विश्व आर्थिक संकट, दक्षिणपंथी राजनीति
और छात्र-नौजवान
-कमलेश
केन्द्र में भाजपा द्वारा सत्ता संभालने के बाद पूरे देश में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है। चुनाव जीतने के लिए संघी मंडली द्वारा दो साल से इस ध्रुवीकरण के लिए मुहिम जारी थी। भारतीय राजनीति अधिकाधिक दक्षिणपंथ की ओर झुकती जा रही है। भाजपा-नरेन्द्र मोदी का सत्तानशीन होना और भारतीय राजनीति का दक्षिणपंथ की ओर सरकना कारण नहीं परिणाम है। भारतीय राजनीति-सत्ता के दक्षिणपंथ की ओर सरकने के कहीं ज्यादा गहरे कारण हैं।
क्रांतिकारी राजनीतिक चिंतक दिमित्रोव ने कहा था कि ‘आर्थिक व राजनीति संकट दोनों विद्यमान हों तो फासीवादी विचारधारा शासक वर्ग पैदा कर लेता है।’ दूसरे शब्दों में कहें तो ‘फासीवाद का सम्बन्ध शासक वर्ग के राजनीतिक-आर्थिक संकट में है।
दिमित्रोव के इस राजनीतिक विश्लेषण से यदि हम आज की दुनिया को देखें तो हम पाते हैं कि 2007 में आया विश्व आर्थिक संकट अभी तक दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बुरी प्रेत आत्मा की तरह चिपका हुआ है। 2009-10 में कुछ सुधार की बात हुई किन्तु वह ज्यादा समय नहीं टिक सकी और 2011 से एक बार फिर अर्थव्यवस्थाएं लुढ़कने लगी। साम्राज्यवादी संस्थाएं व चिंतक संकट के चिरस्थाई होने तक की बातें करने लगे हैं। विश्व अर्थव्यवस्था के इस संकट ने पूंजीपतियों के मुनाफे के रथ पर ब्रेक लगा दिये हैं। पूंजीपति मुनाफे के लिए छटपटा रहे हैं। देशों की सरकारें संकट के जिम्मेदार पूंजीपतियों को तमाम छूटें-रियायतें देकर अर्थव्यवस्था को उभारने का प्रयास कर चुके हैं। किन्तु इससे भी बात नहीं बनी और संकट सरकारों व सरकारी कोष तक पहुंच गया। स्थिति सुधरने के बजाए और गंभीर हो गयी।
मुनाफा कमाने के लिए छटपटा रहा पूंजीपति संकट से निकलने के रास्ते के तौर पर मजदूरों के और भयानक शोषण की ओर बढ़ रहा है। उनके जीवन स्तर को गिराता जा रहा है। जिसके कुल परिणाम के बतौर समाज की क्रय शक्ति और कम होती जा रही है और पूंजीपति और गहरे आर्थिक-राजनीतिक संकट की ओर बढ़ता जा रहा है। पूंजीपति अपने मुनाफाखोर चरित्र के कारण इससे अलग और कुछ कर भी नहीं सकता।
वैश्विक स्तर पर हर देश में बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। रोजगार में लगे मेहनतकशों के वेतन में कटौती की जा रही है। सामाजिक सुरक्षा (शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) से सरकार अपने हाथ पीछे खींच रही है। जिसके कुल परिणाम के बतौर मेहनतकशों के जीवन स्तर में भारी गिरावट आती जा रही है। समाज में कंगालीकरण तेजी से बढ़ रहा है।
समाज व जीवन के ये हालात मजदूर-मेहनतकशों को संघर्ष के मैदान में लाकर खड़ा कर दे रहे हैं। अरब देशों, यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका के देशों के पिछले समय के प्रदर्शन इसी बात के गवाह हैं। मजदूर-मेहनतकश, युवाओं के ये जोरदार प्रदर्शन लम्बे समय से सुस्त पड़ी दुनिया को हिला रहे हैं। इस खास बात के साथ-साथ इन प्रदर्शनों की भारी कमी यह है कि यह शासकवर्गीय दायरे तक ही सीमित हैं। ये प्रदर्शन मजबूत क्रांतिकारी विकल्प पैदा नहीं कर पाये हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो क्रांतिकारी समाजवादी विकल्प के कमजोर होने के कारण ये तीखे से तीखे विरोध प्रदर्शन भी पूंजीवादी दायरे में ही सिमटने को अभिशप्त हैं। पूंजीवाद भी इन प्रदर्शनों को पूंजीवादी दायरे में रखने या भटकाने के लिए अपने एनजीओ व सामाजिक संगठनों के माध्यम से सक्रिय है। फिलहाल पूंजीपति वर्ग अपने घृणित लक्ष्य में कामयाब है। पर यह स्थिति कब तक रहेगी यह वह भी नहीं जानता। यही डर उसे सताये जा रहा है। और डरा हुआ पूंजीवाद अपनी सारी रक्षा पंक्तियों को तैयार कर रहा है। उसकी रक्षा पंक्ति में दक्षिणपंथी राजनीति, फासीवाद एक मजबूत भरोसेमंद व आजमायी हुई रक्षा पंक्ति है।
दक्षिणपंथी राजनीति समाज को जाति, नस्ल, रंग, धर्म में बंटा हुआ मानकर विभिन्न समुदायों को इन आधारों पर एक-दूसरे के विरोध में शत्रु के तौर पर प्रस्तुत करती है। यह राजनीति समाज के मूल अंतरविरोध (मजदूर व पूंजीपति के बीच) को धूमिल करती है, उसे पीछे धकेलती है। यह राजनीति रोटी-रोजगार की लड़ाई को कमजोर कर समाज को जातीय, नस्लीय, धार्मिक झगड़ों में झोंक देती है। समाज के तमाम प्रतिगामी मूल्यों को अपने भीतर समेट कर यह राजनीति मजदूर-मेहनतकशों की एकता को भारी नुकसान पहुंचाती है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट के समय शासक वर्ग अधिकाधिक दक्षिणपंथी राजनीति को अपनाते हुए फासीवादी राज्य की ओर बढ़ता है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपने संकट से निकलने के लिए मजदूर-मेहनतकशों को और अधिक चूस लेना चाहती है। यह निर्मम होकर मजदूरों-मेहनतकशों का शोषण कर अपना मुनाफा बढ़ाना चाहती है। किन्तु मजदूर-मेहनतकश अपने बद से बदतर हो रहे हालात को यूं ही नहीं सह जाता, वह प्रतिरोध करता है। मजदूर मेहनतकशों के प्रतिरोध को भटकाने व उसका क्रूर-निर्मम दमन करने के लिए शासक वर्ग दक्षिणपंथी राजनीति की ओर आगे बढ़कर फासीवादी राज्य को अपना लेता है।
2007 में आये विश्व आर्थिक संकट ने भी उपरोक्त बातों को सही साबित किया है। संकट ग्रस्त पूंजीवाद दक्षिणपंथ को अपनाने की ओर बढ़ रहा है। पिछले वर्षों में नार्वे, आस्ट्रिया व अन्य यूरोपीय देशों के चुनावों में दक्षिणपंथियों की बढ़त से इसको समझा जा सकता है। तुर्की में पूर्व प्रधानमंत्री और अब राष्ट्रपति तैय्यप एर्दोगेन ने संवैधानिक बदलाव कर सारी शक्तियां राष्ट्रपति के हाथों में केन्द्रित कर दी। तुर्की के उदाहरण से भी दक्षिणपंथ के उभार को समझा जा सकता है। सीधी चुनावी बढ़त के साथ-साथ सरकारें जनवाद को अधिकाधिक सीमित कर, एक के बाद एक दक्षिणपंथ फैलाने वाले षड़यंत्र रच रही हैं।
भारत में नरेन्द्र मोदी, भाजपा, दक्षिणपंथ के उभार को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए। संकट ग्रस्त भारतीय पूंजीपति ने मोदी पर खूब पैसा खर्च करके उसे सत्ता पर बैठाया। उसी की इच्छा के अनुरूप मोदी पूंजीपति वर्ग की सेवा में तत्पर भी है। एक तरफ; रेल भाडा बढ़ाया जा रहा है, हर क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश को बेलगाम ढंग से बढ़ाने की पटकथा लिखी जा रही है, फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूरों के सारे अधिकार छीनकर उन्हें पूंजीपति के मुनाफे की नंगी हवस के लिए छोड़ा जा रहा है, आदि-आदि।
दूसरी तरफ; पूरी संघी मंडली समाज का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर रही है। ‘हिन्दू राष्ट्र’, ‘लव-जिहाद’, कश्मीर, पाकिस्तान विरोध के स्वर बहुत ऊंचे उठने लगे हैं। शिक्षा व राज्य
मशीनरी के पदों की महत्वपूर्ण अहर्ता संघी होना बनता जा रहा है।
देश-विदेश में काली बुराई के रूप में पसरती जा रही दक्षिणपंथी राजनीति मेहनतकशों के मन-मस्तिष्क को बुरी तरह जकड़े हुए है। नौजवान आबादी पर इसका प्रभाव अच्छा खासा है। सोशल साइटों के जरिये संघी मंडली घृणित साम्प्रदायिक जुमलों को प्रचारित कर रही है। और नौजवानों को अपने प्रभाव में ले रही है। भारत एक जहां कि हर तीन में से एक शिक्षित नौजवान, बेरोजगारी की मार झेल रहा हो वहां उनके बीच साम्प्रदायिक विचार घर करते जा रहे हैं। एक सवर्ण हिन्दू नौजवान अपनी समस्याओं के लिए मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों को दोष दे रहा है। अपनी हर समस्या को वह साम्प्रदायिक चश्मे से देख रहा है। साम्प्रदायिकता की यह शासकवर्गीय राजनीति उसके रोजगार के संघर्ष को पीछे धकेल दे रही है।
शासक वर्ग की इस दक्षिणपंथी राजनीति की उग्र प्रस्तोता भाजपा व संघी मंडली हैं। किन्तु अन्य शासक वर्गीय पार्टियां भी साम्प्रदायिकता पर जुबानी जमा-खर्च ही करती है। साम्प्रदायिक राजनीति का यह भी अपने वोट बैंक के हिसाब से फायदा उठाती ही है। कांग्रेस, सपा, बसपा आदि पार्टियां शासक वर्ग की ही पार्टियां हैं। यदि भारत के शासकों को आवश्यकता होगी तो वह इनसे भी वही (भाजपा के समान) दक्षिणपंथी राजनीति करवा सकता है या समय-समय पर करवाता भी है।
पूंजीवादी व्यवस्था दक्षिणपंथी राजनीति का उपयोग अपना मुनाफा क्रूरतापूर्वक बढ़ाने के लिए व मेहनतकशो की एकता को कमजोर करने के लिए करती है। पूंजीवादी व्यवस्था के मुनाफे के खूनी रथ को रोकने का काम भारत के मजदूर, किसान व मेहनतकश परिवारों के नौजवान ही कर सकते हैं। साम्प्रदायिकता के पूर्णतः नाश की शर्त मजदूर-मेहनतकशों की वर्गीय एकता व वर्गीय संघर्ष ही है। देश के नौजवानों को इसी दिशा में प्रयास कर साम्प्रदायिकता व फासीवाद का पूरी तरह नाश करना होगा।
हिटलर के तम्बू में
-नागार्जुन
अब तक छिपे हुए थे उसके दांत और नाखून।
संस्कृति की भटटी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
छांट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बडे कानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र पर खून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून।
संस्कृति की भट्टी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मंद।
तक्षक ने सिखलाये उनको ‘सर्प नृत्य’ के छंद।
अजी, समझ लो उनका अपना नेता था जयचन्द्र।
हिटलर के तम्बू में अब वे लगा रहे पैबन्दं
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मंद।
(साभारः ‘यह ऐसा समय है’, कविता संकलन)
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