गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

जैव-जगत में ऊर्जा प्रवाह

-जाकिर
        धरती पर जीवन का स्रोत सूरज है यह बात अजीब लगती है पर यह बात सच हैं। यह इसलिए सच है कि सभी गतिमान चीजों की तरह जीवन के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होती हैै और धरती के जीवों को यह ऊर्जा सूरज से हासिल होती है।
        धरती के जीव सूरज से यह ऊर्जा कैसे हासिल करते हैं और कैसे इसे इस्तेमाल करते हैं, यही इस लेख का विषय है।

        पर जीवों पर आने से पहले भौतिक और रसायनशास्त्र की कुछ सामान्य बातें जान लेना फायदेमन्द होगा। 
        सूरज से जो ऊर्जा धरती पर आती हैै वह मुख्यतः प्रकाश तरंगों के रूप में होती है जिन्हेें भौतिकशास्त्र में विद्युत-चुंबकीय तरगें कहते हैं। इन तरंगों की ऊर्जा इस बात पर निर्भर करती है कि इनकी कंपन संख्या (प्रति सेकण्ड) क्या है। ज्यादा कंपन करने वाली तरंगेें ज्यादा ऊर्जा की होती हैं। प्रकाश के सात रंगों में (जो इन्द्रधनुष में दिखाई पड़ते हैं) लाल तरंग सबसे कम ऊर्जा की होती है जबकि बैगनी तरंग सबसे ज्यादा ऊर्जा की। बैंगनी से पहले हरी तरंग आती है। भौतिकशास्त्र यह भी कहता है कि यह ऊर्जा पैकेटों में होती है और इन पैकेट को फोटान कहते हैं।
        सभी चीजों की तरह जीव (चाहे वह जन्तु हो या वनस्पति) अणुओं से बने होते हैं और ये अणु परमाणुओं से। मसलन पानी रासायनिक तौर पर H2O नामक अणु है जो हाइड्रोजन के दो और आक्सीजन के एक परमाणु से बनता है। ब्रह्माण्ड में कुल करीब एक सौ पंद्रह तरह के परमाणु हैं मसलन हाइड्रोजन, आक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन इत्यादि। सारे जैविक और अजैविक अणु इन्हीं परमाणुओं से बनते हैं और उनका सामान्य सिद्धान्त भी एक ही है। परमाणु आपस में तीन तरह से बंधन बनाते हैं जिससे विभिन्न तरह के अणुओं का निर्माण होता है। परमाणुओं के बीच इन बन्धनों का बनना-बिगड़ना अणुओं के बनने-बिगड़ने का कारण है और इसी क्रिया को रासायनिक क्रिया कहते हैं। 
        परमाणुओं के बीच बन्धन बनने की रासायनिक क्रिया में ऊर्जा भी शामिल होती है। कुछ रासायनिक क्रियाओं में ऊर्जा की आवश्यकता होती है जबकि कुछ रासायनिक क्रियाओं में ऊर्जा निकलती है। कुछ रासायनिक क्रियाएं जो लंबी होती हैं और कई चरणों से गुजरती हैं (जैसा कि अक्सर जैव रासायनिक क्रियाएं होती हैं) उनमें तो बारी-बारी से दोनों हो सकता है। जब रासायनिक क्रिया के लिए ऊर्जा की आवश्यकता हो और वह न मिले तो रासायनिक क्रिया संपन्न नहीं हो सकती। 
        रासायनिक क्रियाओं के दौरान ऊर्जा की यह जरूरत दो तरीके से पूरी हो सकती है। एक तो यह कि बाहर से गर्मी प्रदान की जाये यानि क्रिया के संघटकों को गरम किया जाये। दूसरा तरीका यह है कि रासायनिक क्रिया के दौरान ही कोई अणु ऊर्जा मुक्त करे और इस क्रिया के लिए ऊर्जा प्रदान करे। 
        जैव रासायनिक क्रियाओं में यह दूसरा तरीका ही इस्तेमाल में लाया जाता है। जीवों में कुछ ऐसे जैविक अणु होते हैं जिनका काम ही यह होता है कि वे ऊर्जा का संवहन करें यानि ऊर्जा को यहां से वहां ले जायें। मसलन एटीपी या एडोनेसीन ट्राई फोस्फेट। यह ऊर्जा संपन्न अणु है। यह ऊर्जा की जरूरत की जगह टूट जाता है और एडीपी यानि एडोनेसीन डाई फोस्फेट बन जाता है। फास्फेट का एक परमाणु अलग हो जाता है लेकिन साथ ही इसके साथ बंधी ऊर्जा भी मुक्त हो जाती है जो किसी जैव रासायनिक क्रिया में काम आती है। यही एडीपी किसी दूसरी जगह ऊर्जा हासिल कर एटीपी में बदल जाता है यानि ऊर्जा संपन्न अणु बन जाता है। जीवों में एटीपी अणु का यही काम है। 
        लेकिन एटीपी अणु तो केवल ऊर्जा का संचालन या परिवहन करता है। वह सूरज से ऊर्जा सोखता नहीं है। तो फिर जीवों में यह काम कौन करता है? कौन सा अणु किस प्रक्रिया में सूरज के प्रकाश में निहित ऊर्जा को अवशोषित कर कैद कर लेता है? सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि जीवों में ऊर्जा का मूल अणु ग्लूकोज है जिसका रासायनिक सूत्र C6H12Oहै यानि कार्बन के छः परमाणु, हाइड्रोजन के बारह परमाणु और आक्सीजन के छः परमाणु। ऊर्जा के बाकी अणु जिनको सामान्य तौर पर कार्बोहाइड्रेट कहते हैं और जिसमें यह ग्लूकोज भी शामिल है, इसी ग्लूकोज से बने होते हैं यानि ग्लूकोज की कई इकाईयां मिलकर भांति-भांति के कार्बोहाइड्रेट के अणु बनाती हैं। 
        इस ग्लूकोज अणु के बारे में यह माना जाता है कि प्रकाश तरंगों की उपस्थिति में पेड़-पौधे पानी और कार्बन डाई आक्साईड COके अणुओं को आपस में मिलाकर ग्लूकोज अणु बना देते हैं जिसमें आक्सीजन गैस मुक्त हो जाती है। लेकिन साथ ही प्रकाश तरंगों में निहितऊर्जा इस ग्लूकोज अणु में कैद हो जाती है। बाद में जब जीव को ऊर्जा की आवश्यकता होती है तो यह ग्लूकोज अणु आक्सीजन के साथ मिलकर टूट जाता है और फिर पानी और कार्बन डाई आक्साइड में बदल जाता है। पर अब ग्लूकोज में कैद ऊर्जा मुक्त हो जाती है। जिसे एडीपी सोख कर एटीपी में बदल जाता है। रसायनशास्त्र की भाषा में इसे इस तरह दिखाते हैंः


                                                                           


        स्पष्ट है कि पेड़-पौधे सूरज के प्रकाश में निहित ऊर्जा को सीधे ग्रहण करते हैं और इस्तेमाल करते है तो फिर जन्तु इसे कैसे हासिल करते हैं? कुछ जन्तु वनस्पतियां खाते हैं और इस तरह उनमें निहित कार्बोहाइड्रेट पा जाते हैं। ये जन्तु शाकाहारी होते हैं। मांसाहारी जन्तु इन शाकाहारी जन्तुओं को खाते हैं और उनमें मौजूद कार्बोहाइड्रेट को हासिल कर लेेते हैं। इस तरह सूरज के प्रकाश में निहित ऊर्जा पेड़-पौधों से होते हुए मांसाहारी जन्तुओं तक पहुंच जाती है। यहां यह रेखांकित करना होगा कि कार्बोहाइडेªट में कैद ऊर्जा को हासिल करने की प्रक्रिया या रासायनिक क्रिया सभी जीवों में(कम से कम आक्सीजन पर निर्भर जीवों में, जिसमें आज ज्यादातर जीव आते हैं) एक ही होती है चाहे वे वनस्पति हों या जन्तु।
        ग्लूकोज और कार्बोहाइड्रेट के अन्य अणु जीवों में ऊर्जा का भंडार हैं जबकि एटीपी जैसे अणु इस ऊर्जा को परिवहन वाले अणु- इस रासायनिक क्रिया तक पहुंचानें वाले। यहां तक मामला काफी सरल लगता है। लेकिन मामला थोड़ा और पेंचीदा है और इस पेंचीदगी में जाने पर हम पाते हैं कि ग्लूकोज अणु ऊर्जा का भंडारण जरूर करता है पर वह सूरज के प्रकाश में निहित ऊर्जा को अवशोषित व कैद नहीं करता। यह कहीं और होता है तथा स्वयं ग्लूकोज के निर्माण के लिए एटीपी अणुओं की जरूरत पड़ती है। ये एटीपी कहीं और से ऊर्जा हासिल करते हैं। 
