मंगलवार, 24 मार्च 2015

आवरण कथा



मिथक व यथार्थ

                            साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में    

                                                                                                                                                  -कैलाश

पिछले कुछ समय से देश के अन्दर साम्प्रदायिक दंगो में बढ़ोत्तरी हो गयी है। छोटी-छोटी घटनाओं को प्रचारित-प्रसारित कर बड़ा रूप देने व झूठ तथा अफवाहों का इन दंगों में बड़ा हाथ रहा है। इसके अलावा पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों(खासकर भाजपा व संघ के नेताओं द्वारा विवादित साम्प्रदायिक बयानों में बढ़ोत्तरी हुयी है), साम्प्रदायिक पार्टियों व नेता साम्प्रदायिकता छुपाये हुये, उनके बीच कई तरह के मिथकों को जन्म देते है। इन मिथकों में ‘मुस्लिम अपने धर्म के प्रति कट्टर होते है’, ‘वह चार-चार शादियां कर तेजी से अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं’, ‘जल्द ही देश में मुस्लिम बहुसंख्यक व हिन्दू अल्पसंख्यक हो जायेंगे’, ‘मुस्लिम पाकिस्तान परस्त होते हैं’, ‘हर आतंकी मुस्लिम होता है’, ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’, ‘लव जिहाद’, ‘साम्प्रदायिक दंगे शुरू से होते रहे हैं’, दंगों की शुरूआत इन मिथकों को फैलाकर यह पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां व इनके नेता अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को मजबूत करते हैं। आइये इनमें से कुछ

मिथकों की जांच-पड़ताल कर सत्यता जानने की कोशिश करें-

मिथक- मुस्लिमों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है क्योंकि वह चार- चार शादियों करते है। कुछ समय में हिन्दू देश के अन्दर अल्पसंख्यक हो जायेगें।
यथार्थ- भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री ने 2002 में गुजरात दंगों के बाद विधानसभा चुनाव के दौरान कहा था ‘हम दो(मतलब हिन्दू) हमारे दो, ‘वे पांच (मतलब मुस्लिम) इनके पच्चीस’ तथा वि.हि.प. के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल ने 2004 में बयान दिया कि ‘हिन्दुओं को परिवार नियोजन छोड़ देना चाहिएः- इन बयानों के जरिये, यह नेता हिन्दुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का खतरा महसूस कराना चाहते थे।
    मुस्लिम धर्म में चार शादियों की इजाजत इसकी पैदाइश के समय की कबीलाई परिस्थितियोें की देन है। आज वर्तमान समय में वास्तविकता का इससे सम्बन्ध नहीं है। अगर देश की मुस्लिम आबादी व कुल आबादी के लिंगानुपात की बात की जाये तो लड़कियों की तुलना में लड़कों की संख्या ज्यादा है। अगर एक मुस्लिम चार शादियां करता है तो तीन चौथाई से ज्यादा पुरूष तो अविवाहित ही रह जायेंगे। हालांकि आज की महंगाई के दौर में किसी व्यक्ति के लिए इतना बड़ा परिवार पाल-पाना भी मुश्किल है।
    तथ्यों के अनुसार बहु विवाह सबसे ज्यादा आदिवासियों में हुए हैं(15.25प्रतिशत) बोडो में (7.9प्रतिशत) तथा जैन में (7प्रतिशत) हुए हैं। एक से ज्यादा विवाह हिन्दुओं में 5.80 प्रतिशत तो मुस्लिम में 5.7 प्रतिशत हुए हैं। यह तथ्य संघियों के नारे ‘हम दो हमारे दो, वे पांच उनके पच्चीस का खोखलापन स्पष्ट कर देते हैं।
    अगर देश की जनसंख्या के आकड़ों पर गौर किया जाये तो संघियों के झूठ की कलई तुरंत खुल जाती है।(देखें तालिका)
    उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है पिछले 50 वर्षों में हिन्दुओं की जनसंख्या में मामूली गिरावट आयी है जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या में मामूली बढ़ोत्तरी हुयी है। 1961-71 से 1971-81 के दौरान हिन्दू जनसंख्या वृद्धि दर 23.71 से बढ़कर 24.42 हो गयी। जबकि इसी अवधि में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 30.85 प्रतिशत से घटकर 30. 20 प्रतिशत रह गयी। राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि 1993-94 से 1998-99 के बीच मुसलमानों में कुल प्रजनन 4.41 से घटकर 3.59 हो गयी 0.82 की कमी जबकि इसी समय हिन्दुओं में यह दर 3.2 से घटकर 2.78 हो गयी (0.52 की कमी)। 2011 की जनगणना के अनुसार कुल प्रजनन दर हिन्दुओं में 2.47 (देहात में 2.77 शहरों में 1.72) है मुसलमानों में यह 3.06 (देहात में 3.52 शहर में 2.29) है। यहां पर गौरतलब है कि शहर में मुसलमानों की प्रजनन दर देहात के हिन्दुआं से कम है उपरोक्त से स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि में धर्म नहीं बल्कि शिक्षा का प्रचार-प्रसार तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का महत्वपूर्ण योगदान होता है।


