-शाकिर
मनुष्य जो कुछ भी जानता है, उसकी प्रकृति क्या है और उसे यह ज्ञान कैसे हासिल होता है, यह प्राचीन समय से ही दर्शन का एक प्रमुख सवाल है। मनुष्य को बाहरी दुनिया का ज्ञान कैसे हासिल है, मानव मस्तिष्क में ज्ञान की यह प्रक्रिया कैसे घटित होती है तथा यह ज्ञान बाहर की दुनिया के कितने अनुरुप होता है, इस सवाल के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इसी के साथ यह कि जिसे मानव चेतना कहते हैं, उसका इस ज्ञान से क्या सम्बन्ध है?
सवाल को समझने के लिए एक उदाहरण से बात करें। हम आम जीवन में मान कर चलते हैं कि हर कार्य का कोई न कोई कारण होता है। बिना किसी कारण के कोई कार्य नहीं होता। इसी तरह यह कि हर कारण कोई न कोई प्रभाव पैदा करता है। फर्ज कीजिए कि जमीन पर कोई गेंद पड़ी है। एक व्यक्ति गेंद को ठोकर मारता है। गेंद वहां से उछल कर कहीं और जा गिरेगी। सामान्य तौर पर हर कोई यह कहेगा कि गेंद की गति का कारण उस पर पड़ी ठोकर है। ठोकर कारण है और गेंद में गति परिणाम। यही तब भी होता है जब एक गेंद दूसरी से टकराती है। एक गेंद दूसरी में गति पैदा करती है या उसकी दिशा बदलती है। भौतिक विज्ञान में गति के इन नियमों को न्यूटन के नियम से जाना जाता है।
पर अठारहवीं सदी में डेविड ह्यूम ने इस कार्य-कारण सम्बन्ध पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा हम पहले एक घटना देखते हैं जैसे ठोकर मारना। फिर हम दूसरी घटना देखते हैं जैसे गेंद में गति। लेकिन इससे यह कैसे प्रमाणित हो जाएगा कि पहला दूसरे का कारण है या पहले के कारण दूसरा होता है। ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि दोनों हमेशा एक के बाद दूसरे होते दिखते हैं। पर इससे दोनों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध प्रमाणित नहीं होता। इन्सान का दिमाग तो बस दोनों को एक के बाद दूसरा होते देखता है। ऐसा भी हो सकता है पहले के बाद दूसरा न हो यानी जब इंसान भारी पत्थर को ठोकर मारे।
इस तरह यहाँ कार्य और कारण के बीच अनिवार्य सम्बन्ध होने के बारे में संदेह पैदा हो जाता है। इस संदेह को एक दूसरे उदाहरण से भी प्रस्तुत किया गया हालांकि वहाँ मामला कार्य-कारण का नहीं था। आमतौर पर यह पाया गया कि हंस सफेद होते हैें। इसीलिए यह धारणा बनी कि हंस सफेद होते हैें। पर हंस के सफेद होने का कोई निश्चित कारण नहीं था। इसीलिए करोड़ों बार सफेद हंस देखे जाने के बाद भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता था कि हंस सफेद ही होते हैे। हंस के हमेशा सफेद बने होने में एक संदेह की गुंजाइश बनी रहती थी। और यह संदेह तब सच्चाई बन गया जब आस्ट्रेलिया में काले हंस पाये गये। अब ‘हंस सफेद होते हैं’ वाक्य सच नहीं रह गया।
ये दोनों उदाहरण इन्सान के दिमाग के बाहर की दुनिया के बारे में इन्सान के ज्ञान पर सवाल उठाते हैं। इस तरह के सवाल उठाने वालों को दर्शन में संदेहवादी कहा गया। लेकिन ये संदेहवादी खास तरह के थे। इनका कहना था कि बाहर की दुनिया की वस्तुओं और घटनाओं के सम्बन्ध के बारे में मनुष्य के दिमाग में जो धारणा बनती है उसके सही होने को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। यह नहीं प्रमाणित किया जा सकता कि कार्य-कारण सम्बन्ध होता है हालांकि व्यवहारिक जीवन के लिए हम इस कार्य-कारण संबद्ध को मानकर चलते हैं। यानी व्यवहारिक जीवन के लिए जो सच है उसे ज्ञान शास्त्र के स्तर पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
इन संदेहवादियों के अलावा दूसरे तरह के भी संदेहवादी हुए हैं। मसलन भारत में स्यादवादी। भारत में जैन दर्शन की एक शाखा स्यादवाद की हुर्ह है। स्याद यानी शायद। इस तरह के स्यादवाद के अनुसार शायद यह भी सच है या शायद इसकी ठीक उल्टी बात भी सच है। किसी चीज के बारे में निश्चितता से कुछ नहीं कहा जा सकता इसलिए उसमें शायद की एक गुंजाइश बनी रहती हैै। स्यादवाद संभवतः जैन धर्म की अहिंसा की धारणा से पैदा हुआ है क्योंकि स्यादवादियों को ठोक-ठोक सही घोषित किये जाने वाले सच में हिंसा की बू आई हो। पर यह एक मजेदार सवाल है कि यदि स्यादवादियों से पूछा जाता कि उनके अपने स्यादवाद पर भी क्या ‘शायद सच’ का सिद्वान्त लागू होता है, तो उनका जवाब क्या होता!
संदेहवाद की एक धारा प्राचीन यूनान में थी। इनका कहना था कि किसी बात के पक्ष-विपक्ष में ढेरों बातें कही जा सकती हैं और दोनों को प्रमाणित किया जा सकता है। ऐसी कहानियाँ मिलती हैं कि संदेहवाद के एक दार्शनिक ने आज एक बात प्रमाणित की और फिर अगले दिन उसकी उल्टी बात प्रमाणित कर दी। इनका भी निष्कर्ष यही था कि इसी कारण किसी भी चीज के बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इंसानी चेतना से बाहर दुनिया के अस्तित्व को नकारने वाले भारत के भाववादियों ने भी दुनिया के अस्तित्व को नकारने के लिए इस संदेहवाद का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि हमें अंधेरे में रस्सी को देखकर सांप का संदेह होता है हालांकि वहां सांप नहीं होता। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञानेन्द्रियों से जो ज्ञान हासिल होता है वह सही है। इसीलिए सारी दुनिया ही सांप की तरह केवल भ्रम है।
अपने को संदेहवादी न कहने वाले, पर तब भी मानव ज्ञान की सीमा घोषित करने वाले एक प्रसिद्व वैज्ञानिक इमैनुएल कांट है। कांट का कहना था कि हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) से बाहर की दुनिया का सीधा ज्ञान हासिल नहीं करते। ज्ञानेन्द्रियों से हमारे मस्तिष्क को जो संवेदनाएं मिलती हैं उससे ‘इंट्रयूशन’ सक्रिय होते हैं। ये ‘इंट्रयूशन’ (अचेत संवेदना) इंसान के मस्तिष्क में जन्मजात होते हैं। इसी तरह मस्तिष्क में कुछ ‘धारणाएं’ (कंसेप्ट) भी जन्मजात होते हैं। ये जन्मजात ‘इंट्रयूशन’ और ‘कंसेप्ट’ मिलकर मस्तिष्क में किसी चीज के बारे में ज्ञान पैदा करते हैें। इन्हीं के और जटिल परिणाम के तौर पर भांति-भांति की चेतना पैदा होती है। इस तरह कांट के अनुसार ज्ञान का प्रेरक जहाँ बाहरी दुनिया से प्राप्त संवेदना है वहीं उसका आधार मस्तिष्क में पहले से मौजूद (ए प्रायरी) ‘इंट्रयूशन’ और ‘कंसेप्ट’ हैं।
कांट के अनुसार उपरोक्त में यह निहित है कि ज्ञान के लिए बाहरी दुनिया से संवेदन जरूरी होने के बावजूद क्या ज्ञान होगा यह स्वयं मस्तिष्क निर्धारित करता है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में बात करें तो मनुष्य के कान के पर्दे पर बहुत सारी ध्वनि तरंगे टकराती हैं पर मनुष्य के मस्तिष्क तक उनमें से कुछ की ही संवेदना पहुंचती है और इससे भी आगे मस्तिष्क इसमें से कुछ का ही संज्ञान लेता है। यही आँख के साथ भी होता है। शोर-शराबे वाली जगह पर मस्तिष्क कुछ ध्वनियों पर ही ध्यान देता है- जिस पर आप केन्द्रित हैं। इसी तरह आँख के सामने आने वाले समूचे दृश्य को मस्तिष्क संज्ञान में नहीं लेता। लेकिन ये सब उदाहरण केवल बात को समझने के लिए हैं। कांट दूसरे स्तर पर बात कर रहे होते हैं। अपनी इस धारणा के कारण कांट कहते हैं कि किसी वस्तु को हम अपने मस्तिष्क के हिसाब से ही जानते हैं। वह अपने आप में कैसी है हम नहीं जान सकते। वे और भी आगे जाते हैं तथा कहते हैं कि जिसे हम प्रकृति के नियम कहते हंै वास्तव में वे भी हमारे मस्तिष्क के ‘इंट्रयूशन’ व ‘कंसेप्ट’ की उपज हैं। प्रकृति के वास्तविक नियम क्या हैं, हम नहीं जानते और न जान सकते हैं।
मानव ज्ञान के बारे में संदेह या मानव ज्ञान की सीमा बताने वाले इन दार्शनिकों और दार्शनिक धाराओं के विपरीत दार्शनिकों की एक दूसरी धारा भी थी जो घोषित करती थी कि दुनिया को जाना जा सकता है और वह ज्ञान सही है। मजे की बात यह है कि ऐसा कहने वालों में भाववादी और भौतिकवादी दोनों थे। इनमें भी ईश्वरवादी और निरीश्वरवादी दोनों थे।
प्राचीन यूनान में प्लेटो यानी अफलातून ने सोफीवादियों के मानव केन्द्रित ज्ञान का खंडन करते हुए कहा था कि मानव का ज्ञान शुद्ध रुप में मौजूद माॅडल, जिसे वे ‘फार्म’ या ‘आइडिया’ कहते थे, से अपना हिस्सा बटाने के कारण सच्चा होता है। उनके अनुसार हर ज्ञान का एक ‘फार्म’ मौजूद होता है मसलन एक घोड़े, या बकरी या त्रिभुज या सुन्दरता या न्याय का फार्म मौजूद होता है। प्लेटो यह नहीं बताते यह कहाँ मौजूद होता है- इस दुनिया में, परलोक मेें था तीसरी जगह। मानव आत्मा इससे परिचित हो जाती है। और जब बाहरी दुनिया से संवेदना मस्तिष्क तक पहँुचती है तो आत्मा में ‘फार्म’ के इस परिचय से तुरंत वस्तु या भाव का ज्ञान हो जाता है। यह ज्ञान सच्चा और सही होता है। कांट की तरह यहां भी ज्ञान का आधार आत्मा में मौजूद पहले से मौजूद (ए प्रायरी) ‘फार्म’ का सांचा है जो बाहरी संवेदन से उद्दीप्त हो जाता है। पर कांट की तरह यहां ज्ञान पर कोई संदेह या सीमा नहीं है क्योंकि हर वस्तु का एक माॅडल ‘फार्म’ होता है और मानव आत्मा उसी से अपना सांचा ग्रहण करती है।
