं अन्य मुगल बादशाहों की भांति औरंगजेब को भी भाषा तथा आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों से प्यार था। उन दिनों जिस भाषा का प्रचलन था उसमें संस्कृत शब्द ही चलते थे। शहज़ादा मुअज्जम शाह ने एक बार बहुत बढ़िया किस्म के खुशरंग, खुशज़ायका एवं खुशबूदार आम बतौर तोहफे के उसे भेजे। साथ ही यह गुजारिश भी की कि स्वाद तथा सुगंध के अनुरूप बादशाह उनका नामकरण भी करें। औरंगजेब ने आम खाए, अच्छे लगे तो उसने आमों की एक किस्म का नामकरण किया- ‘सुधा रस’ और दूसरी किस्म का- ‘रसना विलास’।
    जिन दिनों औरंगजेब दक्षिण में था, बंगाल का एक मुसलमान बड़ी दूर से यात्रा करता हुआ उससे मिलने कृष्णा नदी तट के इलाके में पहुंचा और जब बादशाह के हुजूर में हाजिर हुआ तो प्रार्थना की-‘मुझे अपना मुरीद बना लीजिए।’ औरंगजेब को उसकी ऐसी चापलूसी पर ताव आ गया और उसने उस खुशामदी को जिस देशज पद की पंक्तियां कहकर फटकारा वे यह थी-

   ‘‘टोपी लेंदी बावरी, देन्दी खरे निलज्ज।

   चूहा खान्दा बावली, तू कल बंधे छज्ज।।’’

अर्थात् तू अपने लम्बे बाल छोड़कर फ़क़ीर की टोपी लेना चाहता है। ऐ खरे बेगैरत! तेरा घर तो चूहा खोदे जा रहा है और तू उस पर छप्पर छाने की कल्पना करता है’’।

फारसी का शायर था औरंगजेब

   फारसी का शायर एवं लेखक तो औरंगजेब था ही, बेहतरीन खुशनवीस (सुलेखक) भी था। फारसी की दो चित्रोपम लिपियों, निस्तालीक व शिकस्त में उसे पूर्ण दक्षता प्राप्त थी। अपनी कलम से उसने कुरआने-पाक की हस्तलिखित प्रतियां तैयार की थीं। अपने शिक्षक जीवनशाह साहब का वह इतना अधिक सम्मान करता था, कि कोई पुत्र अपने पिता का सम्मान भी क्या करेगा।
   सूफी संत शाह अब्दुल रहीम साहब से वह बेहद प्रभावित था। एक बार उसने उन्हें कुछ जमीन भेंट करनी चाही। इस प्रस्ताव पर शाह साहब ने उसे जो पत्र लिखा था उसका लुब्बे-लुब्बाब यह था कि- ‘सभी सन्त पुरुष मानते हैं कि जो फकीर (दरवेश) राजा के दरवाजे पर जाता है, वह दरवेश नहीं शैतान है। राजाओं के पास बहुत कम सम्पदा होती है। यदि तू मूझे कुछ देगा तो तेरे पास बचा क्या रहेगा?’ औरंगजेब उस पत्र को सदैव अपनी जेब में रखे रहता था। जब लिबास बदलता तो उसे उसी लिबास में रख लेता था। एकांत में वह उस पत्र को बार-बार पढ़ता और रोने लगता।
   सबसे बड़ा आरोप औरंगजेब पर हिन्दू देवस्थानों को तोड़ने का है और उसे सुनियोजित तरीके से इतना उछाला गया है, जिसका जवाब नहीं। कम ही लोग जानते होंगे कि जिन कारणों से उसने चंद-एक मंदिर तुड़वाए थे उन्हीं कारणों से उसने मस्जिदों को भी नहीं बख्शा था। मंदिर-मस्जिद ढहाने के बरअक्स वह मंदिर का सरंक्षक ही नहीं निर्माता भी था। सुविख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने औरंगजेब बेग  ने ऐसे अनेक फरमान प्रस्तुत किए है। जिनके द्वारा औरंगजेब ने कितने ही हिन्दू मंदिरों को जमीनें तथा दर्जनों गांवों की जागीरें प्रदान की थी। शाही अफसरों के नाम कई फरमान ऐसे भी हैं, जिनमें हिन्दुओं को अपना धर्म पालन करने में किसी भी प्रकार की कठिनाई न होने देने की ताकीद की गयी है। हिन्दू देवस्थानों के रक्षार्थ उचित व्यवस्था के आदेश दिए गये। इन आदेशों की अवज्ञा या अवहेलना पर दंड के प्रावधान भी थे। इसी प्रकार की गवाही अंग्रेज यात्री हैमिल्टन की डायरी भी देती है, जो औरंगजेब के समय में भारत यात्रा पर आया था। औरंगजेब का बनवाया हुआ एक विशाल मंदिर चित्रकूट में आज भी शान से सिर ऊंचा किए देखा जा सकता है। प्रादेशिक सरकारों के राजनयिक अभिलेखागारों में मंदिर के सहायतार्थ जारी शाही फरमानों की मूल प्रतियां आज भी सुरक्षित हैं। नवरंग बिहारी नामकरण- यह ठीक है कि शाहजहां अपने बड़े बेटे शहजादा दाराशिकोह को गद्दी देना चाहता था, पर यह भी सच है कि वह औरंगजेब पर भी जान छिड़कता था। हिन्दी प्रेमी तथा हिन्दी हृदय शाहजहां ने ही औरंगजेब का नाम नवरंग बिहारी रखा था। पूरे  मुगलकाल में औरंगजेब सम्भवतः अकेला ऐसा बादशाह हुआ है, जिसके पिता ने बड़े चाव से उसका हिन्दू नाम रखा। आगे जाकर जब औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को आगरा के किले में नजरबंद कर रखा था तो शाहजहां को सबसे अधिक मानसिक वेदना यही थी कि कैसे चाव-चोंचलों से उसने उसका लालन-पालन किया, कितनी जागीरें, पद-प्रतिष्ठा, जागीरी-इलाकों से नवाजा। उसी पुत्र ने बूढे बाप को नजरबंद कर डाला। शाहजहां द्वारा स्वरचित जो सवैया छंद मिलते हैं उनमें से एक सवैया छन्द उसकी इसी मनोव्यथा से परिपूर्ण बहुत मार्मिक है जो इस प्रकार हैः-

