मंगलवार, 8 नवंबर 2022

 पहले इंसान तो बन जाओ!

अक्सर यह सुनने को मिल जाता है- ‘पहले इंसान तो बन जाओ’। कोई ‘बड़ा’ आदमी बनना चाहता है, कोई खूब पैसे वाला बनना चाहता है, कोई इंकलाबी बनना चाहता है। इस तरह के व्यक्ति से नाखुश दूसरा उसे उपदेश देता है- ‘पहले इंसान तो बन जाओ’। इसी बात को एक औपन्यासिक पात्र इस रूप में कहता है- ‘भला यह इंसान, आदमी का काम है’।

इन सबमें एक बात अनकही है यानी उसे मान कर चला जाता है। कहने और सुनने वाले दोनों इस अनकही बात को जानते और मानते हैं। नहीं तो सुनने वाला पूछता- कौन सा इंसान? और तब ‘इंसान’ को परिभाषित करने का सवाल खड़ा हो जाता।

‘इंसान’ की जिस अनकही परिभाषा को सारे लोग मान कर चलते हैं वह दरअसल उस जमाने के ‘सभ्य’, ‘शरीफ’ व्यक्ति की परिभाषा होती है। और ‘सभ्यता’ और ‘शराफत’ तो जमाने के हिसाब से बदलते रहते हैं। इसीलिए ‘इंसान’ की परिभाषा भी बदलती रहती है। पर लोग इस साधारण सी सच्चाई पर ध्यान नहीं देते और इसीलिए उनके लिए ‘इंसान’ एक चीज बन जाती है जो सारे समाजों के सारे व्यक्तियों पर लागू होती है। ‘इंसान’ एक अमूर्त धारणा बन जाती है। ऐसे में यदि कोई पलट कर पूछे कि ‘कैसा इंसान’ या ‘कौन सा इंसान’ तो अचरज भरी स्थिति पैदा हो जाती है। तब बस यही जवाब सुनने को मिलेगा- इंसान यानी इंसान!

आम बोलचाल का यह ‘इंसान’ दार्शनिकों के लिए भारी बहस का विषय रहा है। क्या इंसान यानी मनुष्य की प्रकृति निश्चित है या बदलती रहती है? क्या इंसान की कोई प्रकृति है? इंसान की प्रकृति का उसके समाज से क्या संबंध है? क्या इंसान की प्रकृति जन्मजात है या बाद में बनती है? इंसान की प्रकृति का सामाजिक नैतिकता के साथ क्या संबंध है? इंसान बाकी जीवों से किस रूप में अलग है? इत्यादि।

जैसा कि अक्सर होता है, धर्मों ने इन जटिल सवालों का अपेक्षाकृत आसान उत्तर दिया। यहूदी, इसाई और इस्लाम तीनों एक ही परंपरा के धर्म हैं और तीनों ही इंसान की उत्पत्ति की एक ही कथा को मानते हैं। इनके अनुसार भगवान ने इंसान को अपनी ही छवि के अनुसार बनाया। यानी इंसान भगवान की तरह है और उसकी प्रकृति निश्चित है। बस वह शैतान के बहकावे में आकर पतित हो जाता है।

हिन्दू धर्म के अनुसार भी चूंकि संसार को भगवान (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ने बनाया इसलिए इंसान को भी उसी ने बनाया। वह भी भगवान की तरह ही है, बस उसके एक सिर व दो हाथ ही होते हैं। यहां भगवान इंसान के रूप में अवतार लेते हैं और इंसान तथा देवी-देवताओं के रूप में भांति-भांति के संबंध (लेन-देन, युद्ध, लैंगिक क्रिया, इत्यादि) चलते रहते हैं। हिन्दू धर्म में इंसान अपने बुरे कर्मों के कारण पतित होता है। वह अच्छे कर्म करता रहे तो ‘इंसान’ बना रहेगा।