हालांकि अफलातून ईश्वर को मानते थे पर उनके दर्शन में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं थी। पर संवेदनवादी बर्कले का मामला भिन्न था। बिशप बर्कले अठाहरवीं सदी में डेविड ह्यूम के ठीक पहले हुए थे। उनका कहना था कि हमारे ज्ञान का आधार हमारी संवेदनाएं हैं। पर वे संवेदनाओं का स्रोत मस्तिष्क से मौजूद बाहरी दुनिया और उसका मानव ज्ञानेन्द्रियों पर पड़ने वाला प्रभाव नहीं मानते थे। उनके अनुसार मानव संवेदनाओं का स्रोत ईश्वर था। सर्वशक्तिमान ईश्वर सारे ही मानव मस्तिष्कों में किसी वस्तु या घटना के बारे में एक ही तरह की संवेदनाएं पैदा करता है और इन संवेदनाओं के योग या समुच्चय से ज्ञान पैदा हो जाता है। किसी वस्तु के आकार, रंग, सतह, इत्यादि के बारे में जो संवेदना मस्तिष्क को प्राप्त होती है उनके योग या समुच्चय से उस वस्तु का ज्ञान हो जाता है। चूंकि इन सबका स्रोत ईश्वर है, इसलिए यह ज्ञान सच्चा होता है।
मस्तिष्क से बाहर की दुनिया, और इसीलिए अन्य इंसानों व स्वयं अपने शरीर, को नकारने वाला ज्ञान का यह सिद्वान्त ईश्वर पर आधारित था। पर बाहरी दुनिया को नकारने वाले ज्ञान के ऐसे सिद्धान्त भी हैं जो ईश्वर पर आधारित नहीं हैं। भारत के अद्वैत वेदान्त को लीजिए। अद्वैत वेदांत के अनुसार एक मात्र मूलभूत सच्चाई ब्रह्म है। यह ब्रह्म, रूपहीन, गुणहीन है। इसे केवल न-न से परिभाषित किया जा सकता है- यह भी नहीं, यह भी नहीं। आत्मा इसी का हिस्सा है जो माया के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में फंस गई है। यह दुनिया माया है अथवा मिथ्या है। मानव ज्ञान का मतलब है ब्रह्म और आत्मा के बारे में इस सच्चाई से अवगत होना। यह किसी ज्ञानेन्द्रिय संवेदन से नहीं हो सकता। यह तो केवल विशुद्ध चिन्तन से ही हो सकता है। विशुद्ध चिन्तन से इस सत्य तक पहंुचने के बाद आत्मा माया के बन्धन से मुक्त हो जाती है और ब्रह्म से मिलकर मोक्ष को प्राप्त होती है। अद्वैत वेदान्त विशुद्ध चिन्तन पर आधारित होने के कारण संवेदनों से प्राप्त ज्ञान को नकारता है।
इन ईश्वरवादियों या निरीश्वरवादी भाववादियों के विपरीत भौतिकवादियों ने हमेशा ही यह माना कि मानव मस्तिष्क से बाहर एक दुनिया स्वतंत्र तौर पर मौजूद है, इस दुनिया की छाप मस्तिष्क पर ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पड़ती है और इसी से मानव ज्ञान उत्पन्न होता है। इस तरह दुनिया को जाना जा सकता है।
आरंभिक भौतिकवादी मानव ज्ञान की प्रकिया के बारे में बहुत स्पष्ट नहीं थे। पर वे इस बात पर दृढ़ थे कि मानव ज्ञान का स्रोत बाहरी दुनिया, ज्ञानेन्द्रियां और मानव मस्तिष्क हैं। वे अपने समय के विज्ञान के हिसाब से इसकी व्याख्या करने का प्रयास करते थे। आम तौर पर माना गया कि ज्ञान दो तरह का होता है- प्रत्यक्ष और परोक्ष। ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है तथा मस्तिष्क में तर्क-वितर्क के द्वारा परोक्ष ज्ञान। पर परोक्ष ज्ञान का भी मूल आधार प्रत्यक्ष ज्ञान ही होता है।
आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद के अनुसार मानव ज्ञान की प्रक्रिया को दो स्तर पर समझा जा सकता है। एक सामान्य दार्शनिक स्तर पर तथा दूसरा जैव वैज्ञानिक स्तर पर।