  जनमत ही लखदान दियौ?

  ‘‘अरु नाम धर्यौ नवरंग बिहारी।

   बालहिं सो प्रतिपाल कियौ,

   अरु देस-मुलुकक दियौ दल भारी।।

   सो सुत बैर बुझे मन में,

   धरि हाय दियौ बंधसार में डारी।

   ‘साहिजहां’ बिनवै हरि सों,

   बलि राजिवनैन रजाय तिहारी।।’’

   गौरतलब है कि वह उदारचेता बादशाह सब्र-शुक्र के उन गहनतम क्षणों में ‘यारब’, ‘अल्लाह’ अथवा ‘परवरदिगार’; जो भी तेरी मर्जी मैं उसी में राजी-ब-रजा हूं’ जैस शब्द न पिरोकर उस सर्वशक्तिमान सत्ता को ‘हरि तथा ‘राजीव नयन’ (मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम का एक विशेषण) सम्बोधन कर बलिहारी होता है। यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है। ऐसा ही पिता अपने लाडले पुत्र का खालिस हिन्दू नाम चुन सकता है। बहरहाल औरंगजेब का नवरंग बिहारी नाम साबित करनेवाली ये पंक्तियां अपने आप में एक प्रमाण हैं।
   ऐसा नहीं कि उसका नवरंग बिहारी नाम केवल महलों की चाहरदीवारी तक सीमित रहा या बादशाह बन जाने के बाद नहीं चला। इस नाम से उसके जमाने में उसे दूर-दूर तक जाना जाता था। जहां उसके अन्य शाही लकब तथा उपधियां प्रयोग की जाती थीं, वहां उसका नवरंग बिहारी नाम भी मिलता है। इसका सबसे रोचक प्रमाण राजस्थान के जिला अलवर में समरा नामक, जो अब ‘देव का देवरा’ कहा जाता है, ग्राम में परस्पर सटे हुए बतियाते मंदिर-मस्जिद के अवशेषों में मिला।
   गुर्जर जाति के एक लोकगायक खेमा भोपा ने सन् 1702 ई. में यहां देवनारायण का एक मंदिर, जिसमें विविध देवताओं की प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित थीं और उसी से सटी हुई एक विशाल मस्जिद का निर्माण कराया था। मस्जिद के छह गुम्बद और उनके कलश-रूप में कमल-पंखुड़ियां बनाई गई। मस्जिद में लगा एक शिलालेख देहाती बोली (हिन्दी) में है। फारसी शिलालेख का मूल पाठ इस प्रकार हैः-

   ‘मस्जिद-मुअल्ला मुरत्तब आमद दर अहद बादशाह आलमगीर गाजी सन जलूस 49 ब-मुताबिक सन् 1114 हिजरी’।

   अर्थात मस्जिदे-मुअल्ला नामक उस मस्जिद का निर्माण बादशाह आलममीर (औरंगजेब) गाजी के शासनकाल में, उनके राज्याभिषेक की 49 वीं वर्षगांठ पर, तदनुसार सन् 1114 हिजरी में सम्पन्न हुआ।’

   ‘संवत 1759 जेठ सुदी 14 बीसपत (बृहस्पति) वार पातसाह श्री नौरंगशाहजी, श्रीमंत जागीर दीवान कमर मुहम्मद कुलीजी व मियां महमद अली जी, राजा भानगढ़ का माधवसिंह व खेमा भरथा गुवाड़ा समरा का भोपा  ने मस्जिद बनाई।’ मतलब यह कि औरंगजेब का नवरंग बिहारी नाम ऐसा लोकप्रसिद्ध था कि उसके राज्यभिषेक के पचास वर्ष बाद तक प्रचलित रहा। यहां तक कि शिलालेखों तक में प्रयुक्त होता रहा। संभव है, इस प्रकार के कुछ और भी शिलालेखों या शाही दस्तावेजों में ‘नवरंग शाह’ नाम मिल जाए। खोज होनी चाहिए।
   नवरंग नाम के प्रयोग- जैसा अभी इशारा किया जा चुका है वीर रस के समर्थ एवं सक्षम कवि के रूप में हिन्दी काव्य के इतिहास के प्रतिष्ठित भूषण वाकई प्रतिभाशाली कवि थे। यह अलग बात है कि उन्होंने रीतिकालीन काव्य के तहत श्रंृगारिक कविता भी खूब की किंतु पता नहीं क्यों उनकी श्रृंगारिक रचनाओं की चर्चा प्रायः नहीं होती है। नामालूम उन नमूनों को पर्दे में क्यूं रखा गया है। खैर! कवि भूषण के आश्रयदाता जो राजा-राव-नरेश आदि रहे उनकी एक लंबी सूची बनाई जाए तो 12-15 नाम शामिल होंगे। उनमें से तीसरा नाम बादशाह औरंगजेब का है। हिन्दी कविता और कवियों का कद्रदान होने से औरंगजेब ने भूषण को पूरे मान-सम्मान के साथ अपने दरबार में रखा था। इस सम्बंध में एक घटना प्रसिद्ध है।
   एक दिन सारे दरबार में औरंगजेब ने कवियों से कहा- ‘आप सभी हमेशा मेरी तारीफों से भरी कविताएं सुनाकर मुझे खुश करने में लगे रहते हैं। क्या मुझ में कोई ऐब, कोई दोष नहीं है।’’ दूसरे लोग तो बादशाह के इस कथन पर भी लगे तारीफें उछालने किन्तु भूषण ने संजीदगी से सादर निवेदन किया- ‘‘मैं आपके अवगुणों से भरी कविता सुनाने को तैयार हूं किन्तु कविता सुनकर मुझे माफ किया जाए।’’ बादशाह राजी हो गया। भूषण ने उसी समय यह कवित्त छंद रचकर सुनाया।

   ‘‘किबले के ठौर बाप बादशाह शाहजहां

   वाको कैद किया मानों मक्के आगि लाई है

   बड़ों भाई दारा वाको पकरि के मारि डारयो,

   मेहर हूं नाहिं मां को जायो सगो भाई है।।

   खाई कै कसम त्यों मुराद को मनाय लियो,

   फेरि ताहू साथ अति किन्हीं तैं ठगाई है।।

   ‘भूषण’ सुकवि कहे सुनो नवरंगजेब,

   ऐसे ही अनीति करि पातसाही पाई है।।’’

   इसके बाद दूसरे छंद में जब भूषण ने बादशाह की इबादतगुजारी को ढोंग बताते हुए उसे ‘सौ-सौ चूहे खाई कै बिलाई बैठी तप को’ (वस्तुतः यह उर्दू कहावत नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली का हिन्दीकरण है) कहा तो बादशाह ने कुपित होकर भूषण को कत्ल करने का हुक्म दे दिया। किन्तु लोगों ने याद दिलाया कि आप उसे जानबख्शी और मुआफी पहले ही दे चुके हैं, तो उसने अपना हुक्म तो वापस ले लिया पर गुस्से से कहा ‘‘अब तू मेरी नजरों से दूर हट जा!’’
   भूषण फौरन अपने निवास स्थान पर आए। असबाब संभाला, लादा चल पड़े। बादशाह ने जब उन्हें इस तरह शहर छोड़कर जाते सुना तो रोकने के लिए हरकारे दौड़ाए। ताकि उन्हें वापस लौटा लाएं। किन्तु घुड़सवार हरकारे भूषण को वापस लौटाने में नाकाम होकर फिर आए। इससे कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि बादशाह ने गुस्से में जो ‘मेरी नजरों से दूर हट जा’ कहा इससे उनकी मंशा यह नहीं थी कि भूषण दरबार से सम्बंध विच्छेद कर शहर ही त्याग जाएं। जो भी हो! कहना चाहता हूं कि उक्त छंद में भूषण ने औरंगजेब के घरेलू नाम नवरंग बिहारी का हिन्दी-फारसी मिलाकर खूबसूरती से ‘नवरंगजेब’ प्रयोग किया। इससे यह भी साबित होता है कि नवरंग नाम काफी प्रचलित था। अगर औरंगजेब सचमुच कट्टर और हिन्दू-द्वेषी होता तो क्या अपना हिन्दुवाना नाम पसंद करता? विदित हो कि ‘औरंगा’  फारसी शब्द है और इसका अर्थ है राज सिंहासन, बुद्धि, विवेक आदि। ‘जेब’ भी फारसी शब्द है इसका अर्थ है शोभा, सज्जा, बनाव, श्रृंगार आदि। अतः औरंगजेब का हिन्दी में सही अर्थ होगा राजसिंहासन की शोभा, राजगद्दी का श्रृंगार, बुद्धि-सज्जा, विवेक-सज्जा आदि।
   औरंगजेब का आश्रम त्यागकर जब भूषण शिवाजी के आश्रम में रहने लगे तो उन्हें मुगलों का विरोधी और शिवाजी का प्रशस्तिगायक होना ही था। शिवाजी की प्रशंसा में एक कवित्त छंद में उन्होंने अंतिम दो पक्तियों में ‘नवरंग’ को संक्षिप्त कर ‘नौरंग’ प्रयोग किया है। मुलाहिजा फरमाएं।

   ‘‘तमक से लालमुख सिवा को निरखि भए

   स्याहमुख नौरंग सिपाह मुख पियरे।।’’