जब यूरोप में पूंजीवाद का जन्म हुआ तो नये उभरते पूंजीपति वर्ग को पुराने शोषक और शासक सामंती वर्गों से हर स्तर पर टकराना पड़ा। वैचारिक स्तर पर इस टकराहट में पूंजीपति वर्ग को इस सवाल से जूझना पड़ा कि इंसान की प्रकृति क्या है? नया उभरता पूंजीपति वर्ग; जो समाज में हर स्तर पर हावी होना चाहता था; पुराने सामंती समाज को पतित मानता था। अब सवाल पैदा हुआ कि सामंती समाज पतित क्यों है? क्या लोग पतित हैं, इसलिए समाज पतित है या समाज पतित है, इसलिए लोग पतित हैं। यह अमूर्त बहस का सवाल नहीं था क्योंकि इसके जवाब से आगे की व्यवहारिक कार्रवाई तय होती थी।

तर्क-वितर्क कर पूंजीपति वर्ग इस नतीजे पर पहुंचा कि मनुष्य की एक निश्चित प्रकृति होती है और पूंजीवादी व्यवस्था इस प्रकृति के अनुरूप है। इसके विपरीत सामंती व्यवस्था इस प्रकृति के प्रतिकूल है, इसीलिए अतार्किक या गलत है तथा इसे समाप्त होना चाहिए। पूंजीपति वर्ग ने इस असुविधाजनक सवाल पर ज्यादा माथा नहीं खपाया कि यह अतार्किक या गलत सामंती व्यवस्था पैदा कैसे हो गई और इतने लम्बे समय तक चलती क्यों रही?

असल में पूंजीपति वर्ग भी अपने समाज और अपने समाज के इंसान के बारे में वैसे ही सोच रहा था जैसे पहले सामंती वर्ग अपने समाज और उसके इंसान के बारे में सोचते थे या कोई भी शासक वर्ग सोचता है। जैसा कि पहले कहा गया है यूरोप के इसाई सामंती शासक (राजा और पादरी) इंसान को भगवान के रूप में ढला मानते थे और सामंती व्यवस्था भगवान की इच्छा अनुरूप थी। राजा धरती पर भगवान का प्रतिनिधि था। बस पूंजीपति वर्ग ने इतना किया कि उसने मनुष्य की प्रकृति को धर्म के हिसाब से देखने के बदले प्रकृति के नियमों के हिसाब से देखना शुरू कर दिया। इस तरह उसने मनुष्य की प्रकृति को आम प्रकृति का हिस्सा बना दिया। लेकिन जैसे आम प्रकृति के नियम अपरिवर्तनीय थे, वैसे ही मनुष्य की प्रकृति भी अपरिवर्तनीय थी। पूंजीवादी व्यवस्था इसके बिलकुल अनुरूप थी। इंसानी समाज व्यवस्था ने अब अपना अंतिम रूप हासिल कर लिया था और इसे सदा-सर्वदा ऐसा ही रहना था। इसे बदलने का कोई भी प्रयास केवल भारी विपदा पैदा कर असफल होने के लिए अभिशप्त था। 

पूंजीपति वर्ग ने इंसानी समाज और इंसानी प्रकृति के बारे में ये विचार शुरू में अपने जमाने के प्राकृतिक विज्ञानों (भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान) के सिद्धान्तों से लिए। लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जीव विज्ञान के विकास से इंसान के बारे में वैज्ञानिक धारणा बदलने लगी। 1859 में डार्विन ने जैव विकास का अपना प्रसिद्ध सिद्धान्त पेश किया हालांकि तब वे मानव की उत्पत्ति के बारे में मौन रहे। बाद में उन्होंने 1871 में मानव उत्पत्ति के बारे में अपनी किताब प्रकाशित की (‘मानव का अवतरण’) जिसमें उन्होंने इंसान की उत्पत्ति को जैव विकास की उसी प्रक्रिया का विस्तार बताया जिसके तहत सारे जीव पैदा हुए थे।

इंसान की उत्पत्ति के इस सिद्धान्त से यह स्वाभाविक निष्कर्ष निकलना चाहिए था कि इंसान की प्रकृति अपरिवर्तनीय नहीं है। वह बदलती रहती है। यदि इंसान जैविक तौर पर निचले जीवों से लम्बे समय में क्रमशः विकसित हुआ है तथा उसके इस विकास में संस्कृति का भी योगदान है तो कोई कारण नहीं है कि यह मान लिया जाये कि विकसित होकर इंसान की एक प्रकृति निश्चित हो गई है। पर विज्ञान में ऐसा ही मान लिया गया और आज भी ज्यादातर ऐसा ही माना जाता है। बाद में जेनेटिक विज्ञान (जीव, इत्यादि) के विकसित होने पर इसे और भी जोर-शोर से स्थापित किया गया। कहने की बात नहीं कि पूंजीपति वर्ग विज्ञान की इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाता है। 

असल में, जैसा कि विज्ञान स्वयं दूसरे रूप में स्वीकार करता है, इंसान जैविक और सांस्कृतिक दोनों का सामूहिक उत्पाद है। यह बात समूची मानव प्रजाति के बारे में भी सच है, और एक अकेले व्यक्ति के बारे में भी। बीस-तीस लाख सालों में जो इंसान पैदा हुआ उसमें संस्कृति (मुख्यतः श्रम) का बड़ा योगदान था। इसके कारण ही इंसान बाकी जीवों से (स्तनधारियों से भी) इतना अलग हो गया। इतना अलग कि इसे भगवान का रूप मान लिया गया। श्रम (प्राकृतिक चीजों को अपनी शारीरिक- मानसिक क्षमता का इस्तेमाल कर अपनी जरूरत के हिसाब से ढालना) ने इंसान को इंसान बनाया।

इतना ही नहीं, एक अकेले इंसानी व्यक्ति का भी विकास जैविक और सांस्कृतिक दोनों होता है। इंसानी बच्चा पैदा होने पर निहायत अविकसित ही नहीं होता, वह स्तनधारी जानवरों के बहुत नजदीक होता है। बल्कि कुछ मायनों में तो उनसे भी नीचे। गाय-भैंस का बच्चा पैदा होते ही अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, चलने लगता है और स्वयं थन खोजकर दूध पीने लगता है। पर इंसानी बच्चे को ऐसा करने में साल भर से ज्यादा लग जाता है। पैदा होने के बाद इंसानी बच्चे का शारीरिक विकास ही नहीं होता, मानसिक विकास भी होता है (उसके दिमाग का आकार चार गुना बढ़ जाता है)। उसकी ज्ञानेन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ व त्वचा) और कर्मेन्द्रियां (मुंह, हाथ, पांव, लिंग व गुदा) विकसित होती हैं और काम करना सीखती हैं। अनुकूल माहौल न होने पर या बीमारी होने पर इनका विकास बाधित हो जाता है। विकसित होते बच्चे की सारी गतिविधियां ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के विकास के लिए होती हैं। आंख देखती है पर उसे देखना सीखने के लिए सालों लग जाते हैं। यही बात सब पर लागू होती है। इन्हीं के अनुरूप दिमागी संरचना का भी विकास होता है। विकसित होते बच्चे के दिमाग का आकार ही नहीं बढ़ता, बल्कि उसकी संरचना भी बदलती और विकसित होती है।

इस विकास में संस्कृति की अहम भूमिका है (यहां संस्कृति का व्यापक मतलब है यानी सारी सामाजिक चीजें)। ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्द्रियां कैसे काम में लायी जायेंगी और विकसित होंगी यह समाज की संस्कृति से तय होता है (गांव का बच्चा पेड़ों पर चढ़ना या तालाब-नदी में तैरना यूं ही सीख लेता है पर शहरी बच्चे के लिए यह विशेष चीज बन जाती है)। बड़ी बात यह है कि इस जैविक विकास के साथ संस्कृति अभिन्न रूप से जुड़ जाती है। इस संस्कृति में न केवल इंसानों के बीच संबंध आते हैं बल्कि उससे जुड़ी सही-गलत, अच्छे-बुरे की धारणा यानी संक्षेप में नैतिकता भी आ जाती है। इस तरह इंसान अपने समाज का उत्पाद बन जाता है। इसी को इस रूप में सूत्रित किया गया है कि इंसान अपने समाज के कुल सामाजिक संबंधों का योग होता है।

आजकल कम्प्यूटर के जमाने में इंसानी दिमाग की कम्प्यूटर से तुलना का खूब चलन है। आम तौर पर सरल रूप में दिमाग को समझने-समझाने के लिए यह बुरा नहीं है। पर दोनों में एक बुनियादी फर्क है। कम्प्यूटर में हार्डवेयर व साफ्टवेयर (और उसमें भी आपरेटिंग सिस्टम और ऐप्स) अलग-अलग हैं। पहले हार्डवेयर बनता है। फिर उसमें आपरेटिंग सिस्टम लोड किया जाता है। अंत में काम लेने के लिए ऐप्स डाले जाते हैं। लेकिन दिमाग में ये तीनों एक साथ ही विकसित होते हैं। उसमें हार्डवेयर को साफ्टवेयर से तथा आपरेटिंग सिस्टम (विन्डो, अन्ड्रायड, इत्यादि) को ऐप्स (वी एल सी मीडिया प्लेयर, गूगल, यू-ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर, इत्यादि) से अलग नहीं किया जा सकता है। भ्रूणावस्था से ही ये तीनों एक साथ विकसित होते हैं। इसीलिए वयस्क या अधेड़ हो जाने पर लोगों की सोच को बदलना इतना मुश्किल हो जाता है।

अब यदि इंसान अपने समाज के कुल सामाजिक संबंधों का योग मात्र है तथा इनसे अलग किसी इंसान का अस्तित्व नहीं हो सकता तो सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि इंसान की कोई निश्चित प्रकृति नहीं है (इसे छोड़कर कि वह श्रम करने वाला प्राणी है और अपने समाज के हिसाब से विकसित होगा व ढलेगा)। जैसा समाज होगा, वैसा ही इंसान होगा। इसीलिए कबीलाई समाज, गुलामी समाज, सामंती समाज, पूंजीवादी समाज तथा साम्यवादी समाज के इंसान अलग-अलग होंगे। इसीलिए इस बात का कोई मतलब नहीं निकलता कि ‘पहले इंसान तो बन जाओ’। क्योंकि तब यह सवाल सहज ही पैदा हो जाता है कि किस समाज का इंसान? सामंती इंसान या पूंजीवादी इंसान?

अब यहां से इंकलाबियों के लिए बड़ा सवाल पैदा हो जाता है कि यदि इंसान अपने समाज के उत्पाद होते हैं तो नये समाज को बनाने वाले कहां से आयेंगे? यह सवाल कभी पूंजीवादी विचारकों के सामने पैदा हुआ था जिसका स्पष्ट व सही जवाब वे नहीं दे पाये।

इस सवाल का जवाब यही है कि नये समाज का निर्माण करने वाले इंसान स्वयं इंकलाब की प्रक्रिया में ही पैदा होंगे। समाज की गति (अन्याय, अत्याचार, शोषण, संकट, इत्यादि) कुछ इंसानों में समाज बदलाव की जरूरत की चेतना पैदा करेगी। वे जब इस चेतना से बदलाव की प्रक्रिया में लगेंगे तो स्वयं को बदलेंगे। वे उतना ही बदलेंगे जितना इंकलाब आगे बढ़ेगा। जब ऐसे बदले हुए लोगों की संख्या काफी बढ़ जायेगी तथा बाकी आबादी का भारी हिस्सा भी इंकलाब की जरूरत महसूस करने लगेगा तब इंकलाब का दिन नजदीक आ जायेगा। एक बार इंकलाब हो जाने के बाद बदलाव की यह प्रक्रिया काफी तेज हो जायेगी क्योंकि अब समूचे समाज को एक नये रूप में ढाला जा रहा होगा। समाज बदलाव के मामले में पहले मुर्गी या पहले अंडा (व्यक्ति बदलेगा तो समाज बदलेगा या समाज बदलेगा तो व्यक्ति बदलेगा) का यही जवाब है। नया समाज नये लोग बनाएंगे पर वे नया समाज बनाने के संघर्ष में ही नये लोग बनेंगे।

‘पहले इंसान तो बन जाओ’ के बदले नारा यह होना चाहिए: इंकलाबी इंसान बनने के लिए आगे बढ़ो!

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