सिद्धू-कानू ने फूंका था अंग्रेजों के खिलाफ पहला बिगुल
‘करो या मरो, अंग्रेजो हमारी माटी छोडो!’ - राजेन्द्र
वैसे तो स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई 1857 में मानी जाती है मगर इसके पहले ही वर्तमान के झारखंड राज्य के संथाल परगना में ‘संथाल हूल’ या ‘संथाल विद्रोह’ के द्वारा अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। दो भाइयों सिद्धू-कानू के नेतृत्व में 30 जून 1855 को वर्तमान साहेबगंज जिले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की - ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो’।
इतिहासकारों के मुताबिक, संथाल परगना के वनवासी लोग प्रारंभ से ही स्वभाव से सरल व धर्म और प्रकृति के प्रेमी थे। जमींदारों और बाद में अंग्रेजों ने इसका खूब लाभ उठाया। इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी। इसके बाद न केवल यहां के लोगों का शोषण होने लगा, बल्कि उन्हें मालगुजारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहां के लोगों में विद्रोह पनप रहा था।
‘‘यह विद्रोह भले ही ‘संथाल हूल’ हो परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेजों एवं उनके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। इस जन आंदोलन के नायक चार भाई सिद्धू, कानू, चांद, भैरव और दो जुड़वा बहनें फूलो और झानो थे।“ - इतिहासकार बी.पी. केशरी
वे कहते हैं कि इन चारों भाइयों ने लगातार लोगों के भीतर पनप रहे असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा (देवता) जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, ने बताया है कि ‘जुमींदार, महाजोन, पुलिस आरराजरेन अमलो को गुजुकमा’ (जमींदार, पुलिस, राज के अमले और सूदखोरों का नाश हो)।
वे लोग (संथाल) बोंगा की ही पूजा-अर्चना करते थे। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर तथा गांवों-गांवों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल की टहनी को लेकर गांव-गांव यात्रा की।
क्या है हूल दिवस- अंग्रेजों के शोषण व महाजनों के अत्याचार से तंग आकर सिद्धू-कानू के नेतृत्व में 30 जून, 1855 को लोगों ने तत्कालीन अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह (हूल) किया था। इसमें संथाल परगना के दुमका, देवघर, गोड्डा, पाकुड़ पश्चिम बंगाल, भागलपुर समेत अन्य क्षेत्रों के 60 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे।
संथाल विद्रोह (जिसे सोंथाल विद्रोह या संथाल हूल के नाम से भी जाना जाता है) ईस्ट इंडिया कंपनी और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ वर्तमान झारखंड और पश्चिम बंगाल में एक विद्रोह था। इसकी शुरुआत 30 जून, 1855 को हुई और 10 नवंबर, 1855 को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा मार्शल लॉ की घोषणा की गई जो 3 जनवरी, 1856 तक चला। जब मार्शल लॉ को निलंबित कर दिया गया और विद्रोह को अंततः सेना द्वारा दबा दिया गया। विद्रोह का नेतृत्व चार भाई - सिद्धू, कानू, चांद और भैरव व दो बहनों- फूलो व झानो ने किया था।
आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शस्त्रों से लैस होकर 400 गांवों के लोग भगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा की गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेजों ने इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहां भेजा गया था संथालियों ने उसकी गर्दन काट दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय व्याप्त हो गया था।
दो संथाल विद्रोही नेताओं, सिद्धू और कानू मुर्मू ने लगभग 60,000 संथालों को संगठित किया और कंपनी शासन के खिलाफ विद्रोह की घोषणा की। विद्रोह के दौरान समानांतर सरकार चलाने के लिए सिद्धू मुर्मू ने लगभग दस हजार संथालों को जमा कर लिया था। उनका मूल उद्देश्य अपने स्वयं के कानून बनाकर और उनको लागू करके टैक्स (कर) एकत्र करना था।
घोषणा के तुरंत बाद संथालों ने हथियार उठा लिये। कई गांवों में जमींदारों, साहूकारों और उनके गुर्गों को मार डाला गया। खुले विद्रोह ने कंपनी प्रशासन को आश्चर्यचकित कर दिया। प्रारंभ में विद्रोहियों को दबाने के लिए एक छोटी टुकड़ी भेजी गई थी लेकिन वे असफल रहे और इससे विद्रोह की भावना और भड़क गई। जब कानून और व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो रही थी तो कंपनी प्रशासन ने अंततः एक बड़ा कदम उठाया और विद्रोह को दबाने के लिए स्थानीय जमींदारों और मुर्शिदाबाद के नवाब की सहायता से बड़ी संख्या में सैनिकों को भेजा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिद्धू और उनके भाई कानू मुर्मू को गिरफ्तार करने के लिए 10,000 रु. का इनाम घोषित किया।
भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी और जमकर गिरफ्तारियां कीं। विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गई। बहराइच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स आफ रूलर बंगाल’ में लिखा है कि संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।
विद्रोह की पृष्ठभूमि- संथालों का विद्रोह भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की राजस्व प्रणाली, सूदखोरी प्रथाओं और जमींदारी प्रणाली को समाप्त करने की प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुआ; उस आदिवासी क्षेत्र में जिसे उस समय ‘बंगाल प्रेसीडेंसी’ के नाम से जाना जाता था। यह स्थानीय जमींदारों, पुलिस और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (ईआईसी) द्वारा लागू विकृत राजस्व प्रणाली के जरिये हो रहे औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह था।
संथाल लोगों के आगमन से पहले संथाल परगना क्षेत्र (दामिन-ए-कोह क्षेत्र) को ‘‘यूरोपीय लोगों द्वारा अज्ञात देश“ के रूप में लेबल किया गया है ( जेम्स रेनेल द्वारा 1776 का नक्शा )।
संथाल सुवर्णरेखा नदी के किनारे हजारीबाग से मेदिनीपुर तक फैले क्षेत्र में रहते थे और वे कृषि पर निर्भर थे। ये क्षेत्र 1770 के बंगाल अकाल से बहुत प्रभावित हुए थे। 1832 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने वर्तमान झारखंड में दामिन-ए-कोह क्षेत्र का सीमांकन किया और राजमहल पहाड़ियों की पहले से मौजूद पहाड़िया जनजाति को जंगलों को साफ़ करने और कृषि करने के लिए प्रोत्साहित किया। हालाँकि, पहाड़िया जनजाति ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, जिसके कारण कंपनी ने संथालों को इस क्षेत्र में बसने के लिए आमंत्रित किया। भूमि और आर्थिक सुविधाओं के वादे के कारण बड़ी संख्या में संथाल धालभूम, मानभूम, हजारीबाग, मिदनापुर और आसपास के अन्य क्षेत्रों से आकर बस गए। जल्द ही 1830 और 1850 के बीच उनकी आबादी 3,000 से बढ़कर 83,000 हो गई। किसानों की संख्या में इस वृद्धि के परिणामस्वरूप क्षेत्र से कंपनी के राजस्व में 22 गुना वृद्धि हुई। इसके बाद महाजन और जमींदार, साहूकार, कर संग्रहकर्ता और ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियोजित मध्यस्थों के रूप में कार्य करते हुए स्थानीय अर्थव्यवस्था, शासन और प्रशासन पर हावी हो गए। कई संथाल भ्रष्ट धन उधार प्रथाओं के शिकार बन गए। उन्हें अत्यधिक दरों पर पैसा उधार दिया गया था। जब वे कर्ज़ चुकाने में असमर्थ हो गए तो उनकी जमीनें जबरन ले ली गईं और उन्हें बंधुआ मज़दूरी के लिए मजबूर किया गया। इसने संथालों को बिचौलियों के खिलाफ लामबंद होने के लिए प्रेरित किया, जिससे अंततः कंपनी शासन के खिलाफ विद्रोह हुआ और स्वशासन की स्थापना हुई।
इसके बाद कई झड़पें हुईं जिसके परिणामस्वरूप संथाल सेनाएं बड़ी संख्या में हताहत हुईं। संथालों के आदिम हथियार ईआईसी सेना के बारूदी हथियारों की बराबरी करने में असमर्थ साबित हुए। 7वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट, 40वीं नेटिव इन्फैंट्री और अन्य से सैन्य टुकड़ियों को कार्रवाई में बुलाया गया। जुलाई 1855 से जनवरी 1856 तक कहलगांव, सूरी, रघुनाथपुर और मुनकटोरा जैसी जगहों पर बड़ी झड़पें हुईं।
युद्ध में सिद्धू और कानू के मारे जाने के बाद अंततः विद्रोह दबा दिया गया। विद्रोह के दौरान संथाल झोपड़ियों को ध्वस्त करने के लिए मुर्शिदाबाद के नवाब द्वारा आपूर्ति किए गए युद्ध हाथियों का उपयोग किया गया था। इस घटना में 15,000 से अधिक लोग मारे गए, दसियों गाँव नष्ट हो गए और विद्रोह के दौरान कई लोग विस्थापित हो गए।
विद्रोह के दौरान संथाल नेता लगभग 60,000 संथालों को समूह बनाकर संगठित करने में सफल रहे, जिसमें 1500 से 2000 लोग एक समूह बनाते थे। विद्रोह को गरीब आदिवासियों और गैर-आदिवासियों जैसे गोवाला और लोहार (जो दूधवाले और लोहार थे) ने जानकारी और हथियार प्रदान करने के रूप में समर्थन दिया है।
जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हजार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कानू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई।
आज के दौर मंे सिद्धू-कानू की नवीं पीढ़ी है जो दो जून की रोटी के लिए भी तरस रही है। इनके परिजनों को सरकार द्वारा एक ट्रैक्टर दिया गया परंतु रोटी के जुगाड़ में उसे ही बेच दिया गया और सिद्धू के परिजन उसी ट्रैक्टर पर चालक की नौकरी कर रहे हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें