रूसी साम्राज्यवादियों का यूक्रेन पर हमला
लम्बे समय तक युद्ध का माहौल बनाने के बाद अंततः 24 फरवरी को रूसी साम्राज्यवादियों ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया। रूसी टैंक व बमवर्षक विमान यूक्रेन को रौंदने में जुट गये। इससे तीन दिन पूर्व 21 फरवरी को रूस ने पूर्वी यूक्रेन के अलगाववादियों के नियंत्रण वाले दोनेत्स व लुशांक जन गणराज्यों को स्वतंत्र देश की मान्यता दे अपनी फौजें वहां घुसेड़ दी थी। इस हमले के साथ ही रूसी व अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों की प्रभाव क्षेत्र कायम करने की होड़ का नया शिकार यूक्रेन बन गया। वैसे बीते 3 दशक से ही साम्राज्यवादियों की यह होड़ यूक्रेन को तबाह-बर्बाद कर रही थी।
अमेरिकी व यूरोपीय-जापानी साम्राज्यवादी व उनके द्वारा समर्थित मीडिया यूक्रेन पर रूसी हमले के लिए एकतरफा तौर पर रूस को जिम्मेदार ठहराने में जुट गया। रूस को रोकने के नाम पर तमाम आर्थिक प्रतिबन्ध थोप दिये गये। पश्चिमी मीडिया इस सच्चाई पर पर्दा डालने में जुट गया कि बीते 3 दशकों में पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने पूर्व सोवियत संघ के देशों को कैसे एक से बढ़कर एक षड्यंत्र रच अपने पाले में लाने की कोशिशें की। कि उन्होंने कैसे अपने सैन्य गठबंधन नाटो का विस्तार रूस की सीमा तक कर रूसी साम्राज्यवादियों को मजबूर कर दिया कि या तो वे पश्चिमी साम्राज्यवादियों के आगे आत्मसमर्पण कर दें या फिर अपने खोये हुए क्षेत्र वापस पाने के लिए होड़ में उतरें। रूस का यूक्रेन पर मौजूदा हमला रूसी साम्राज्यवादियों की अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने व अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों की रूस की ऐन सीमा तक अपना प्रभाव क्षेत्र कायम करने की रस्साकशी का परिणाम है। यूक्रेन की मौजूदा तबाही-बर्बादी के लिए दोनों साम्राज्यवादी जिम्मेदार हैं।
90 के दशक में सोवियत संघ के विघटन से पूर्व यूक्रेन सोवियत संघ का हिस्सा था। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात दुनिया में एक समाजवादी खेमा अस्तित्व में आ चुका था। सोवियत संघ इस खेमे का नेता था। समाजवाद के तहत जनता का बेहतर जीवन तमाम देशों की जनता को समाजवाद की राह पर बढ़ने को प्रेरित कर रहा था। साथ ही यह अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादी शासकों की आंखों में खतरे के बतौर चुभ भी रहा था। ऐसे में समाजवाद को ध्वस्त करने व साम्राज्यवादी प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने 1949 में नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन (नाटो) के नाम से एक सैन्य गठबंधन कायम किया। इसके प्रत्युत्तर में सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी देशों ने वारसा पैक्ट अपनी रक्षार्थ कायम किया। 1956 में सोवियत संघ में समाजवाद का अन्त व पूंजीवादी पुनर्स्थापना हो गयी व बाद में सोवियत संघ एक सामाजिक साम्राज्यवादी देश में तब्दील हो गया। अब वारसा पैक्ट के देश सोवियत साम्राज्यवादियों के प्रभाव क्षेत्र वाले देश बन गये। समूचे शीत युद्ध के काल में दुनिया दो महाशक्तियों अमेरिका व सोवियत संघ की प्रभाव क्षेत्र कायम करने की होड़ की गवाह बनी। दुनिया के हर विवाद में ये महाशक्तियां परस्पर विरोध में सक्रिय रहीं। 80 के दशक में सोवियत साम्राज्यवादी आंतरिक अंतरविरोधों के चलते कमजोर पड़ने लगे और 91 में सोवियत संघ का विघटन हो गया व यूक्रेन समेत कई गणराज्य स्वतंत्र देश बन गये। सोवियत संघ के कमजोर पड़ने के साथ ही वारसा पैक्ट भी कमजोर पड़ता गया। 1990 में जर्मनी वारसा पैक्ट से बाहर आ गया व उसका पश्चिमी जर्मनी से एकीकरण हो गया। तब पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने सोवियत संघ से वायदा किया था कि वे नाटो का आगे विस्तार नहीं करेंगे। 1991 में वारसा पैक्ट औपचारिक तौर पर समाप्त घोषित कर दिया गया।
91 में सोवियत संघ के विघटन के समय रूसी साम्राज्यवादी आर्थिक तौर पर बेहद बुरी दशा में थे। वे इस हालत में नहीं थे कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादियों का पहले की तरह मुकाबला कर सकें। अमेरिकी साम्राज्यवादी इस परिस्थिति के चलते तात्कालिक तौर पर मजबूत व आक्रामक हो उठे। अब उसे सीधी चुनौती देने वाली कोई ताकत सामने नहीं थी। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर उसने सोवियत संघ के मुक्त हुए देशों को अपने पाले में लाने, अपनी चहेती सरकार वहां बैठाने की कार्यवाही शुरू की। इसके साथ ही इन देशों को अपने पाले में लाने के लिए नाटो का लगातार विस्तार किया गया। 90 में सोवियत संघ से किये इस वायदे कि नाटो का आगे विस्तार नहीं किया जायेगा को भुला दिया गया। 1999 में चेक गणराज्य, हंगरी, पोलैण्ड, 2004 में बुल्गारिया, एस्टोनिया, लाटविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवेकिया, स्लोवेनिय, 2009 में अल्बानिया, क्रोएशिया 2017 में मोंटेनिग्रो, 2020 में उत्तरी मैकेडोनिया इसमें शामिल कर लिये गये। बोस्निया-हर्जेगोविना, जार्जिया व यूक्रेन इसके इच्छुक सदस्य हैं। इस तरह नाटो लगभग रूस की सीमा तक पैर फैला चुका है।
1991 में यूक्रेन के अलग देश बनने के कुछ समय बाद तक उसके रूस के साथ बेहतर सम्बन्ध बने रहे। 1993 में रूसी व यूक्रेनी गैस कम्पनियों के बीच विवाद शुरू हुआ। 2004 में अमेरिकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में गुलाबी क्रांति कराने में सफल रहे और विक्टर यूशेंको नामक यूरोपीय यूनियन समर्थक यूक्रेन का राष्ट्रपति बन गया। उसने यूरोपीय यूनियन व नाटो से सम्बन्ध बढ़ाने शुरू किये पर 2010 में विक्टर यानुकोविच जो रूस समर्थक थे यूक्रेन के राष्ट्रपति बन गये और उन्होंने यूरोपीय संघ व नाटो से दूरी बना ली। 2014 में पुनः अमेरिकी साम्राज्यवादी विक्टर यानुकोविच का तख्तापलट कराने व अपनी समर्थक सरकार बनाने में सफल हो गये। इस तख्तापलट हेतु नाजी तत्वों को भी अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने पाला पोसा। बाद में ये नाजी तत्व यूक्रेनी सेना में समाहित हो गये। 2014 के बाद से ही यूक्रेन में अमेरिका समर्थित सरकार रही है।
90 के दशक में कमजोर पड़े रहने के बाद 2000 के दशक का मध्य आते-आते रूसी साम्राज्यवादी फिर उठ खड़े हुए और पश्चिमी साम्राज्यवादियों व नाटो के प्रसार का विरोध करने लगे। 2014 के तख्तापलट के बाद इन्होंने यूक्रेन के रूसी बहुसंख्यक क्षेत्र क्रीमिया पर कब्जा कर उसे अपने में मिला लिया। साथ ही रूस समर्थित अलगाववादियों ने यूक्रेन के दोनेत्स व लुशांक गणराज्यों पर नियंत्रण कायम कर लिया। 2014 के बाद से यूक्रेन व रूस के शासकों का टकराव कभी धीमी तो कभी तीव्र गति से जारी रहा। इस दौरान फ्रांस व जर्मनी की मध्यस्थता में रूस व यूक्रेन के बीच मिंस्क समझौता 2014 व 2015 में हुआ। इसके तहत दोनबास व लुशांक क्षेत्र को स्वायत्तता मिलने, रूसी हस्तक्षेप बंद होने आदि के प्रावधान किये गये। यह समझौता कभी पूरी तरह व्यवहार में नहीं उतरा व दोनों पक्ष एक-दूसरे पर समझौता तोड़ने का आरोप लगाते रहे।
रूसी साम्राज्यवादी यह नहीं चाहते रहे हैं कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो जाये और नाटो की फौजें उसकी सीमा तक आ पहुंचे। यह स्थिति रूसी साम्राज्यवादियों को हमेशा के लिए अमेरिकी हमले के खतरे में डाल देती। इसीलिए रूसी राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन पर लगातार इस बात का दबाव डालते रहे कि वो नाटो में शामिल न होने का वायदा करे। रूसी साम्राज्यवादी पूर्व सोवियत संघ के देशों का एक बफर जोन (जो किसी पाले में न हो) कायम कर पश्चिमी साम्राज्यवादियों से अपनी सुरक्षा चाहते रहे हैं। यूक्रेन के अमेरिका परस्त शासक अमेरिकी उकसावे में रूस की सुनने को तैयार नहीं थे। अंततः कुछ माह पूर्व यूक्रेन की सीमाओं पर लगभग 1 लाख सैनिक तैनात कर रूस ने यूक्रेन पर सामरिक दबाव बनाना शुरू किया इस दौरान पुतिन-बाइडेन के बीच सीधी वार्ता से समझौते के प्रयास विफल हुए। फ्रांस व जर्मनी द्वारा किये जा रहे प्रयासों से भी जब बात नहीं बनी तो 21 फरवरी को रूस ने मिंस्क समझौते को रद्द घोषित करते हुए दोनेत्स व लुशांक गणराज्यों को स्वतंत्र देश के बतौर मान्यदा दे दी व 24 फरवरी को यूक्रेन पर हमला बोल दिया।
यूक्रेन बीते 3 दशकों में साम्राज्यवादी होड़ का शिकार होने के चलते खस्ता अर्थव्यवस्था का शिकार हो चुका है। उसकी अर्थव्यवस्था 1990 के पूर्व की स्थिति में कभी पहुंच हीे नहीं पायी। 1990-2017 के बीच उसकी स्थिति न केवल अपने सभी यूरोपीय पड़ोसियों से बुरी थी बल्कि पूरी दुनिया में पांच सबसे बुरे प्रदर्शन वाले देशों में से एक थी। उसकी स्थिति कांगो, यमन सरीखी थी। 2014 के ऋण व मुद्रा संकट ने उसकी हालत और खस्ता कर दी। वह रूस का ऋण चुकाने की स्थिति में नहीं था। उसे मजबूरन तख्तापलट के बाद अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण लेना पड़ा व बदले में कटौती कार्यक्रमों को लागू करना था। 2014 में सामाजिक मदों में सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत था जो 2022 में 13 प्रतिशत रह गया। इस पूरे काल में भारी मुद्रास्फीति के बावजूद लोगों के वेतन में न के बराबर वृद्धि की गयी। इसके अलावा उस पर अपने सरकारी संस्थानों के निजीकरण के साथ भूमि के मुक्त क्रय-विक्रय शुरू करने का दबाव साम्राज्यवादी डाल रहे हैं। यहां भ्रष्टाचार का बड़े पैमाने पर बोलबाला है। यूरोपीय साम्राज्यवादी इसका बड़े पैमाने पर दोहन करते रहे हैं। अमीरी-गरीबी की खाई, बेरोजगारी, महंगाई यहां काफी ऊंचे स्तर पर है।
अर्थव्यवस्था की ये गिरती हालत यहां फासीवादी-अंधराष्ट्रवादी विचारों के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करती रही है। 2014 के तख्तापलट में ये तत्व मुख्य रूप से सक्रिय थे। अभी भी जब रूसी फौजें राजधानी कीएव को घेर चुकी हैं तब भी इसके राष्ट्रपति अंधराष्ट्रवादी उन्माद भड़काने में पीछे नहीं हैं। वे समूची जनता को युद्ध में झोंकने का इंतजाम कर रहे हैं। दरअसल इस युद्ध के जरिए रूसी व यूक्रेनी शासक अपने आंतरिक संकट का भी हल देख रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादी अपनी खस्ताहाल जनता के गुस्से की दिशा मोड़ना चाहते हैं तो यूक्रेनी शासक भी इस गुस्से को राष्ट्रवादी उन्माद से ठण्डा करना चाहते हैं।
यूक्रेन के मौजूदा संकट के लिए रूसी-पश्चिमी साम्राज्यवादियों के साथ वहां का शासक पूंजीपति वर्ग भी बराबर के दोषी हैं। अपने मुनाफे के लिए वो अमेरिकी-यूरोपीय शासकों के पाले की ओर ढुलके। पर विवादग्रस्त होेने के चलते व वैश्विक आर्थिक संकट के चलते यहां विदेशी निवेश काफी कम हुआ। रही सही कसर आई एम एफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) के कर्जों व कटौती कार्यक्रम ने पूरी कर दी। यूरोपीय संघ में शामिल होने की उसकी इच्छा को जर्मन शासक पूरा करने को तैयार नहीं हैं। पश्चिमी शह पर इसके शासक रूसी साम्राज्यवादियों के सामने सीना ताने खड़े रहे पर जब युद्ध शुरू हुआ तो इसने पाया कि पश्चिमी साम्राज्यवादी उसे बचाने को तैयार नहीं हैं। इस तरह यूक्रेनी शासकों ने यूक्रेनी जनता को साम्राज्यवादी कलह व जंग में चारा बनने की ओर धकेल दिया।
रूस के साथ मौजूदा टकराव के मसले पर अमेरिकी-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों व फ्रांसीसी-जर्मन साम्राज्यवादियों के हित एक से नहीं हैं। यद्यपि ये सभी रूस विरोधी पाले में खड़े हैं पर फ्रांस-जर्मनी गैस जरूरतों के लिए रूस पर निर्भर हैं इसलिए वे एक हद से ज्यादा टकराव को तैयार नहीं हैं। जबकि अमेरिकी-ब्रिटिश साम्राज्यवादी इस युद्ध को अपने प्रभाव के विस्तार व रूस को झुकाने का जरिया बनाना चाहते हैं।
रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला रूसी साम्राज्यवादियों को अपना प्रभाव क्षेत्र विस्तारित करने की लालसा का परिणाम है। यूक्रेन बीते 2-3 दशकों में इराक, सीरिया, लीबिया, यमन, अफगानिस्तान में अमेरिकी व पश्चिमी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की कड़ी का ही अगला शिकार देश है फर्क बस इतना है कि हमलावर इस बार रूसी साम्राज्यवादी हैं।
एक जमाने में साम्राज्यवादी ताकतें गरीब मुल्कों पर सीधे नियंत्रण कर उन्हें अपना उपनिवेश या पूरी तरह गुलाम बना लेती थी। बाद में दुनिया की जनता के संघर्षों, समाजवाद की प्रेरणा व राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के चलते साम्राज्यवाद को पीछे हटना पड़ा और आज वह पीछे हटते हुए केवल प्रभाव क्षेत्र कायम करने की ही स्थिति में रह गया है। इसके प्रभाव क्षेत्र वाले देश औपचारिक तौर पर स्वतंत्र होते हैं पर वे किसी साम्राज्यवादी ताकत के दबाव में चलने को विवश होते हैं।
कच्चे मालों, संसाधनों, बाजार के लिए लगातार होड़ व युद्ध साम्राज्यवादी दुनिया की आम विशेषता है। जब तक दुनिया में साम्राज्यवाद है तब तक युद्धों से नहीं बचा जा सकता है। ये युद्ध साम्राज्यवादियों के बीच टकराव तीखा होने पर विश्व युद्ध तक भी जा सकते हैं। हालांकि अभी यूक्रेन संकट के विश्व युद्ध तक पहुंचने की संभावनाएं क्षीण ही हैं। ऐसे में साम्राज्यवाद द्वारा दुनियाभर में छेड़े गये अन्यायपूर्ण युद्धों को मजदूर-मेहनतकश जनता द्वारा साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शासकों के खिलाफ छेड़े गये न्यायपूर्ण युद्धों-बगावतों-क्रांतियों से ही रोका जा सकता है। दुनिया के स्तर पर साम्राज्यवादी-पूंजीवादी दुनिया के खात्मे व समाजवादी राज्य की स्थापना से ही स्थायी शांति कायम हो सकती है।
रूस के यूक्रेन पर हमले के खिलाफ दुनिया की शांति प्रिय जनता जगह-जगह सड़कों पर उतरी। इसमें रूसी जनता अग्रणी रही। भारी गिरफ्तारियों के बावजूद उसके प्रदर्शन जारी हैं। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं था जहां युद्ध विरोधी प्रदर्शन न हुए हों। इन प्रदर्शनों में पश्चिमी साम्राज्यवाद समर्थित प्रदर्शन भी थे जो रूस के खिलाफ अपने शासकों से फौज उतारने व युद्ध को और व्यापक बनाने की मांग कर रहे थे। पर साथ ही इन प्रदर्शनों में ‘नो टू नाटो नो टू रसिया’, ‘नो टू बाइडेन नो टू पुतिन’ के नारे लगाने वाली जनता भी थी जो दोनों साम्राज्यवादियों को इस हमले का दोषी मान उनका विरोध कर रही थी। जनता को इस समझ पर खड़ा होना होगा कि महज शांति के आह्वानों से साम्राज्यवाद के हिंसक-रक्तपिपासु चरित्र को नहीं बदला जा सकता। जरूरत दोनों तरीके के साम्राज्यवादियों (रूसी-पश्चिमी साम्राज्यवादियों) के साथ, अपने-अपने लुटेरे शासकों के खिलाफ एकजुट होने की है। समाजवादी क्रांति की है। इसी समाजवादी क्रांति का ख्वाब हमारे देश के शहीदे आजम भगत सिंह ने देखा था।
इस युद्ध का खामियाजा पूरी दुनिया की जनता को भुगतना पड़ेगा। युद्ध के चलते पेट्रोलियम क्रूड तेल के दामों में भारी बढ़ोत्तरी का अनुमान लगाया जा रहा है जो अपनी बारी में बाकी चीजों की महंगाई भी पैदा करेगा। इसी के साथ रूस पर लादे प्रतिबंधों के चलते अलग-अलग देशों को अलग-अलग चीजों की किल्लत झेलनी पड़ेगी वहीं रूस की जनता को इन प्रतिबंधों का बोझ उठाना पड़ेगा।
बात अगर भारतीय शासकों की करें तो रूस के यूक्रेन पर हमले के मुद्दे पर उन्होंने अपने स्वार्थों के मद्देनजर अवस्थिति ग्रहण की। संयुक्त राष्ट्र में रूस की निन्दा के प्रस्ताव पर उन्होंने दो बार तटस्थ रुख अपनाया। भारतीय शासक रूस से अतीत में मिलते रहे समर्थन को खोना नहीं चाहते। रूसी वीटो से ही कश्मीर के मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने से भारतीय शासक रोक पाये हैं। हालांकि बीते 2-3 दशकों में भारतीय पूंजीवादी शासकों की अमेरिका परस्ती काफी बढ़ी है पर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अमेरिकी साम्राज्यवादी इनके साथ कभी खड़े नहीं हुए। ऐसे में रूस से सम्बन्ध न बिगाड़ने की अवस्थिति ले भारतीय शासक अपने हित साध रहे हैं। देश के भीतर तो संघी अंधभक्त मोदी से पुतिन के कदमों पर चलने की मांग करने लगे कि जैसे पुतिन यूक्रेन पर हमलावर हैं वैसे ही मोदी पाकिस्तान पर हमला बोल दें। भारतीय शासकों का यह रुख शर्मनाक है। भारतीय जनता को अपने शासकों पर दबाव डालना चाहिए कि वे रूस पर युद्ध बंद करने का, पश्चिमी साम्राज्यवादियों पर नाटो भंग करने का दबाव डालें, अन्यथा दोनों साम्राज्यवादियों से सम्बन्ध विच्छेद कर लें।
यूक्रेन की जनता आज युद्ध की विभीषिका झेलने को मजबूर है। तबाह अर्थव्यवस्था के बाद अब उसे टैंकों-बमों से कुचला जा रहा है। इस विभीषिका को यूक्रेन में रहने वाले भारतीय छात्र भी झेल रहे हैं। जिन्हें भारत लाने का अभियान भारत सरकार ने काफी देर से छेड़ा। अब ‘आपरेशन गंगा’ नामक इस अभियान के तहत मोदी सरकार खुद की इमेज चमकाने में जुटी है। सरकारी मंत्री वापस आये भारतीय छात्रों के साथ फोटो खिंचवाने में मशगूल हैं। एयर इंडिया की हाल में मालिक बनी टाटा कम्पनी तो किराया बढ़ा मुनाफा पीटने की भी फिराक में थी।
आज जब साम्राज्यवादियों की बढ़ती कलह का शिकार यूक्रेन को बनाया जा रहा है। जब इस जंग के फैलने, परमाणु युद्ध में बदलने की बातें हो रही हैं। तब दुनियाभर के युवा-छात्र इस जंग के खिलाफ, साम्राज्यवादियों के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं। भारत के छात्रों-युवाओं को भी यह समझना होगा कि साम्राज्यवाद के आर्थिक हमलों का वो भी सामना कर रहे हैं। भविष्य में हमारे मुल्क को भी युद्ध में ढकेला जा सकता है।
ऐसे में वक्त की जरूरत है कि साम्राज्यवादी-पूंजीवादी दुनिया को बदलने की जंग में जुटा जाये। ‘जंग नहीं रोजगार दो’, ‘जंग नहीं शिक्षा दो’, ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारों के साथ भारत के छात्र-युवा भी सड़कों पर उतर पड़ें।
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