मिथक- मुस्लिम युवक संगठित व सुनियोजित तरीके से हिन्दू लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फंसाकर उनका जबरन धर्म परिवर्तन व शादी करके ‘लव जिहाद’ फैला रहे हैं।

यथार्थ- ‘लव जिहाद’ का हौब्बा खड़ा कर भाजपा व तथाकथित ‘हिन्दू हितकारी संगठन’ समाज में ध्रुवीकरण पैदा करना चाहते हैं तथा महिलाओं को पिछड़ी मध्ययुगीन अवस्था में ढकेल देना चाहते हैं।
    आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार तथा महिलाओं के घर से बाहर निकलकर सीमित स्तर पर सामाजिक उत्पादन में भागीदारी से पारंपरिक रूढ़िवादी जाति-धर्म के बंधन कुछ कमजोर पड़े हैं। एक साथ पढ़ते हुए या काम करते हुए आपस में जान-पहचान तथा रिश्ते कायम होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे में शादी-ब्याह, जाति-धर्म के बंधनों को तोड़कर भी कायम हो रहे हैं। इन रिश्तों को समाज में सहज मान्यता प्राप्त नहीं है। खासकर धर्म से बाहर शादी तो आम रूढ़िवादी जनमानस के लिए ‘धर्म की रक्षा’ की नहीं बल्कि ‘घर की इज्जत’ का सवाल भी बन जाता है। समाज ऐसे रिश्तों को रोकने यहां तक कि तोड़ने की भी हर संभव कोशिश करता है। आम जनता की इसी पिछड़ी चेतना का पक्ष-पोषण करते हुए संघ ‘लव जिहाद’ का शिगूफा छेड़ हिन्दू मतों के धुव्रीकरण व पुरानी मूल्य-मान्यताओं को बचाये रखना चाहता है। वह शादी-ब्याह जैसे मामले में महिलाओं के आत्मनिर्णय के अधिकार को खत्म कर उन्हें मध्ययुगीन अवस्था में धकेल देना चाहता है। सामान्य वैवाहिक रिश्तों की तरह अंतर्धार्मिक रिश्तों में होने वाली अनबन व अलगाव को यह ‘लव जिहाद’ के बतौर प्रचारित करता है। रांची में रकीबुल हसन उर्फ रंजीत कोहली व तारा सहदेव वाली घटना को भी इसने ‘लव जिहाद’ के बतौर प्रचारित किया जबकि वह आपसी मतभेदों का ही मामला था।
    कर्नाटक व केरल में किये गये ‘लव जिहाद’ के झूठे व कुत्सा प्रचार को संघ अब पूरे देश में फैला रहा है। मुजफ्फरनगर शामली में ‘लव जिहाद’ के सिद्धांत के दम पर ही यह साम्प्रदायिक उन्माद व हमले का सफल आयोजन कर चुका है इनकी करतूतों से ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश अभी भी सुलग रहा है। ‘लव जिहाद’ का शिगूफा छेड़ने वाला संघ मध्ययुगीन ‘खाप पंचायतों’ द्वारा हिन्दू धर्म के अंदर ही इज्जत के नाम पर हो रही प्रेमी युगलों की हत्या ‘आनर किलिंग’ पर चुप्पी साध लेता है।


मिथक- दंगों के लिए आतंकवाद की तरह मुस्लिम ही जिम्मेदार होते हैं तथा हर आतंकवादी मुस्लिम होता है।


