रविवार, 26 जनवरी 2020

क्रांति की अग्निशिखा में जीवन का चित्रण ‘पराजय’


अलेक्सान्द्र फेदेयेव समाजवादी सोवियत संघ के प्रसिद्ध लेखकों में से एक हैं। पराजय उनका पहला उपन्यास था जो 1927 में प्रकाशित हुआ था।


पराजय उपन्यास की पृष्ठभूमि 1918-20 का सोवियत रूस है। यह वह समय था जब रूस में अक्टूबर समाजवादी क्रांति हो चुकी थी पर अभी गृहयुद्ध जारी था। जार समर्थकों, पूंजीवाद समर्थकों के साथ ही दुनियाभर के साम्राज्यवादी इस पहले मजदूर राज को पैदा होते ही कुचल देना चाहते थे। ऐसे संघर्ष; जिनमें एक तरफ समाजवादी क्रांति को बचाने वाले और दूसरी तरफ क्रांति को कुचलने वाले थे; पूरे रूस में लड़े गये। रूस के पूर्वी हिस्से साइबेरिया में श्वेत सेना व जापानी साम्राज्यवादियों से समाजवादी क्रांति के रक्षकों के संघर्ष का ही ‘पराजय’ में वर्णन है।

अलेक्सान्द्र ने चूंकि 1918-20 के काल में उस छापामार गृहयुद्ध में भाग लिया था इसलिए ‘पराजय’ का वर्णन व्यापक और आधिकारिक है। उपन्यास वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। 

उपन्यास के मुख्य पात्र साधारण लोग हैं। जिन्होंने क्रांति में भाग लिया और गृहयुद्ध की विभीषिका झेली। जो खदानों के खनिक थे। किसान थे। और कुछ वे नौजवान थे जो क्रांति के पक्ष में युद्ध की विभीषिका में खुद को झोंकने के लिए निकल पड़े थे। कहावत है कि दुःख की घड़ी में ही दोस्त और दुश्मन का पता चलता है। संघर्ष और खासतौर पर क्रांतिकारी संघर्षों के लिए भी यह कहा जा सकता है। क्रांति के पक्ष में मेहनतकश साधारण लोग खड़े हो गये और उनकी बहादुरी देखने लायक थी। 

उपन्यास सत्रह अध्यायां में बंटा हुआ है। उपन्यास में क्रांति की रक्षा में जुटी छापामार युद्ध की एक टुकड़ी है, जिसका कमांडर लेविनसन है। इसके अलावा कुछ प्लाटून बनाई जाती हैं जिनके प्लाटून कमांडर दुबोव, मेतेलित्सा हैं। लेविनसन का अर्दली है, मोरोजका। वह विभिन्न टुकड़ियों व केन्द्र के बीच पत्र-व्यवहार का काम करता है। छापामार युद्ध के क्षेत्र में ही एक डॉक्टर स्ताशिंस्की है। वह शहर से दूर जंगल में, गृहयुद्ध के क्षेत्र में घायलों का इलाज करता है। उपन्यास में एक महिला पात्र वार्या है। जो मोरोजका की पत्नी, डॉक्टर की सहयोगी है। गोंचारेंको, मिश्का, मेतचिक, पिका, बाक्लानोव आदि भी प्रमुख पात्रों में से हैं।

इनमें से कई लोग पहले खनिक थे। मोरोजका तो बचपन से ही खान में काम करने को विवश हो गया था। इनमें सिपाहियों वाला अनुशासन उतना नहीं है जितना अक्खड़पन, अस्त-व्यस्तता। पर वे फिर भी सिपाही हैं। क्रांति के सिपाही। ये बात वो उतना कहते या जानते नहीं हैं। पर व्यवहार वैसा ही करते हैं। एक जगह पर मोरोजका एक पत्र लेकर जाता है। पाता है कि जहां पत्र देना है वहां तो दुश्मन से युद्ध चल रहा है। वह दनदनाती गोलियों के बीच घायल पड़े मेतचिक को बचा ले जाता है। ऐसी बहादुरी के बाद वह एक मौके पर किसान के झाड़-झंकाड़ से भरे खेत से खरबूज चुरा लेता है।

वैसे खरबूज चुराना किसी अन्य सेना के सैनिक के लिए कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती। पर यह खरबूज बोल्शेविक पार्टी की सेना के सिपाही ने चुराया था। यह एक अपमानजनक काम माना जाता था। इसलिए कमांडर लेविनसन के कहने पर किसानों की सभा बुलाई जाती है, ताकि मोरोजका को उचित ‘सजा’ दी जा सके। मीटिंग होती है किसानों के बीच से बात रखी जाती है। कुछ जारकालीन नियमों के आधार पर सजा देने की मांग करते हैं जिसे दूसरे किसान ही यह कहकर रद्द कर देते हैं कि अब वैसे सजा नहीं दी जायेगी। अंततः मोरोजका के पश्चाताप को मान लिया जाता है। तय किया जाता है कि युद्ध के अलावा बाकी समय में सिपाही किसानों की मदद करेंगे। वहीं एक अन्य मौके पर लेविनसन एक किसान से अपने भोजन के लिए सुअर जबरदस्ती ले आता है। इस मौके पर सिपाहियों के लिए भोजन की मजबूरी है। दोनों घटनाओं में अन्तर साफ है कि पहले मौके पर किसानों के काम के प्रति कोई सम्मान न होने के चलते चोरी होती है। जबकि दूसरा सैनिकों के जीवन की मजबूरीवश किया गया काम है। 