   अब एक और दिलचस्प बात!- मेरी लायब्रेरी में खुदा जाने कब से और नमालूम कब का छपा एक पुराना हिन्दी शब्दकोश है। इसके आरंभ में 7 पेज और अंतिम हिस्सा गायब होने के बावजूद यह 1026 पृष्ठों में है और इसमें ‘अ से प’ तक के शब्द हैं। कह सकते हैं कि यह कुल जितना बड़ा होगा, उसका आधा है। इसके पृष्ठ 459 पर ‘नौरंग’ शब्द के दो अर्थ दिए गये हैं। पहला एक प्रकार की चिड़िया। दूसरा औरंगजेब शब्द का विकृत रूप। ‘नौरंग’ का यह दूसरा अर्थ मुझे सही नहीं लगता। क्योंकि यह ‘नवरंग’ का संक्षिप्त, या कहें आम बोलचाल वाला रूप है। और नवरंग का अर्थ है नया नवेला, नये ढंग का! खैर, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि औरंगजेब का घरेलू नाम एक शब्दकोष में सहेज कर रखा गया है। क्या इससे यह साबित नहीं होता कि न सिर्फ औरंगजेब के समय में उसका नवरंग नाम लोकप्रसिद्ध रहा बल्कि वह औरंगजेब का मानो पर्याय बनकर शब्दकोष में भी शतियों की मुद्दत गुजारने पर भी सुरक्षित है।
   जीवन के संध्या काल में औरंगजेब के शासनकाल का प्रारंभ और अंत सामरिक अभियान के दौरान ही हुआ।
   सन् 1706 ई. में जब वह दक्कन में था, वार्धक्य के कारण गंभीर रूप से ऐसा बीमार पड़ा कि फिर स्वस्थ नहीं हो सका। जब से ठीक से महसूस होने लगा कि यह टिमटिमाता जीवन-दीप अब बुझनेवाला है तो उसने शहर काजी को चार हजार रुपये भिजवाये और लिखा- ‘अब मेरा वक्त करीब है। अव्वल मंजिल तक मुझे पहुंचाने का इन्तिजाम किया जाए। यह रूपया गरीबों और मोहताजों में तकसीम कर दिया जाए।’’
   उसके बाद परिजनों के नाम वसीयत थी- मेरे कफन-दफन का इन्तिजाम उन साढ़े चार रुपयों से किया जाए जो टोपियां बनाकर मैने अपनी मेहनत से पैदा किए हैं। और आठ सौ पांच रुपये, जो मैने कुरआन नवीसी की उजरत से हासिल किए हैं, मेरे मरने के बाद खैरात कर दिए जाएं।’’
   औरंगजेब की वृद्धावस्था मेरी दृष्टि में सचमुच विचारणीय मामला है। तमाम साज-सज्जा से रहित एक सूना व सादा कमरा। एक अदद जा-नमाज एक अदद तस्बीह, वुजू करने के लिए मामूली बधना, सादा लिबास। नमाज, रोजे, वजीफे से मिली फुर्सत में कभी टोपियों के पल्ले काढे जा रहे हैं, कभी कुरआन-पाक की हस्तलिखित प्रतियां तैयार की जा रही है। यही था उसका बुढ़ापा और गोशनशीनी। जो लोग औरंगजेब को वलअल्लाह या दरवेश मानकर रहमतुल्लाह लिखते हैं, उनके पास कौन से तर्क हैं, वे जाने। मैं उन से नहीं इतिहास लेखक शौकत अली फहमी और असगर अली इंजीनियर से सहमत हूं कि औरंगजेब न तो हिन्दू दुश्मन था और न दरवेश! अकसर मुझे लगता है कि इस गोशानशीनी, कठोर संयम, जुहद-ओ तकवा और अल्लाह-अल्लाह करके दिन गुजारने के पीछे कहीं न कहीं पूर्व ‘कर्मों’ के लिए प्रायश्चित एवं ग्लानि का भाव रहा होगा। आखिरी उम्र में पूर्व ‘कर्मों’ का एहसास कुछ शदीद हो आता है और अमूमन व्यक्ति मानसिक शांति एवं सांत्वना के लिए अनेक प्रकट-अप्रकट उपाय अपनाता है। बहरहाल यहां मुझे अमीर हसन आकिल का एक हस्बेहाल शेर अनायास याद आता है।

भारत की तारीख उठाकर बाबे औरंगजेब पढ़ो।

सिर्फ कफन के पैसे निकले शाहे-आलमगीर के पास।

   इस प्रकार 90 साल 18 दिन की आयु भोगकर 50 वर्ष और 27 दिन शासन करने के बाद 20 फरवरी, 1706 ई. में औरंगजेब इस संसार से सिधार गया। उसी दिन उसे बहुत सादे तरीके से औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के करीब कब्रिस्तान में विधिवत दफना दिया गया। न कोई शव यात्रा और न मातमी जलसा-जलूस। इससे पूर्व किसी भी बादशाह को इतनी लम्बी अवधि तक शासन करना नसीब नहीं हुआ था। लेकिन कैसी विडम्बना है कि दिल्ली के जिस तख्त के लिए उसने सगे भाईयों को कत्ल कराया, पिता को बंदी बनाया, बहनों को नाराज रखा, कितनी बदनामियां झेलीं। उस तख्त पर बैठना उसे कम ही नसीब हुआ। न दिल्ली में उसका राज्याभिषेक हुआ और न निधन। मरा तो दिल्ली से बहुत दूर। अंत में दिल्ली में दो गज जमीन भी नसीब नहीं हुई।

साभारः ‘‘वैचारिकी’’ द्वैमासिक शोध पत्रिका,भारतीय विद्या मंदिर शोध प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित,जुलाई-अगस्त 2014  



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