यथार्थ- यह बात प्रचारित कर बहुसंख्यक साम्प्रदायिक संगठन दंगों के लिए अल्पसंख्यकों को जिम्मेदार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश करते हैं। मुजफ्फरनगर दंगों में संघ परिवार से जुडे़ भाजपा व अन्य संगठनों ने दो मोटर साइकिलों के टकराने के विवाद को ‘लव जिहाद’ के बतौर खूब प्रचारित किया व महापंचायतों के जरिये पूरे क्षेत्र में माहौल को बिगाड़ दिया। कांठ (मुरादाबाद) में संघ व भाजपा से जुडे़ लोगों ने लाऊड स्पीकर के मामूली विवाद को तूल देकर दंगों में तब्दील करा दिया। 1969 में अहमदाबाद दंगे, भिवंडी जलगांव दंगे(1970), जमशेदपुर (1979), कन्याकुमारी (1982) दंगों की जांच के लिए गठित आयोगों ने भी इन दंगों के लिए संघ परिवार से जुडे़ लोगों को ही जिम्मेदार ठहराया। संघ परिवार अपनी शाखाओं व संगठनों (भाजपा विहिप, बजरंग दल, अभाविप आदि) के जरिये अल्पसंख्यकों के प्रति कुत्सा प्रचार व हमले कर उन्हें अल्पसंख्यक साम्प्रदायिक संगठनों में सिमटने को मजबूर करते हैं। जिसके फलस्वरूप उत्पन्न तनाव की परिणति दंगों के रूप में होती है। दोनों ही साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे को खाद पानी मुहैय्या कराती हैं। जहां बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता आक्रामक रूख अख्तियार कर फासीवाद की ओर जाती है, वहीं अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता आत्मरक्षा में अलगावाद की तरफ जाती है।

                                                      जनसख्या में धार्मिक आधार पर बटंवारा

                                  

          संघ परिवार से जुड़े लोगों की आतंकवादी घटनाओं में संलिप्तता ने इनके ‘हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकी मुसलमान होता है’ के नारे की भी एक हद तक हवा निकाल दी है। समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट, नांदेड़ बम धमाके, अजमेर, मालेगांव व मक्का-मस्जिद में हुए बम धमाकों में संघ से जुडे़ लोगों व संगठनों की भूमिका उजागर हुयी। इन घटनाओं के आरोपी साध्वी प्रज्ञा, असीमानंद व कर्नल पुरोहित अभी भी जेल में बंद हैं। जबकि इन घटनाओं के आरोप में कई बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार किया गया, जिन्हें बाद में कोर्ट के आदेश पर रिहा किया गया।
दरअसल आतंकवाद का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। यह आतंकी संगठन इस पूंजीवादी व्यवस्था की ही सेवा करते हैं। पूंजीवादी देश व सरकारें ही इन्हें पाल-पोस कर रखती है, ताकि किसी दूसरे देश में अस्थिरता फैलाने या अपने घृणित स्वार्थों की पूर्ति के लिए इनका इस्तेमाल किया जा सके। खुद सरकारें भी अपनी सेना व पुलिस के दम पर भी संगठित आतंकवाद को जन्म देती है। हालिया आईएसआईएस व तालिबान को खड़ा करने में जहां अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका थी वहीं पाकिस्तान कबाइलियों को पाक सरकार की मदद व भारत में आतंकी घटनाओं में लिप्त पाये गये संगठन ‘अभिनव भारत’ का सम्बन्ध संघ परिवार से था।



मिथक- दंगे भड़काने में कुछ लम्पट तत्वों का हाथ होता है। पूंजीवादी राजनीतिक दलों व नेताओं की इसमें कोई भूमिका नहीं होती है।
यथार्थ- अगर वर्तमान समय में दंगों की प्रकृति पर नजर डाली जाए तो मिथक की कलई तुरंत खुल जायेगी। अब दंगे स्वतःस्फूर्त नहीं बल्कि प्रायोजित होने लगे हैं। विभिन्न पूंजीवादी राजनीतिक दल अपने फायदे-नुकसान के हिसाब से इसमें अपनी भूमिका अदा करते हैं। दंगों का प्रायोजित होना ही पार्टियों व नेताओं की संलिप्तता को जाहिर कर देता है। यह साम्प्रदायिक संगठन छोटे-छोटे झगड़ों को प्रचारित-प्रसारित कर व अफवाहों के जरिये लोगों की भावनाओं को भड़काकर माहौल बिगाड़ने की लगातार कोशिश करते रहते हैं। मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के दौरान पूंजीवादी पार्टियां व नेताओं की भूमिका जग जाहिर है। मुरादाबाद के कांठ में लाउडस्पीकर के मामूली विवाद को भड़काकर संघ व भाजपा के लोगों ने दंगों में तब्दील करा दिया। भाजपा ने दंगों में नामित व जेल गये लोगों को वीरों की तरह सम्मान दिया। 2002 के गुजरात दंगे व 2011 के रूद्रपुर दंगे के दौरान दंगाईयों के पास दूसरे धर्म के व्यक्तियों के नाम व उनकी दुकानों की लिस्ट तक मौजूद थी। पुलिस इस दौरान या तो मूकदर्शक बनी रही या दंगाईयों का साथ देती नजर आयी। 2002 के गुजरात व 1984 के सिख विरोधी दंगों में सत्ताधारी दल दंगे रोकने के बजाए इन्हें भड़काते नजर आये गुजरात दंगों मेें जेल गयी; मोदी सरकार की मंत्री माया कोडनानी व बजरंग दल नेता बाबू बजरंगी तो दंगाइयों का नेतृत्व करते नजर आये। हां; अधिकतर नेता इन दंगों में प्रत्यक्ष भूमिका निभाने के बजाए पर्दे के पीछे से इन्हें निदेशित कर सफेदपोश बने रहते हैं। राजनीतिक दल वोटों की खातिर व अपने घृणित स्वार्थों के लिए जनता को जाति-धर्म-क्षेत्र के नाम पर लड़ाते रहते हैं।

