संपादकीय
भगत सिंह 23 मार्च, 1931 को शहीद हुए थे। उन्हें शहीद हुये 87 वर्ष गुजर गये। इस बीच हमारे देश में तीन-चार पीढ़ियां गुजर गयीं। वक्त बीतता गया पर जो सवाल भगत सिंह के जमाने में खड़े थे वे थोड़े बदले रूप में वैसे ही खड़े हैं।
भगत सिंह जिस वक्त शहीद हुए थे उस वक्त देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए छटपटा रहा था। मजदूर, किसान, नौजवान, स्त्रियां सभी इस बात को पहचानने की ओर बढ़ गये थे कि अंग्रेेजों से मुक्ति मिले बिना देश, समाज का भला नहीं हो सकता है। गुलामी से मुक्ति के लिए भारत के जन जीवन-मरण के संघर्ष के लिए बढ़ चले थे। भगत सिंह न तो पहले शहीद थे और न अंतिम पर उनकी कुर्बानी ने जो विचारों की बिजलियां पैदा कीं वे आज भी हमारा पथ रोशन कर रही हैं। वे बता रहे हैं कि हमें क्या करने की जरूरत है।
भारत की आजादी की लड़ाई में हजारों लोग शहीद हुए। कई करोड़ लोग अंग्रेज साम्राज्यवादियों के द्वारा पैदा किये गये अकाल और उनकी साम्राज्यवादी मंसूबों के लिए छेड़े गये युद्धों में मारे गये।
साम्प्रदायिक विद्वेष के बीज जो उन्होंने बोये थे उसका खामियाजा देश के विभाजन के रूप में सामने आया। भारत में अंग्रेजों के आने से पहले दंगों का कोई इतिहास नहीं था। कमोवेश उन्नीसवी सदी के अंतिम दशक में दंगों की शुरुआत हुयी। और जब तक अंग्रेजों ने हिंदोस्तान को नहीं छोड़ा तब तक कई लाख लोग दंगों की भेंट चढ़ गये। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय कई लाख लोग मारे गये और कई लाख लोगों को इधर से उधर अपना घर-द्वार, रोजी-रोटी सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा।
भारत और पाकिस्तान के बीच तब से अब तक कई युद्ध हो चुके हैं। और जब खुले तौर पर युद्ध की घोषणा नहीं हुयी तब भी सीमा में चलने वाली झड़पों में रोज ही लोग मारे जाते हैं। इसके अलावा ये दोनों देश एक-दूसरे के यहां आंतकी कार्यवाहियों को खुले-छिपे तौर पर अंजाम देते हैं। आंतरिक मामलों में दखल देते हैं। इस तरह से देखें तो भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही दुश्मनी में कई लाख लोग मारे जा चुके हैं। साम्प्रदायिक विद्वेष के जो बीज अंग्रेजों ने बोये उसने अंधराष्ट्रवाद के विषवृक्ष के रूप में अपनी शाखायें दोनों देशों में फैला दी है। यह अंधराष्ट्रवाद पड़ोसी देशों के प्रति हिंसक घृणा के साथ-साथ अपने देश के भीतर के धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति भी उसी भाव से लक्षित है। बहुसंख्यक धार्मिक कट्टरपंथी खुली आंतकी कार्यवाहियां करते हैं और इन देशों की सरकारें इन्हें खुला संरक्षण देती हैं।
जब हम अपने और पड़ोसी देश में यह सब कुछ देखते हैं क्षुब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ होते हैं तब भगतसिंह की बात याद आती है। उनके विचार, उनके लेख जो इस तरह के विषय पर लिखे हैं राह दिखाने लगते हैं।
भगतसिंह जिस वक्त फांसी पर चढ़े थे उस वक्त देश के मजदूर, किसान बुरे हालतों का सामना कर रहे थे। विदेशी साम्राज्यवादियों के अलावा देशी जमींदार, राजे-रजवाडे़, पूंजीपति उनका निर्मम शोषण कर रहे थे। आवाज उठाने पर मजदूरों-किसानों की निर्मम हत्यायें ब्रिटिश सैनिकों से लेकर इन राजे रजवाड़ों के सिपाहियों-लठैतों द्वारा कर दी जाती थी। और आज हम आजादी के बाद देश को देखें तो मजदूरों, किसानों के साथ शासकों के व्यवहार में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया। तेलंगाना, नक्सलबाडी से लेकर किसानों की निर्मम हत्याओं की सैकड़ों घटनाएं घट चुकी हैं। यही बात मजदूरों के साथ लागू होती है। मुम्बई, कोलकता में 1946 में रचे गये हत्याकांड की तरह नागपुर, फरीदाबाद, पंतनगर जैसे कई हत्याकांड कई जगह रचे जा चुके हैं। यानी मजदूर किसानों की जिन्दगी में भारत की आजादी कोई नयी सुबह नहीं ला सकी।
ऐसे में भगतसिंह की उस बात को याद कीजिये जिसमें उन्होंने कहा था मजदूर किसानों के जीवन में गोरे अंग्रेजों के बाद काले अंग्रेजों के आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क पड़ेगा तो सिर्फ और सिर्फ समाजवादी क्रांति से पडे़गा।
और जहां तक बात हम छात्र-युवाओं की है। भगतसिंह हमें ललकार रहे हैं। कह रह रहेे हैं क्रांति के लिए आगे आओ। मजदूरों, किसानों, नौजवानों, शोषित-उत्पीड़न जनों को संगठित करो। व्यक्तिगत हितों, सुखों को किनारे रखो। व्यक्तिवाद को त्यागो और हिम्मत, ढृढ़ता और मजबूत इरादों के साथ क्रांति के काम को आगे बढ़ाओ!
सच बात यह है कि भगतसिंह हमारे वक्त की पुकार है। हमारे देश को एक नहीं हजारों हजार भगतसिंह चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें