-प्रियंका
‘‘क्या कर रहे हो युवा?
क्या तुम साहित्य, विज्ञान, कला, प्रणय के प्रति इतने गंभीर और समर्पित हो?
इन प्रत्यक्ष वास्तविकताओं, राजनीति, विवादों के प्रति?
या अपनी महत्वाकांक्षा या व्यवसाय के प्रति, संभव है?’’
-वाल्ट ह्विटमन
एक युवा इतना ऊर्जावान होता है कि वह चाहे तो दुनिया को उलट-पुलट कर दे। वह चाहे तो नदियों का रुख मोड़ कर रख दे। वह चाहे तो.....। यानि एक युवा वह सब कर सकता है जो इस दुनिया में संभव है। इस लिहाज से उसके शब्दकोश में असंभव शब्द है ही नहीं क्योंकि वह इस समय अपने जीवन के सबसे अधिक ऊर्जावान दौर में है। उसके भीतर कुछ कर गुजरने का साहस है। अगर सामाजिक परिस्थितियां उसके अनुकूल नहीं भी होती हैं तो यही युवा उन सामाजिक परिस्थितियों को बदल कर इतिहास की धारा को मोड़ने का साहस भी रखता है। इतिहास इसका गवाह है कि इसी युवा वर्ग ने अपने साहस और बलिदानों के बल पर समाज और इतिहास दोनों को बदला है। इसने उस शोषणकारी विचारधारा को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि उसे उलट-पुलट करके भी दिखाया है, जो इस समाज में, इस देश में और पूरी दुनिया में निजी सम्पत्ति के मालिकों ने सम्पत्तिहीन शेष समाज को अपने शोषण के अधीन बनाये रखने के लिए गढ़ी थी। इतिहास इस बात का भी गवाह है कि इसी युवा वर्ग ने अपनी सामुहिक शक्ति और एकता के बल पर विज्ञान, कला, साहित्य, शिक्षा ही नहीं उन सभी क्षेत्रों में नये-नये कीर्तिमान बनाये जो कि इस शोषणकारी व्यवस्था में असंभव लगते थे।
लेकिन आज इस युवा पीढ़ी को, इस शोषणकारी निजाम ने इस कदर हताश, लाचार और अक्षम बना दिया है कि उसको अपना जीवन नीरस और निरर्थक लगने लगता है। यह नीरसता उस नौजवान के जीवन के उल्लास को समाप्त कर रही है। उल्लासहीन यह जीवन आज की युवा पीढ़ी को जीवन के संघर्ष से, जीवन के यथार्थ से टकराने की जिजीविसा से विरत कर रही है। जिस कारण यह युवा पीढ़ी आत्महत्या जैसे आपराधिक कदम उठाने से भी नहीं चूक रही है या फिर तात्कालिक सुकून पाने के लिए किसी भी प्रकार के नशे का सहारा ले रही है।
एक युवक जब अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, अपने भावी जीवन के अनेकों सपनों को लेकर रोजगार की तलाश में निकलता है तो उसे पता चलता है कि यहां तो रोजगार पाना आसान काम नहीं है। उसे यह भी मालूम होता है कि उसके जैसे अनगिनत बेरोजगार नौजवान और भी हैं, जो पहले से ही रोजगार पाने के लिए भटक रहे हैं। रोजगार के इस बाजार में, जीवन की इस आपाधापी में उसका कोई स्थान नहीं है। उसे पता चलता है कि जिस उम्मीद से वह अपने भावी जीवन के सपनों को लेकर रोजगार की तलाश में निकला था वह तो जीवन के यथार्थ से कहीं भी मेल नहीं खाते हैं। उसके भावी जीवन के वे सारे सुनहरे सपने चकनाचूर होते जाते हैं, जिन्हें लेकर वह इस समाज का सामना करने निकला था।
रोजगार की तलाश में दर-दर भटकता यह युवक अपने परिवार और समाज में नाकारा साबित कर दिया जाता है। उसे हर समय अपने उन सभी लोगों का सामना तानों-फिकरों से करना पड़ता है जो उससे बहुत सारी उम्मीदें लगाये बैठै होते हैं और उसके असफल होने पर उस युवक को ही इस असफलता के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं।
व्यवस्था की ठोकरों से लस्त-पस्त यह युवा जब समाज के तानों-फिकरों का सामना करता है तो उसकी यह निराशा और बढ़ जाती है। उसे लगने लगता है कि इस समाज में उसका अपना कोई नहीं है जो उसको थोड़ा सान्त्वना दे सके, उसको थोड़ा साहस दे सके।
इस समाज में जब चारों तरफ पैसे के लिए हाय-हाय मची हो, ‘पैसा ही सब कुछ है’ समाज का मूल मंत्र बन गया हो और उसे हासिल करने के लिए ‘कुछ भी किया जा सकता है’ एक सामान्य नियम बन गया हो, समाज के सारे नियम, कायदे-कानून (निजी सम्पत्ति के हक में) सरे राह बिक रहे हों, तब क्या इन हालातों में किसी युवा के लिए सम्मान पूर्वक अपनी जीविका चला पाना आसान काम होगा? और क्या अगर वह इसमें असफल हो रहा है तो इसके लिए केवल वही जिम्मेदार है? क्या हर समय उसे दोषी ठहराकर ताने सुनाना न्यायसंगत है?