युद्ध के दुर्धर्ष हालात मानवीयता को गहराई तक कुचल देते हैं। एक ऐसी स्थिति है कि दुश्मन नजदीक है, छापामारों को तुरंत निकलना और छिपना होगा। लेविनसन और डॉक्टर स्ताशिंस्की एक लाइलाज मरीज फ्रालोव के बारे में बात करते हैं। दोनों में से कोई भी मौत को ही अन्तिम रास्ता जानते हुए भी इस बात को कह नहीं पाता कि फ्रालोव को मारना पड़ेगा। जब फ्रालोव को दवा दी जाती है तो वह भी इस बात को जानता है कि उसे मरना होगा। वह अपने बेटे की हर संभव मदद देने की मांग कर, खुद ही दवा खा लेता है। खुद जिन्दा रहना है या साथियों और लक्ष्य की परवाह करनी है? युद्ध के हालात ऐसी ही परीक्षा तो लेते हैं।

मेतचिक, वह घायल जिसे युद्ध के मौके से मोरोजका बचा लाया था। पढ़ा-लिखा नौजवान है। वह इन परिस्थितियों व लोगों के प्रति हिकारत का भाव रखता है। क्रांति अब उसे उतनी प्रिय व आकर्षक नहीं लगती जितना वह पढ़ते समय उसे महसूस करता है। पर धीरे-धीरे वह इसका अभ्यस्त हो जाता है। घोड़ों को संभालना सीख जाता है। पहरेदारी में रात-रात तक ड्यूटी करता है। युद्ध ने उसे कठिनाईयां झेलना सिखा दिया पर शहर की याद उसे लगातार सताती रहती है। अंततः वह क्रांति की वास्तविक कठिनाईयों से टकराकर वो सब रूमानी बातें बिसरा चुका होता है जो उसे किताबों से मिली थी। और घर वापस जाने का फैसला करता है।

लेविनसन को नेतृत्व देने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। वह एक गंभीर, अनुशासित, व्यक्ति है। गृहयुद्ध में लगातार बदलते हालात उसे थका देते हैं। गृहयुद्ध ऐसे ही हालात बनाये रखते हैं, जिसमें लेविनसन को खुद भी चौकन्ना रहना है और पूरी प्लाटून को भी हमेशा हर परिस्थिति के लिए तैयार रखना है। लेविनसन के यही गुण सबके लिए उसके नेतृत्व को स्वीकार्य बनाते हैं। वह कम्युनिस्ट चेतना के उच्च स्तर को दर्शाता है और एक सच्चे बोल्शेविक के रूप में उसका अपने अनुगामियों पर गहरा प्रभाव होता है।

जनता क्रांति के लिए अथाह कष्ट झेलती है। उसके लिए अनगिनत कुर्बानियां देती है। तभी तो जनता को क्रांति का वास्तविक नायक कहा जाता है। क्रांति हेतु सही राजनैतिक-सैद्धांतिक नेतृत्व के बाद जनता ही निर्णायक होती है। वह यदि क्रांति का पक्ष ले ले तो कोई भी ताकत उस क्रांति को असफल नहीं कर सकती। यदि वह क्रांति का पक्ष न ले तो वह सिर्फ विद्रोह तक ही सिमट जाता है। जहां क्रांति की पक्षधर जनता रोज नये लड़ाके देती है। वहीं खुद उनकी रक्षा में भी भारी कुर्बानियां देती है। ऐसा ही एक दृश्य उपन्यास में देखने को मिलता है। 

मेतेलित्सा को श्वेत सेना और जापानियों की स्थिति जानने के लिए गुप्तचर का काम करने के लिए भेजा जाता है। वहां वह श्वेत सेना के कज्जाकों के हत्थे चढ़ जाता है। श्वेत सैनिक पूरे गांव को बुलाते हैं, मेतेलित्सा की पहचान जाहिर करने के लिए। एक स्वार्थी किसान एक छोटे लड़के, जिससे मेतेलित्सा गांव में आते हुए मिला था, को पहचान के लिए बुलाता है। वह लड़का मेतेलित्सा को श्वेत सैनिकों के सामने पहचानने से साफ इंकार कर देता है। गांव वाले लड़के के इंकार को मानते हैं और मेतेलित्सा को छोड़ने की मांग करते हैं। बन्दूकधारी सैनिकों के सामने इस तरह झूठ बोलना अपनी मौत को दावत देने जैसा था। फिर भी साधारण किसान ऐसा कर जाते हैं। पर अगले मौके पर जब क्रांति के पक्षधर सिपाही आते हैं तो गांव वाले पादरी, जो कि दुश्मन सेना से मिला हुआ था, के साथ ही उस किसान को भी मौत की सजा देने के पक्षधर हो जाते हैं जो लड़के को जबरन सच बताने को मजबूर करता है। लेविनसन पादरी को तो मौत देता है पर उस किसान को मौत न देने का फैसला करता है। ऐसे ही कुछ स्थानों पर सिपाहियों की मदद के लिए गांव वाले अपने सीमित साधनों में भी उन्हें सर्वोत्तम मदद करते हैं।