        पेड़-पौधों द्वारा सूरज की ऊर्जा को अवशोषित करना और उससे अंततः ग्लूकोज अणु का निर्माण करना एक लंबी और जटिल क्रिया है जिसे फोटोसिन्थिसिस कहते हैं। यह फोटोसिन्थिसिस पेड़-पौधों के सभी हरे हिस्सों में होती है चाहे वे पत्तियां हो या तने। बल्कि पेड़-पौधों में फोटोसिन्थिसिस करने वाली संरचना के हरे रंग के कारण ही इनमें हरा रंग आता है। इस हरे रंग को प्रदान करने वाली संरचना को क्लोरोफिल कहते हैं। 
  क्लोरोफिल बहुत सारे परमाणुओं वाला एक अणु है जिसके केन्द्र में मैग्नीशियम का एक परमाणु होता है। चूंकि मैग्नीशियम कम मात्रा मेें पाया जाता है जबकि यह क्लोरोफिल की संरचना के लिए जरूरी है इसलिए पत्ते जब पुराने पड़ जाते हैं तो सूखने और झड़ने से पहले पेड़ इसमें निहित मैग्नीशियम को खींच लेते हैं। इसलिए पेड़ों की पत्तियां सूखने से पहले पीली या लाल हो जाती हैं।      
  क्लोरोफिल का यह अणु पत्तियों या हरे तनों की सतह पर होता है जिससे वह प्रकाश के ज्यादा से ज्यादा नजदीक रहे। जब प्रकाश की तरंग इस सतह पर पड़ती है तो उसमें मौजूद क्लोरोफिल अणु प्रकाश तरंग के फोटान से सक्रिय हो जाता है। यह कैसे होता है और फोटान में निहित ऊर्जा क्लोरोफिल अणु में कैसे स्थानांतरित हो जाती है?
  इसे समझने के लिए परमाणु की संरचना पर थोड़ा ध्यान दें। सभी परमाणुओं में तीन तरह के मूल कण होते हैं- इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान(हाइड्रोजन को छोड़कर जिसमें न्यूट्रान नहीं होता)। जहां प्रोटान और न्यूट्रान परमाणु के केन्द्र में छोटे से नाभिक में होते हैं वहीं इलेक्ट्रान इस नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। इलेक्ट्रान ऋण आवेशित होते हैं जबकि प्रोटान धन आवेशित और किसी भी परमाणु में इनकी संख्या बराबर होती है। इसीलिए परमाणु न्यूट्रल या अनावेशित होते हैं। न्यूट्रान अनावेशित होते हैं तथा इनकी संख्या प्रोटानों के बराबर या उससे थोड़ी अधिक होती है। हाइड्रोजन परमाणु में एक प्रोटान तथा एक इलेक्ट्रान होता है जबकि आक्सीजन परमाणु में आठ इलेक्ट्रान, आठ प्रोटान तथा आठ न्यूट्रान। 
  जैसा कि ऊपर कहा गया है, जहां प्रोटान और न्यूट्रान परमाणु के केन्द्र में छोटे से नाभिक में रहते हैं वहीं इलेक्ट्रान इस नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। लेकिन सारे इलेक्ट्रान नाभिक से समान दूरी पर चक्कर नहीं लगाते बल्कि वे अलग-अलग कक्षाओं में घूमते हैं। इन कक्षाओं की भी उपकक्षाएं होती हैं। इन उपकक्षाओं को भौतिकशास्त्र में s, p, d, f,  नाम दिया गया है। मसलन आक्सीजन के आठ इलेक्ट्रानों में से दो पहली कक्षा में हैं तथा बाकि छः दूसरी कक्षा में। दूसरी कक्षा के छः इलेक्ट्रानों में दो पहली उपकक्षा में होते हैं तो चार दूसरी उपकक्षा में। उपकक्षाओं में महत्तम संख्या क्रमशः 2, 6, 14 और 22 हो सकती है और ऐसा होने पर वह परमाणु रासायनिक तौर पर निष्क्रिय हो जाता है यानी वह रासायनिक बन्धन नहीं बनाता। उदाहरण के लिए हाइड्रोजन में एक इलेक्ट्रान होता है तथा वह पहली कक्षा की पहली उपकक्षा में होता है। इसे यदि एक इलेक्ट्रान और मिल जाए तो यह उपकक्षा पूरी हो जाएगी (s-2) और हाइड्रोजन परमाणु स्थाई हो जायेगा। इसीलिए हाइड्रोजन परमाणु ऐसे बन्धन बनाता है जिसमें या तो वह अपना इकलौता इलेक्ट्रान त्याग दे या फिर एक और इलेक्ट्रान हासिल कर ले। इसके ठीक बाद का परमाणु हीलियम है जिसमें दो इलेक्ट्रान होते हैं। दो इलेक्ट्रान होने के चलते ही उपकक्षा s पूरी हो जाती है। इसीलिए हीलियम एक निष्क्रिय परमाणु है और बन्धन नहीं बनाता। इसके मुकाबले आक्सीजन में आठ इलेक्ट्रान होते हैं- दो पहली कक्षा की पहली उपकक्षा में तथा छः दूसरी कक्षा में जिसमें से दो पहली उपकक्षा में तथा चार दूसरी उपकक्षा में होते हैं। (यहां यह याद रखना होगा कि पहली कक्षा में s; दूसरी में s,p; तीसरी में s, p, d; चैथी में s, p, d, f, उपकक्षाएं होती हैं। बाद की कक्षाओं में भी यही उपकक्षाएं होती हैं क्योंकि प्रकृति में परमाणुओं की संख्या को देखते हुए इससे आगे कि जरूरत नहीं पड़ती)। चूंकि दूसरी उपकक्षा को स्थायी होने के लिए छः इलेक्ट्रान चाहिए इसीलिए आक्सीजन परमाणु ऐसे बन्धन बनाता है जिसमें उसे दो इलेक्ट्रान अतिरिक्त मिल जाएं। जब पानी के लिए आक्सीजन परमाणु दो हाइड्रोजन परमाणुओं से मिलता है तो यही होता है। हाइड्रोजन के दो परमाणुओं के दो इलेक्ट्रानों से आक्सीजन परमाणु को दो इलेक्ट्रान मिल जाते हैं। सारी ही रासायनिक क्रियाओं में परमाणु के स्तर पर यही होता है- इलेक्ट्रानों का आदान-प्रदान या साझा। आदान-प्रदान में ध्रुवीय बन्धन बनता है तो साझा में सहयोगी बन्धन। जहां H2O यानी पानी में इलेक्ट्रान का आदान-प्रदान होता है (हाइड्रोजन परमाणु इलेक्ट्रान देता है और आक्सीजन परमाणु इसे लेता है) वहीं CO2 यानी की कार्बन डाई आक्साइड में कार्बन का एक परमाणु और आक्सीजन के दो परमाणु अपने इलेक्ट्रान साझा करते हैं।
  उपरोक्त से यह भी स्पष्ट है कि रासायनिक क्रियाओं में इलेक्ट्रानों का यह आदान-प्रदान या उनका साझा सबसे बाहर के इलेक्ट्रानों के साथ होता है। भीतरी कक्षाओं या भीतरी उपकक्षाओं के इलेक्ट्रान इसमें भागीदारी नहीं करते। 
  अब ऐसा हो सकता है या ऐसा होता है कि जब इन इलेक्ट्रानों को टक्कर देकर इन्हें ऊर्जा दी जाये तो ऊर्जा हासिल कर ये कुछ समय के लिए ऊपर की उपकक्षा में या यहां तक कि ऊपर की कक्षा में चले जाऐं। लेकिन वहां वे बहुत थोडे़ समय (10-8 सेकेण्ड) ही रहते हैं तथा जल्दी ही हासिल की ऊर्जा त्यागकर पुनः अपनी मूल जगह वापस आ जाते हैं। खासकर बाहरी इलेक्ट्रानों यानी ऊपरी कक्षा के इलेक्ट्रानों के मामले में ऐसा हो सकता है कि वे ऊर्जा हासिल कर परमाणु से ही बाहर चले जाऐं और मुक्त इलेक्ट्रान बन जायें। 
  फोटोसिन्थिसिस (प्रकाश संश्लेषण) की क्रिया में यही होता है। प्रकाश तरंग के फोटान में निहित ऊर्जा, फोटान के क्लोरोफिल (पर्णहरिम) परमाणु के किसी इलेक्ट्रान से टकराने पर उसको स्थानांतरित हो जाती है। यह इलेक्ट्रान फोटोन की ऊर्जा हासिलकर मुक्त हो जाता है। लेकिन ऊर्जा युक्त यह मुक्त इलेक्ट्रान वापस अपनी जगह नहीं लौटता बल्कि इलेक्ट्रानों को मुक्त करने की एक पूरी श्रृंखला को शुरू करता है। इस श्रृंखला में एक के बाद एक कई परमाणुओं (खासकर पानी में मौजूद हाइड्रोजन परमाणुओं) के इलेक्ट्रान मुक्त होते हैं। इसी श्रृंखला में ऐसा होता है कि एडीपी अणु ऊर्जा ग्रहण कर एटीपी में बदल जाते हैं। इसी तरह इसी श्रृंखला में एन ए डी एच ऊर्जा ग्रहण कर एन ए डी पी एच नामक ऊर्जा परमाणु में बदल जाता है जो रासायनिक क्रियाओं में वही भूमिका निभाता है जो ए टी पी। 