इस दर्शन के अनुसार मानव ज्ञान का आधार मानव का श्रम है। मानव श्रम का मतलब है प्रकृति की वस्तुओं को इंसान की जरुरतों के हिसाब से ढालना। इसके लिए ज्ञानेन्द्रियों के अलावा हाथ-पांव और मुंह की जरुरत पड़ती है, खासकर हाथ की। इंसानी जरुरत के हिसाब से चीजों को ढालने की प्रकिया में ही चीजों का ज्ञान होता चला जाता है और फिर तर्क-वितर्क के द्वारा अन्य तरह के ज्ञान पैदा होते हैं। इस तरह ज्ञान को कर्म से अलग नहीं किया जा सकता। चूंकि यह ज्ञान इंसानी जरूरत को पूरा करने के लिए होता है, इसलिए यदि ज्ञान मूलतः गलत होगा तो जरुरत पूरी नहीं हो सकती। इस तरह इंसानी जरुरत से पैदा होने के कारण ही ज्ञान कम या ज्यादा मात्रा में सही होता है तथा समाज के विकास के साथ और ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होता चला जाता है।
मानव ज्ञान की यह प्रक्रिया तीन चरणों में सम्पन्न होती हैं। पहले चरण में इन्द्रिय संगत ज्ञान होता है जो इन्द्रियों से प्रत्यक्ष तौर पर हासिल होता है। दूसरे चरणों में इस इंद्रिय संगत ज्ञान के आधार पर तर्क-वितर्क होता है और इन्द्रिय संगत ज्ञान तर्क संगत या बुद्धि संगत ज्ञान में बदल जाता है। तीसरे चरण में यह तर्क संगत ज्ञान व्यवहार में परखा जाता है और इसके सही या गलत होने का फैसला होता है। यहीं से इन्द्रिय संगत ज्ञान की एक नयी श्रृंखला शुरु होती है।
इस तरह मानव ज्ञान का स्रोत मानव व्यवहार है। मानव शरीर और मस्तिष्क इसी के अनुरूप विकसित हुआ है। इस विकास में ही यह अंतर्निहित है कि व्यवहार से प्राप्त और व्यवहार में परखा जाने वाला ज्ञान मूलतः न तो गलत हो सकता है और न ही उस तरह की सीमा में बंधा जैसा कि कांट का दर्शन कहता है। आज जब मानव किसी चीज को जानकर उसके घटक तत्वों से उसे पैदा कर सकता है (जैसे आक्सीजन और हाइड्रोजन गैस से पानी) तब यह नहीं कहा जा सकता कि उसे जाना नहीं जा सकता या इसके कुछ पक्ष मानव ज्ञान से परे हैं।
जीव विज्ञान के हिसाब से देखें तो जीवों में संज्ञान की प्रकिया वातारण में उनके जिन्दा रहने के लिए और सन्तानोत्पति के लिए उनमें अंतः निर्मित हुई। सबसे साधारण एक कोशिकीय जीव अमीबा भी रासायनिक आकर्षण और प्रतिकर्षण के सरल नियमों से संज्ञान की यह प्रक्रिया सम्पन्न करता है। वह ऐसे रासायनिक अणुओं की ओर आकर्षित होता है जो उसके पोषण के लायक होते हैं तथा उन अणुओं से दूर भागता है जो उसके लिए हानिकारक होते हैं। यह सरल रासायनिक प्रभाव अमीबा की कोशिका की झिल्ली के अणुओं तथा पानी में मौजूद संबन्धित अणुओें के बीच आकर्षण-प्रतिकर्षण से सम्पन्न होती है।
थोड़े और विकसित जन्तुओं में यह क्रिया विशेष कोशिकाओं के जरिए सम्पन्न होती है। इन्हें न्यूरान कोशिकाएं कहते हैं। शुरुआती जीवों में दो-चार दर्जन न्यूरान कोशिकाएं ही जीव के लिए वातावरण के ज्ञान का काम सम्पन्न कर देती हैं। कुछ और विकसित जीवों में न्यूरान कोशिकाओं की संख्या तेजी से बढ़ती है और उनको एक जगह इकट्ठा कर गाठें (गैंगेलिया) भी बनने लगती हैं। न्यूरान कोशिकाओं की यह व्यवस्था उच्चतर जीवों में जटिल से जटिलतर होती जाती है और अपने चरम रूप में मनुष्य में मिलती है। मनुष्य में यह विकसित मस्तिष्क, तंत्रिका तंत्र और सिंपैथेटिक व पैरासिंपैथेटिक सिस्टम के तौर पर मिलती है। इस सब में मूलभूत इकाई न्यूरान कोशिका ही होती है। इसके अनुपूरक के तोैर पर अंतः स्रावी ग्रन्थियों की एक व्यवस्था भी होती है।
अमीबा से इन्सान तक पहुंचकर अपने वातारण के जीव द्वारा संज्ञान की यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और विकसित हो जाती है। इंसान न केवल अपने वातारण में जिन्दा रहने और सन्तानोत्पति के लिए ज्ञान पाने लायक होता है बल्कि वह स्वयं अपने बारे में व अपनी चेतना के बारे मेें ज्ञान पाने लायक बन जाता है। फिर भी इस जैव विकास में निहित मूलभूत प्राकृतिक सिद्धान्त वही रहता है- जीव और उसकी प्रजाति की जीवितता। यही संज्ञान के मूलभूत तौर पर सही होने को सुनिश्चित करती है अन्यथा जीव या उसकी प्रजाति बच नहीं सकती।
संज्ञान और तर्क-वितर्क की प्रक्रिया इंसान में किस तरह घटित होती है, जीव विज्ञान अभी इसका खुलासा करने से बहुत दूर है। पर कुछ चीजें स्पष्ट हो चुकी हैं। कभी स्पिनोजा ने कहा था कि ‘मानव चेतना ईश्वर द्वारा मानव शरीर का विचार’ है। यहाँ ईश्वर का मतलब परम्परागत ईश्वर नहीं है बल्कि स्वयं प्रकृति या पदार्थमय प्रकृति है। यह देखते हुए कि स्वयं मानव मस्तिष्क भी पदार्थ से बना हुआ है, स्पिनोजा के इस कथन का यह अर्थ लगाया जा सकता है कि मानव शरीर में परिवर्तन का संज्ञान मानव मस्तिष्क में चेतना पैदा करना है। यह परिवर्तन वातावरण द्वारा शरीर में लाया जा सकता है या फिर आंतरिक कारणों से। जब प्रकाश की किरणें या ध्वनि तरंगे क्रमशः आँख या कान पर पड़ती हैं तो वे वहाँ कुछ परिवर्तन पैदा करती हैं। इस परिवर्तन का संदेश तंत्रिका तंत्र के विद्युत संवेदनों के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचता है और मस्तिष्क इससे संज्ञान हासिल करता है। इसी तरह पेट में दर्द भी मस्तिष्क तक पहुंचता है।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार बाहरी और भीतरी सारे संवेदन न्यूरान कोशिकाओं के जरिए विद्युत संकेतों के रूप में मस्तिष्क तक पहुँचते हैं। अलग-अलग ज्ञानेन्द्रियों से संकेत मस्तिष्क के अलग-अलग भागों में पहुँचते हैं। इसी तरह शरीर के अंदरुनी हिस्से से भी। मानव मस्तिष्क इन संवेदनों को मिलाकर एक चित्र बनाता है जिससे संज्ञान की प्रक्रिया पूरी होती है। यह जटिल प्रक्रिया होती है और मस्तिष्क के बहुत सारे हिस्से इसमें भाग लेते हैं। इससे शुरुआती इन्द्रिय संगत ज्ञान प्राप्त होता है। इससे आगे तर्क-वितर्क के जरिए कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया मस्तिष्क के अन्य हिस्सों द्वारा सम्पन्न की जाती है।
अभी जीव विज्ञान इससे आगे नहीं जा पाया है। मस्तिष्क की न्यूरान कोशिकाएं कैसे इन क्रियाओं को सम्पन्न करती हैं अभी पता नहीं। पर जिस भी रूप में वे इन्हें सम्पन्न करती है, क्या वे रूप पैदाइशी यानी जन्मजात होते हैं? क्या प्लेटो या कांट का कहना सही था कि संज्ञान का सांचा मस्तिष्क मेें पहले से मौजूद रहता है जिसमें संवेदन के द्वारा उद्दीपन से ज्ञान पैदा हो जाता है?