मिथक- आरएसएस राष्ट्रभक्त व सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है।
यथार्थ- आरएसएस देशभक्त संगठन नहीं बल्कि फासिस्ट व आतंकी संगठन है। इससे जुडे़ संगठन व नेता साम्प्रदायिक व आतंकी घटनाओं में लिप्त पाये जाते रहे हैं। संघ प्रमुख का बयान कि ‘भारत में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं व हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है’ भाजपा नेता सुब्रहमण्यम द्वारा बयान ‘पूरे देश में हिन्दू व मुस्लिमों का डीएनए एक ही रहा है, इसका मलतब मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू थे। मुहम्मद गौरी को अपना पूर्वज मानने वाले देश छोड़कर जा सकते हैं’ व इनका नारा हिन्दी-हिंदू-हिन्दुस्तान, मुस्लिम-उर्दू-पाकिस्तान इनके फासीवादी मंसूबों को उजागर करता है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा हिंदू धर्मग्रंथ ‘गीता’ (जो वर्ण व्यवस्था सहित पुरातन मूल्यों को मान्यता देती है) की ग्लोबल ब्रांडिग करना अन्य धर्मों संस्कृतियों के प्रति इनके रुख को उजागर करती हैै।
आजादी के आंदोलन के दौरान जहां सभी देशभक्त लोगों व उनके संगठनों को अंग्रेज सरकार का दमन झेलना पड़ा, वहीं आरएसएस अंग्रेजों के सहयोग से अपना विस्तार करता रहा। इसके नेता लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के आंदोलन में भाग लेने के बजाए संघ का प्रचारक बनने की सलाह देते थे। अटल बिहारी बाजपेयी तो ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जेल जाने पर माफीनामा लिखकर बाहर आये तथा उनकी शिनाख्त पर दो लोगों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार भी किया (जिसके रिकार्ड मौजूद है।) आजादी के बाद इसके नेताओं ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का विरोध कर केसरिया ध्वज की वकालत की थी।
आरएसएस की देश भक्ति व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद; उसका हिन्दू राष्ट्र है। इसका अखंड भारत (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वर्मा) का सपना विस्तारवाद की चाशनी में लिपटा हुआ है। यह मध्ययुगीन मूल्य-मान्यताओं वर्ण व्यवस्था व महिलाओं की गुलामी का समर्थक है। राष्ट्रवाद व धर्म संस्कृति की रक्षा के नारों की आड़ में यह मेहनतकशों की एकता को कमजोर कर व उन्हें आपस में बांटकर शासक वर्गों की ही सेवा करता है। आजादी के दौरान; जहां यह हिन्दू-मुस्लिमों को आपस में बांटकर ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना के लक्ष्य के साथ अंग्रेजों का साथ दे रहा था; वहीं आज यह मेहनतकशों की वर्गीय एकजुटता को कमजोर कर पूंजीपति वर्ग की सेवा कर रहा है। स्वदेशी का राग अलापते-अलापते आज यह पूंजीपति वर्ग की पक्षधर निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का प्रबल समर्थक है। पंूजीपति वर्ग के सहयोग से ही इससे जुड़ी पार्टी (भाजपा) के केन्द्र में सत्तारूढ़ होते ही इसे अपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ के सपने को साकार करने का मौका नजर आ रहा है और यह ज्यादा आक्रामक होकर पेश आ रही है।