  इस तरह सूरज के प्रकाश में निहित ऊर्जा क्लोरोफिल (पर्णहरिम) अणु द्वारा अवशोषित होकर अंततः ए टी पी या एन ए डी पी एच में तात्कालिक तौर पर कैद कर दी जाती है। यह क्रिया पत्ती या पेड़-पौधों की हरी सतह पर होती है और स्वभावतः ही इसके लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। जीव विज्ञान में इसीलिए इसे प्रकाश क्रिया कहते हैं। इसके बाद इस तात्कालिक तौर पर कैद ऊर्जा को स्थाई तौर पर ग्लूकोज अणु में कैद करने की क्रिया पेड़-पौधों में मौजूद क्लोरोप्लास्ट में सम्पन्न होती है। इसके लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिए इसे डार्क रिएक्शन या अंधेरे की क्रिया कहते हैं। जैसा कि पहले बताया गया है ग्लूकोज अणु का निर्माण पानी और कार्बन डाई आक्साइड के अणुओं से होता है और उसमें एटीपी में कैद ऊर्जा इस्तेमाल होती है, वह क्रिया जो एटीपी को प्रकाश क्रिया से मिली थी। कहने की बात नहीं कि यह क्रिया भी कई उपचरणों में सम्पन्न होती है जिसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं, ठीक उसी तरह जैसे प्रकाश क्रिया भी एक लम्बी और जटिल क्रिया है जिसके ब्यौरों को यहां अनदेखा कर दिया गया है। 
  यहां तक अब स्पष्ट है कि किस तरह प्रकाश में मौजूद ऊर्जा पेड़-पौधों में ग्लूकोज में और फिर कार्बोहाइड्रेट में पहुंच जाती है। यह भी स्पष्ट है कि जन्तु स्वयं कार्बोहाइड्रेट पेड़-पौधों से या दूसरे जन्तुओं से हासिल करते हैं- उनके भक्षण के द्वारा। 
  लेकिन अब इसकी उल्टी क्रिया पर भी बात कर लेना थोड़ा अच्छा होगा, यानी इस पर कि कार्बोहाइड्रेट में मौजूद ऊर्जा को जीव हासिल कैसे करते हैं चाहे वे वनस्पति हों या जन्तु? जीव विज्ञान में इस क्रिया को रेस्पिरेशन (श्वसन) कहते हैं, जिसका मतलब है ग्लूकोज अणु का टूट कर उसमें बंधी ऊर्जा का मुक्त होना और उसका एटीपी इत्यादि के जरिये परिवहन।
  जैसा कि पहले बताया गया है आक्सीजन की उपस्थिति में ग्लूकोज अणु टूटकर कार्बन डाई आक्साइड और पानी को जन्म देता है तथा ऊर्जा को मुक्त करता है। (ज्यादा बड़े कार्बोहाइड्रेट अणु पहले टूटकर ग्लूकोज में बदलते हैं और फिर वह क्रिया शुरू होती है) लेकिन यह क्रिया वास्तव में बहुत लम्बी है। हालांकि इस क्रिया को सम्पन्न करने के लिए आक्सीजन जरूरी है पर आक्सीजन इस बेहद लम्बी क्रिया के अंत में इस्तेमाल में आती है। तब भी आक्सीजन न होने पर यह क्रिया बीच में रुक जायेगी। 
  वनस्पतियां वायुमण्डल में मौजूद आक्सीजन को अपनी सतह से सोख लेती हैं (पत्तियों या तने की ऊपरी छाल से) तथा इस तरह रेस्पिरेशन (श्वसन) के लिए जरूरी आक्सीजन हासिल कर लेती हैं। इसके विपरीत जन्तुओं में शरीर में इस आक्सीजन के परिवहन की बाकायदा व्यवस्था होती है जो जन्तुुओं के अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग तरह की होती हैं। इंसानों में यह नाक, श्वांस नली, फेफड़े तथा खून के प्रवाह के जरिये सम्पन्न होती है। सभी जीवों में आक्सीजन अंततः कोशिका में मौजूद माइटोकाण्ड्रिया में पहुंचती है जहां ग्लूकोज अणु के अपघटन के अंतिम चरण में यह मुक्त इलेक्ट्रान को ग्रहण कर क्रिया को अंततः सम्पन्न करती है। इस क्रिया के बीच के चरण जीव विज्ञान में ग्लाइकोलिसिस और क्रेब साइकिल कहलाते हैं, जिसके विस्तार में यहां जाने की जरूरत नहीं। यहां बस इतना ही कहना होगा कि इस लंबी क्रिया में कई बार ऊर्जा निकलती और इस्तेमाल होती है, पर अंत में इतनी ऊर्जा मुक्त होती है जितनी ग्लूकोज अणु के बनते समय उसमें कैद हुई थी। 
  जैव जगत में ऊर्जा के इस प्रवाह में दो चीजें गौरतलब हैं। पहली बात तो यह कि इसमें कुछ भी रहस्यमय नहीं है। मतलब यह कि इसमें रहस्यमयता का जरा भी संकेत नहीं है जो कि अक्सर आध्यात्मवादियों द्वारा जीवन के साथ जोड़ा जाता है। यहां एकदम स्पष्ट है किजैव जगत में ऊर्जा का यह प्रवाह उन्हीं भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं के जरिये होता है जो निर्जीव जगत में भी विद्यमान हैं। यानी इस स्तर पर यहां जीवों और निर्जीवों में कोई फर्क नहीं है। जैव और अजैव में कोई फर्क नहीं है। यह प्रकृति की मूलभूत एकता को दिखाता है। यह दिखाता है सम्पूर्ण प्रकृति, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, एक ही नियम से संचालित होती है। जैव जगत उन्हीं नियमों से संचालित संपूर्ण प्रकृति का एक हिस्सा भर है। इसमें कुछ भी प्रकृति से परे का रहस्य नहीं है। 
  दूसरी बात यह है कि जैव जगत में ऊर्जा का प्रवाह यह दिखाता है कि धरती पर जीवन में मूलभूत एकता है। भांति-भांति के जीवों में, जन्तुओं और वनस्पतियों में ऊर्जा प्रवाह की मूल व्यवस्था एक ही है। वही कार्बोहाइड्रेट, वही ग्लूकोज, वही रेस्पिरेशन (श्वसन), वही माइटोकाण्ड्रिया, वही अणु, वही जैव रासायनिक क्रियाएं। फर्क केवल ऊपर की व्यवस्था में है, मूल में नहीं। यह भी जन्तुओं और वनस्पतियों को अलग-अलग देखने और खासकर इंसान को अलग, रहस्यमय जीव के तौर पर देखने वाले दृष्टिकोण को खण्डित करता है। यह बताता है कि जीवन एक ही मूल से विकसित हुआ है, इसीलिए मूल में सारे जीवों में वही व्यवस्था है। यह जैव विकास के प्रति वैज्ञानिक नजरिये को पुष्ट करता है। 
  उपरोक्त के साथ जैव जगत में ऊर्जा का यह प्रवाह भौतिकी के ऊर्जा के अविनाशिता के सिद्धान्त को भी एक अन्य कोण से, जीवन के स्तर पर, प्रदर्शित करता है। यह दिखाता है कि ऊर्जा किस तरह से विभिन्न रूपों में संचरित होती है तथा सजीव और निर्जीव जगत में इसका आदान-प्रदान चलता रहता है, बिना इसके पैदा हुए और नष्ट हुए। प्रकाश ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा में बदलती है और रासायनिक ऊर्जा जन्तुओं की गति की यांत्रिक ऊर्जा में। सूरज के निर्जीव पिण्ड सेे आई ऊर्जा जीवों से गुजर कर फिर प्रकृति के निर्जीव पिण्डों तक लौट जाती है- अन्य रूपों में। यह किस हद तक है इसे आज इन्सान की ऊर्जा जरूरतों के रूप में देखा जा सकता है जो मूलतः गैस, तेल और कोयले से पूरी हो रही हैं; जिनका आदि स्रोत सूरज का दहकता हुआ गोला ही है।

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