अगर कोई युवा इस व्यवस्था में अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में असफल हो रहा है (युवा का मतलब यहां पर पूरी युवा पीढ़ी से है) तो उसके लिए उसी को दोषी ठहरा दिया जाय यह न्यायसंगत नहीं है। युवक को दोष देकर समस्या का ठीकरा उसके सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। यह समस्या को देखने का गलत और उथला नजरिया होगा। इसकी जांच-पड़ताल करने के लिए समस्या की गहराई मेें जाना होगा। गहराई में जाकर ही समस्या की सही समझ हासिल की जा सकती है। क्योंकि अगर समस्या कहां से पैदा हो रही है, क्यों पैदा हो रही है, इसका सही-सही आंकलन नहीं किया गया तो, उस समस्या का सही-सही समाधान भी नहीं निकल पायेगा। किसी भी समस्या का अधूरा या गलत आंकलन उस समस्या को हल करने के बजाय उसे और उलझा देता है। कहा जाता है कि हर समस्या अपना समाधान अपने साथ लेकर आती है बस उसे खोजने या उसकी पहचान करने की जरूरत होती है।
गलत आंकलन के कारण यह समस्या ‘भाग्य और कर्मों का फल’ मानकर असामधेय बन जाती है और उसको बदलने के किसी भी प्रयास की संभावना समाप्त हो जाती है। अब वह युवा भाग्य और कर्मों के हवाले स्वयं को छोड़कर असमंजस का जीवन जीने को मजबूर होता है। वह अपने जीवन में सामान्य सी कठिनाइयों से संघर्ष करने के बजाय उनसे भागना चाहता है।
किसी भी समाज में युवा वर्ग की यह स्थिति शासक वर्ग के लिए बहुत मुफीद होती है (कोई भी समस्या वह कितनी भी व्यक्तिगत क्यों न लगे, होती वह सामाजिक ही है। उसका कोई न कोई सामाजिक सरोकार अवश्य होता है और हर समस्या के लिए शासक वर्ग जिम्मेदार होता है)। क्योंकि अगर यही युवा समस्याओं के सामाधान के लिए संघर्षशील होने के बजाय भाग्यवादी होता है तो उस शोषणकारी व्यवस्था को चुनौती देने वाला, समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा, जो कि समाज का सबसे अधिक ऊर्जावान हिस्सा है, सामाजिक संघर्षों से निष्क्रिय हो जाता है तो शोषणकारी व्यवस्था चुनौती विहीन हो जाती है। समाज में शोषण-उत्पीड़न लगातार बढ़ता जाता है। तब भाग्यवाद इसे और असमाधेय बना देता है।
संघर्ष से विरत इस युवा पीढ़ी से शासक वर्ग को दो बड़े फायदे होते हैं। एक, यह समाज व्यवस्था चुनौती विहीन हो जाती है, जिससे शोषण की तीव्रता बहुत अधिक बढ़ जाती है। दूसरा, शासक वर्ग ऐसी नीतियां बनाने में सफल होता है जो बेरोजगारों की फौज खड़ी करती हैं, रोजगार के अवसरों को सीमित करती हैं, रोजगार होने के बावजूद बेरोजगारी को बनाये रखती हैं। ऐसी स्थिति में पूंजी के मालिकों की मुनाफे की हवस और अधिक बढ़ जाती है और वह अपने शोषण का दायरा समूची दुनिया तक बढ़ाना चाहता है। चुनौती विहीन होने के कारण वह इसमें सफल भी होता है। ऐसी स्थिति में समूची दुनिया करे शोषणकारी तत्व एक साथ मिलकर इस शोषणकारी निजाम को और पुख्ता बनाने का प्रयास करते हैं। शोषण के इस तरीके को उन्होंने ‘वैश्वीकरण’ नाम दिया। यह वैश्वीकरण केवल पूंजी का वैश्वीकरण होता है श्रम का नहीं। जिसका मकसद होता है सारी दुनिया के पूंजीपतियों मिलकर अपनी-अपनी पूंजी के हिसाब से इस शोषणकारी निजाम में शामिल हो जाओ और मिलकर लूटो! सारी दुनिया लूट का खुला मैदान है। जैसे चाहो वैसे लूटो! लूट के इस निजाम को और पुख्ता करो!
पूंजी का विस्तार जितना अधिक होता जाता है सामाजिक जीवन उतना ही अधिक कठिन होता जाता है। उतनी ही अधिक अराजकता सामाजिक जीवन में बढ़ जाती है। समूचे समाज में पैसे की मारामारी के अलावा कुछ और शेष नहीं रह जाता है। एक प्रकार की निराशा समूचे समाज पर तारी होने लगती है। लगने लगता है कि इस मारामारी के चलते समूचा समाज ही खत्म हो जायेगा।
रात जितनी अंधेरी और काली होती जाती है निराशा, हतासा, पस्तहिम्मती भी उतनी अधिक बढ़ती जाती है। लेकिन समय का दूसरा पहलू यह भी है जब किसी चीज की इंतहां हो जाती है तो वह खत्म भी हो जाती है। जैसे कि रात का सबसे अधिक काला होना इस बात का संकेत है कि अब नया सूर्योदय होने ही वाला है। यह वह समय होता है जब बहुत धैर्य के साथ नये सूरज का इंतजार करना होता है। ताकि इस इंतजार के बाद जिस सूरज के दर्शन हों वह वास्तव में बहुत खूबसूरत हो।
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