मिथक- ‘सर्व धर्म सद्भाव’ आपसी भाईचारे व कठोर कानून इत्यादि के जरिये साम्प्रदायिकता को खत्म किया जा सकता है।
यथार्थ- साम्प्रदायिकता के हल के लिए सुझाये जाने वाले यह उपाय सिर्फ छलावा भर है। नुस्खों के जरिये साम्प्रदायिकता की विषवेल को खत्म नहीं किया जा सकता है।‘सर्व धर्म सद्भाव’ का खोखलापन इसकी लाख दुहाइयां देने के बावजूद उजागर हो जाता है। सभी धर्म अपने अनुयायियों से पूर्ण समर्पण व निष्ठा की मांग करते हैं तथा अपनी-अपनी मूल्य-मान्यताओं व प्रथाओं को सत्य होने का दावा करते हैं। कोई भी धर्म अपने अनुयाइयों को दूसरे धर्म की मूल्य मान्यताओं को अपनाने की इजाजत नहीं देता है। ऐसे में धर्मों के बीच सद्भाव की बातें करना भलमनसाहत के सिवा कुछ भी नहीं है। जब तक समाज में धर्म की दीवारें मौजूद रहेंगी। सामाजिक जीवन में उसका इस्तेमाल व धार्मिक आयोजन होते रहेंगे आपसी भाइचारे की बातें करना बेइमानी होगी। धार्मिक आयोजनों के दौरान फूल बरसाकर या गले मिलकर ही आपसी भाईचारा कायम नहीं हो सकता। आपसी भाईचारे के लिए जरूरी है कि धर्म को व्यक्ति का निजी मामला बनाकर सामाजिक जीवन में उसके इस्तेमाल व आयोजनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाये।
साम्प्रदायिकता की समस्या को कठोर कानून के जरिये भी हल नहीं किया जा सकता है। क्योंकि कानून भी व्यक्ति की आर्थिक-सामाजिक हैसियत के अनुरूप काम करता है। ऐसे असली गुनहगार व सूत्रधार जो अपनी पहुंच, पैसे व प्रतिष्ठा का इस्तेमाल कर पाक-साफ बने रहते हैं। जबकि इनके बहकावे में आकर घटनाओं को अंजाम देने वाले निचले तबके के कुछ लोग ही कानून की गिरफ्त में आते हैं।
जैसे कि विदित है, साम्प्रदायिकता एक आधुनिक परिघटना है। जो पूंजीवादी समाजों में जन्म लेती है। और पूंजीपति वर्ग के हित में काम करती है। पूंजीवादी लूट-शोषण से त्रस्त्र गरीब-मेहनतकश जनता कहीं इस व्यवस्था के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष खडे़ न कर दे, इसको रोकने के लिए पूंजीपति वर्ग साम्प्रदायिक संगठनों को पालता-पोसता है तथा इनके जरिये मेहनतकश जनता को धर्म-जाति-समुदाय-क्षेत्र आदि के नाम पर आपस में ही लड़वाता रहता है। ताकि गरीब-मेहनतकश, वर्गीय आधार पर एकजुट ना हो सकें।साम्प्रदायिकता का हल; पूंजीपति वर्ग का दुश्मन; मजदूर वर्ग ही कर सकता है। इसका मुकाबला सभी जाति-धर्मों के मेहनतकशों की फौलादी वर्गीय एकजुटता के दम पर ही किया जा सकता है। इस समस्या का खात्मा इसके जनक पूंजीवादी व्यवस्था के खात्में के जरिये ही किया जा सकता है। समाज में मेहनतकश समुदाय जितना वर्गीय आधार पर एकजुट होता जायेगा। साम्प्रदायिक ताकतों को अलगाव में डालना उतना ही संभव होता जायेगा। इसके लिए हमें साम्प्रदायिक संगठनों की असलियत जनता के सामने उजागर करने की जरूरत है। साम्प्रदायिक ताकतों से मुकाबले के लिए सभी जनपक्षधर प्रगतिशील लोगों को एकजुट कर स्थानीय स्तर पर ‘साम्प्रदायिकता विरोधी कमेटियां’ बनाने की जरूरत है। अंततः इस लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था की जगह मजदूर राज समाजवाद के लिए संघर्ष को पूरी शिद्दत से आगे बढ़ाने की जरूरत है। 

1 टिप्पणी:

  1. आपका आलेख अच्‍छा है इस मसले पर मेरी एक पुस्‍तक पांच साल पहले आई थी ''क्‍या मुसलमान ऐसे ही होते हैं'' इसकी भूमिका प्रो विपिन चंद्रा ने लखिी थी, पुस्‍तक को शिल्‍पायान ने छापा है

    जवाब देंहटाएं