‘पराजय’ का अंत, विरोधियों की बड़ी टुकड़ियों के सामने लेविनसन की छोटी टुकड़ी के कई सिपाहियों की मौत और पराजय के रूप में होता है। अंत में केवल उन्नीस सिपाहियों के साथ लेविनसन जंगल से बाहर निकल पाता है। अब उन सभी को जिन्दा रहकर अपना फर्ज पूरा करना है। अब इस पराजित टुकड़ी के बचे हुए क्रांतिकारियों को आगे बढ़ना है, समाजवाद की रक्षा करनी है।

फेदेयेव ‘पराजय’ की थीम के बारे में कहते हैं- ‘‘गृहयुद्ध के दौरान, मानवीय तत्च एक चयनात्मक प्रक्रिया से गुजरते हैं। हर प्रतिकूल चीज को क्रांति झाड़-बुहारकर किनारे कर देती है। हर चीज जो सच्चे क्रांतिकारी संघर्ष के लिए अक्षम होती है और जो धारा के प्रवाह के साथ क्रांति के शिविर में आ गई रहती है, उसकी निराई-छंटाई कर दी जाती है और ईमानदार जड़ों वाली हर चीज जो क्रांति के बीच से आती है, वह लाखों-लाख सृजनशील जनसमुदाय के बीच, इस संघर्ष के दौरान मजबूत होती है, फलती-फूलती है और विकसित होती है। लोग आमूलगामी ढंग से रूपान्तरित हो जाते हैं।’’ 

यह उपन्यास क्रांति की प्रक्रिया में मनुष्य के ऐसे रूपान्तरण को समझने-जानने के लिए पढ़ा जाना चाहिए। 

लेखक परिचय
अलेक्सान्द्र फेदेयेव का जन्म 24 दिसम्बर 1901 में त्वेर के पास किम्री में हुआ था। कम्युनिस्ट परिवार में इनकी परवरिश हुई थी। 1912 से 1918 तक ब्लादिवोस्तोव वाणिज्य विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। यहीं वे बोल्शेविज्म की ओर आकृष्ट हुए। 1918 में रूस की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए। 1918-20 के गृहयुद्ध में साइबेरिया में श्वेत सेना और जापानी हमलावरों के खिलाफ युद्ध में शामिल रहे। इनकी पहली प्रकाशित रचना धारा के विरुद्ध, कहानी थी। जो 1923 में प्रकाशित हुई थी। 1924 में ‘बाढ़’ नामक उपन्यासिका प्रकाशित हुई। 1927 में पहला उपन्यास ‘पराजय’ प्रकाशित हुआ। 1928 में फेदेयेव ने सर्वहारा साहित्य की विशिष्टताओं और उद्देश्यां की चर्चा करते हुए ‘सर्वहारा साहित्य का महामार्ग’ निबन्ध लिखा। 1929 में ‘अंतिम उदेगे’ उपन्यास का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ। इसमें फेदेयेव ने कम्युनिस्टों के बौद्धिक और भावनात्मक पक्षों को उद्घाटित करने की कोशिश की है। इसका चौथा खण्ड 1940 में प्रकाशित हुआ। परन्तु जिस विशाल परियोजना को इसके साथ फेदेयेव ने रखा था वह पूरी न हो सकी। 1939 में ‘भूकम्प’ कहानी प्रकाशित हुई। नाजी विरोधी देशभक्तिपूर्ण संघर्ष के कई रेखाचित्र और निबन्ध लिखे जिनको 1944 में ‘घेरेबन्दी के दिनों में लेनिनग्राद’ में संकलित किया गया। 1945 में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त उपन्यास ‘तरुण गार्ड’ प्रकाशित हुआ। यह युवा कोमसोमोलों का नाजी सैनिकों के खिलाफ लड़े गये भूमिगत गृहयुद्ध पर आधारित है। फेदेयेव का अंतिम व अधूरा उपन्यास ‘फेरस मेटलर्जी’ है। फेदेयेव ‘सर्वहारा लेखकों के रूसी संघ’ के नेतृत्व में रहे। सोवियत संघ की लेखक यूनियन के सचिव रहे। साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कार प्राप्त किये। 1950 में विश्व शांति परिषद के उपाध्यक्ष चुने गये। 1939 में कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी में रहे। 1956 में सोवियत संघ में पूंजीवादी पथगामियों द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लिया गया। इनके द्वारा समाजवाद की उपलब्धियों को नष्ट किये जाने से फेदेयेव बहुत आहत हुए। इस कारण 13 मई 1956 को उन्होंने आत्महत्या कर ली।
                                                  (वर्ष- 11 अंक- 2 जनवरी-मार्च, 2020)

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