भोजनमाताओं का त्रासद जीवन
पूंजीवाद अपने लोकतंत्र को सबसे बेहतर समाज व्यवस्था के रूप में स्थापित करता है। लेकिन इसकी पोल तब खुल जाती है जब आम जन के जीवन स्तर को देखा जाये। अगर हम भोजनमाताआें की जीवन परिस्थितियों में नजर डालें तो पायेंगे कि 2000 रुपये के मानदेय पर घर चलाने वाली महिलाओं की क्या स्थिति होगी।
उत्तराखण्ड के प्राथमिक, माध्यमिक स्कूलों में मिड डे मील योजना के तहत स्कूलों में खाना बनाने वाली भोजनमाता को 2003 में स्कूल में रखना शुरू किया गया। उस समय भोजनमाता को 250 रू0 मानदेय मिलता था। गांव और शहरों में बहुत कम महिलाएं ही स्कूलों में खाना बनाने को राजी हुईं। उस समय ग्राम प्रधान से लेकर स्कूल प्रबंधक द्वारा घर-घर जाकर भोजनमाता को काम के लिए राजी किया गया।
सरकार द्वारा मिड डे मील योजना छात्रों को साक्षर करने में सहयोग के लिए चलायी गयी। गरीब बच्चे स्कूलों में भोजन ग्रहण कर ज्ञान प्राप्त कर सकें। जिससे देश का हर व्यक्ति साक्षर हो सके। लेकिन इस साक्षरता मिशन की पोल जनता के सामने स्पष्ट है। पहाड़ों के कई स्कूल विलय किये जा रहे हैं स्कूलों की दूरी ज्यादा होने पर कौन मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजेगा। और यह सब सरकार द्वारा लागू निजीकरण की नीति की वजह से हो रहा है।
भोजनमाता बहुत गरीब तबके से आती हैं। उनमें अधिकतर विधवा, परित्यक्ता व एकल महिलाएं हैं। वह मजबूरी में अपना घर खर्च चलाने के लिए स्कूलों में खाना बनाने का काम करती हैं। कुछ भोजनमाताओं को छोड़ बाकी के पास जमीन न के बराबर है। वह अपने घर खर्च के लिए दूसरों के खेतों में दिहाड़ी करती हैं। शहरों की भोजनमाताएं स्कूल के अलावा घरों में खाना बनाने, झाडू-पोछा करने का काम करती हैं। इस सबके बावजूद भी पूरे परिवार का भरण-पोषण करना अत्यधिक कठिन होता है।
भोजनमाता स्कूल, घर-बाहर सब काम करने के बावजूद घर में होने वाले उत्पीड़न की भी शिकार होती हैं। जिसकों हम ओखलकांडा में रहने वाली भोजनमाता के जीवन से समझ सकेंगे। ओखलकाण्डा ब्लाक में रहने वाली भोजनमाता का पति शराबी है जो कुछ काम धाम नहीं करता। लेकिन उसकी बीबी कहां जाती है, किससे बात करती है, सब पर निगरानी रखता है। अपने शक्की व्यक्तित्व के कारण भोजनमाता की रोज पिटाई करता है। यह एक घटना नहीं है। कई भोजनमाताओं के साथ इस तरह का व्यवहार होता है। ओखलकाण्डा की भोजनमाता अपनी यूनियन के द्वारा आयोजित प्रदर्शन में शामिल हुई। भोजनमाता के घर लौटने पर उसके पति द्वारा उस पर उल्टे-सीधे आरोप लगाये गये। भोजनमाता को पीट-पीट कर घायल कर दिया। अन्य भोजनमाता ने उसके पति के इस व्यवहार की आलोचना की तो वह अन्य भोजनमाता के घर-घर जाकर भोजनमाता पर गलत आरोप लगाने लगा। इस घटना से क्षुब्ध होकर भोजनमाता ने फांसी लगा ली और मृत्यु की गोद में जा बैठी।
हमारी सरकार महिला सशक्तिकरण की तमाम बातें करती है। लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। हमारे देश में आये-दिन महिलाएं हिंसा की शिकार हो रही हैं। आज भारत दुनिया में महिला हिंसा के ग्राफ में न0 1 पर है।