अभी तक जीव विज्ञान का इस संबंध में जो उत्तर है वो सामान्य उत्तर है। वह यह कि जीवों में एक संभावना अंतर्निहित तौर पर विद्यमान होती है पर उसका वास्तविक फलन वातावरण पर निर्भर करता है। बीज में वृक्ष बनने की सम्भावना मौजूद होती है पर वह वृक्ष बनेगा कि नहीं या कितना स्वस्थ या अस्वस्थ वृक्ष बनेगा यह वातावरण पर निर्भर करता है। बीज में अंतर्निहित संभावना उस बीज के पौधे की प्रजाति के जैव विकास के पूरे काल को अपने भीतर समेटे होती है और उसी के कारण निर्मित होती है। मानव ज्ञान और चेतना की बात करें तो वह भी इसी तरह है। मानव भ्रूण में मानव चेतना तक पहुॅचने की एक संभावना मौजूद होती है। यह संभावना स्वयं मानव की प्रजाति के समूचे जैव विकास का परिणाम है। इसी कारण यह संभव है कि यदि भ्रूण सामान्य तौर पर विकसित हो तो सामान्य मानव चेतना वाला व्यक्ति बन जाऐगा। वह समय के साथ भाषा सीख जायेगा। अपने आस-पास के वातावरण के बारे में जान जायेगा, अच्छे बुरे की, सही-गलत की धारणा बना लेगा इत्यादि-इत्यादि। इस सबकी संभावना भू्रण में निहित होती है और मानव जैव विकास का परिणाम होती है। यह संभावना मानव के अलावा अन्य जीवों मेें नहीं होती। उनमेें निम्नतर स्तर की संभावना होती है। यदि इस संभावना को ‘ए प्रायरी’ या पहले से दिया गया कहा जाये तो यह वास्तव में समूची मानव जाति के अतीत के अनुभवों का परिणाम होती है। यानी कि इसका भी कारण ‘ए प्रायरी’ नहीं बल्कि अतीत का अनुभव होता है- प्रजाति का अनुभव।
किसी व्यक्ति विशेष में यह संभावना उसके वातावरण में वास्तविकता बनती है। अब प्रजाति का नहीं बल्कि एक व्यक्ति का अपना अनुभव निर्णायक बनता है। संभावना वास्तविकता बनेगी या नहीं यह व्यक्ति विशेष के लालन-पालन और वातावरण पर निर्भर करता है। मसलन यदि एक बच्चा पैदा होने से लेकर वयस्क बनने तक जानवरों के बीच पले-बढे़ तो उसकी भाषा की क्षमता कुंद हो जायेगी। बच्चे के बहरा होने पर उसके बोलने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो जाती है हालांकि स्वर यंत्र और भाषा-बोली से सम्बन्धित मस्तिष्क के हिस्से ठीक होते हैें। स्वयं बच्चे के मस्तिष्क का जैविक विकास और मस्तिष्क की कार्य क्षमता का विकास एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुड़े होते हैं। दोनों एक दूसरे को गहनता से प्रभावित करते हैं। इस रूप में मस्तिष्क कंप्यूटर से बिल्कुल भिन्न होता है। कंप्यूटर को पूरा निर्मित कर फिर उसे चलाने के लिए और उससे काम लेने के लिए प्रोग्राम या साफ्टवेयर उसमें डाले जाते हैं। हार्डवेयर पहले बनता है और उसमें साफ्टवेयर बाद में डाला जाता है। पर मानव मस्तिष्क में हार्डवेयर और साफ्टवेयर साथ-साथ विकसित होते हैं। मस्तिष्क की न्यूरान कोशिकाओं का विकास और उनका आपस में सम्बन्ध स्थापित करना साथ ही यह सुनिश्चित करता है वह क्या काम करेगा। बल्कि वह करने भी लगता है या यूं कहें कि काम करने की प्रक्रिया में ही यह सम्बन्ध विकसित होता है।
इस तरह मानव प्रजाति का विकास और फिर इस प्रजाति के किसी व्यक्ति का अपना विशिष्ट विकास इस बात को सुनिश्चित करता है कि यह व्यक्ति मानव संज्ञान और मानव चेतना की क्षमता से लैस हो। यह मानव प्रजाति के कुल अनुभव और विशिष्ट व्यक्ति के अपने अनुभवों के समुच्चय का परिणाम होता है।
मानव चेतना के लिए इतनी जरूरी भाषा को ही लें। भाषा की क्षमता मानव प्रजाति में लम्बे समय में विकसित हुई। इससे सम्बन्धित स्वर यंत्रो का विकास तथा मस्तिष्क में इससे संबंधित हिस्सों का विकास जैव विकास के लम्बे समय में हुआ। जैविक तौर पर भाषा की यह क्षमता विकसित होने के बाद स्वयं भाषाओं का विकास लम्बे समय में हुआ। भाषा की जैविक संभावना एक लम्बे समय में ही मानव समाज में वास्तविकता बन सकी। उसके बाद हम पाते हैं कि जब कोई इन्सानी बच्चा विकसित होता है तो वह यह जैविक और सामाजिक विकास यात्रा फिर पूरी करता है। शुरू के एक साल तक वह रोने के अलावा कुछ नहीं बोल पाता। फिर वह एक-एक शब्द सीखना और बोलना शुरू करता है। धीमे-धीमे वह दो शब्द और फिर ज्यादा शब्दों तक पहुंचता है। अंत में वह वाक्य निर्माण करना सीख जाता है। इस प्रकिया में वह शब्दों के अर्थ भी सीखता जाता है। बाद में वह वाक्यों के अर्थ सीखता है। अंततः वह तर्क-वितर्क करना सीख जाता है। समय के साथ वह भाषा में निहित मूल्यों को भी सीख जाता है। बच्चे में भाषा सीखने-बोलने की क्षमता अंतर्निहित होती है जो उसके जैव विकास का परिणाम होती है। पर स्वयं भाषा सामाजिक विकास का परिणाम होती है और बच्चे के द्वारा इसे वास्तव में सीखना बच्चे के अपने व्यक्तिगत विकास पर निर्भर करता है।
सामान्य तौर पर मानव ज्ञान और मानव चेतना के बारे में भी यही सच है।
इस तरह देखे तो आज मानव ज्ञान और मानव चेतना का सवाल, उसकी प्रकृति और प्रक्रिया का सवाल वास्तव में विज्ञान का सवाल बन गया है-प्रथमतः जीव विज्ञान का और गौण स्तर पर मनोविज्ञान का ।
भविष्य में विज्ञान का विकास इसे अधिकाधिक और स्पष्ट करेगा।
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