भोजनमाता स्कूलों में खाना बनाने के अलावा आफिस की साफ-सफाई, पानी का इंतजाम व पहाड़ों की भोजनमाताएं जंगल से लकड़ी लाकर खाना बनाती हैं। लेकिन लकड़ी का बहुत कम पैसा उन्हें मिलता है। जिस पैसे से महीने भर खाना नहीं बन सकता। भोजनमाताओं द्वारा ईधन का इंतजाम करने से इंकार करने पर स्कूल से निकाले जाने की धमकी दी जाती है। भोजनमाताओं से स्कूलों में पेड़-पौधे व साग-सब्जी भी लगवाई जाती हैं। कुछ शिक्षकों का व्यवहार सहयोगपूर्ण होता है। वह उनको अतिरिक्त काम का अतिरिक्त पैसा भी देते हैं। लेकिन कुछ शिक्षक मानवीयता की हद तक तोड़ देते हैं व भोजनमाताओं को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। कई शिक्षक, प्रधानाचार्य भोजनमाता से अपने घरों तक का काम करवाते हैं। उनके मना करने पर स्कूल से निकालने की धमकी दी जाती है और निकाल भी दिया जाता है।
17-18 सालों से खाना बनाने के बाद भी मिड डे मील प्रभारी की इच्छानुसार न चलने व स्कूलों में कम बच्चे होने की स्थिति में कभी भी स्कूल से निकाला जा सकता है। वे इतनी गरीब हैं कि वर्तमान में मिलने वाला 2000रु. का मानदेय अगर उन्हें नहीं मिला तो उनका जीवन संकट में आ जाएगा।
सरकार द्वारा उज्जवला गैस योजना का बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार-प्रसार हो रहा है। लेकिन मिड डे मील के तहत नैनीताल जिले में ही अभी 1728 स्कूल में चूल्हे पर खाना बनता है। धुएं से भोजनमाताओं की आंखें व फेफडे़ खराब हो रहे हैं। वे अभी भी धुआं फूंक रही हैं। किसी श्रमिक द्वारा किये काम का उसको न्यूनतम वेतन मिलता है लेकिन सरकार भोजनमाताओं को श्रमिक तक नहीं मानती है। उन्हें केवल 11 माह का मानदेय दिया जाता है। विकराल महंगाई में भोजनमाता का जीवन तिल-तिल कर खत्म हो रहा है। जिसकी सरकार को कोई भी परवाह नहीं है। यही हाल आशा वर्कर, आंगनबाड़ी व संविदा कर्मचारियों का भी है। लेकिन भोजनमाता सबसे निचले पायदान पर खड़ी हैं।
कई स्कूलों में बच्चे कम होने पर बेसिक शिक्षा अधिकारी व खण्ड शिक्षा अधिकारी को अवगत कराना होता है। हेड मास्टर द्वारा बच्चों की संख्या कम होने पर पहले जितनी ही संख्या दिखाई जाती है और भोजनमाता को धमकाया जाता है और कहा जाता है कि हम तेरा भला चाहते हैं, अगर बच्चे कम दिखाये तो तेरी नौकरी खत्म। यह कह कर वे भोजनमाता से अपने घर व स्कूल के अन्य सारे काम करवाते हैं। अधिक बच्चों के लिए आने वाली धनराशी हड़प जाते हैं। उत्तराखण्ड में मिड डे मील के तहत बढ़ी राशि भ्रष्टाचार द्वारा खत्म हो रही है। वहीं इस भ्रष्टाचार की शिकार भोजनमाता हो रही हैं।
भोजनमाता द्वारा अपने साथ होने वाले उत्पीड़न व शोषण के खिलाफ संघर्ष किया जा रहा है। आंदोलन की कम समझ और अनपढ़ होने के चलते एक समय नेतृत्व द्वारा भोजनमाता के कई लाख रुपये हड़प लिये गये। भोजनमाता द्वारा अपने सड़े-गले नेतृत्व को बाहर फेंक भोजनमाता पुनः संगठित हुई हैं। उन्होंने अपनी यूनियन रजिस्टर्ड करवायी। अपने स्थायी रोजगार, न्यूनतम वेतन, प्रसूति अवकाश व स्कूलों में होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ हल्द्वानी में कई प्रदर्शन किए। भोजनमाता का मानदेय 250रु. से 2000रु. भी हुआ है तो वह उनके संघर्ष की बदौलत। भोजनमाताओं की प्रगतिशील भोजनमाता संगठन, उत्तराखण्ड, नैनीताल यूनियन ने केवल अपनी आर्थिक मांगों के लिए ही संघर्ष नहीं किया बल्कि उन्होंने महिला मुक्ति के संघर्षां को याद कर 8 मार्च का कार्यक्रम भी किया। जिसमें सैकड़ों की संख्या में भोजनमाताएं सड़कों पर उतरीं। देश के भीतर होने वाले महिला उत्पीड़न व अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की है।
(वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें