उच्च शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने की तैयारी
-दीपक
सन 2000 में वाजपेयी सरकार के शासनकाल में मुकेश अंबानी और कुमारमंगलम बिड़ला ने प्रधानमंत्री को अपनी रिपार्ट ‘ए पालिसी फ्रेमवर्क फाॅर रिफार्म इन एजुकेशन’ सौंपते हुए कहा कि भारत में शिक्षा का बाजार एक मुनाफे का धंधा है। इस रिपोर्ट के अनुसार ‘शिक्षा का बाजार इतना मुनाफे का धंधा है कि इसे निजी हाथों में सौंप देना चाहिए। इसके लिए शिक्षा संस्थानों में सभी तरह की राजनीतिक गतिविधियों को गैरकानूनी घोषित कर देना चाहिए।’
दरअसल 70 के दशक के बाद से ही वैश्विक मंदी के तेज-हल्के झटकों से वैश्विक पूंजी मुनाफे कमाने के नित नये रास्ते ढूंढ़ती रही है। पूंजी संचय के लिए यह आवश्यक है कि वह नित नये क्षेत्रों में लगती रहे। उद्योग व कृषि के बाजार में अपनी मार करने के बाद इस पूंजी ने सेवा क्षेत्र की ओर अपना रुख कर दिया है।
एक अनुमान के अनुसार वैश्विक शिक्षा का बाजार कई हजार करोड़ रुपये का बनता है। जिसकी भविष्य में और अधिक बढ़ने की उम्मीद है। इसी बाजार पर साम्राज्यवादी पूंजी की निगाह है। वह इस बाजार पर अपने कब्जे के लिए, अपने रास्ते के हर एक रोड़े को एक-एक करके हटा रहे हैं। जिसके लिए इनकी चाकर सरकारें नित नये समझौते कर रही हैं। नित नये कानून बना रही हैं जिससे शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण को सुगम बनाया जा सके। विश्व व्यापार संगठन तथा गेट(GATT) के तहत शिक्षा को भी शामिल करना इसी का नतीजा है। इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में वैश्वीकरण के नारे गढे़ जा रहे हैं। जिसके अंतर्गत पूंजीपतियों को शिक्षा में पूंजी निवेश, छात्रों को एक विद्यालय से दूूसरे में स्थानांतरण, विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने बाजारों में खोलने की छूट देना तथा इसी दिशा में कानूनों के जरिये इस गति को सुगम बनाना शामिल है।
एक अनुमान के अनुसार वैश्विक शिक्षा का बाजार कई हजार करोड़ रुपये का बनता है। जिसकी भविष्य में और अधिक बढ़ने की उम्मीद है। इसी बाजार पर साम्राज्यवादी पूंजी की निगाह है। वह इस बाजार पर अपने कब्जे के लिए, अपने रास्ते के हर एक रोड़े को एक-एक करके हटा रहे हैं। जिसके लिए इनकी चाकर सरकारें नित नये समझौते कर रही हैं। नित नये कानून बना रही हैं जिससे शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण को सुगम बनाया जा सके। विश्व व्यापार संगठन तथा गेट(GATT) के तहत शिक्षा को भी शामिल करना इसी का नतीजा है। इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में वैश्वीकरण के नारे गढे़ जा रहे हैं। जिसके अंतर्गत पूंजीपतियों को शिक्षा में पूंजी निवेश, छात्रों को एक विद्यालय से दूूसरे में स्थानांतरण, विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने बाजारों में खोलने की छूट देना तथा इसी दिशा में कानूनों के जरिये इस गति को सुगम बनाना शामिल है।
इस पूरी योजना में साम्राज्यवादी दबाव के साथ-साथ तीसरी दुनिया के पूंजीपतियों की खुद की चाहत भी काम कर रही है। वो साम्राज्यवादियों से सांठ-गांठ कर खुद भी इस बाजार से अधिक से अधिक मुनाफा चाहते हैं।
इसी रोशनी में अपने देश में विद्यालयों की कमी का रोना रोते हुए भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र को वैश्विक पूंजीपतियों के लिए खोलने के लिए मई, 2007 में यूपीए सरकार ‘विदेशी शैक्षणिक संस्थान(FEI) विधेयक’ संसद में लेकर आयी। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने घोषणा करते हुए कहा कि ‘‘हम अपने शिक्षा क्षेत्र को विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए खोलने जा रहे हैं और यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफडीआई) हासिल करने का एक बड़ा क्षेत्र बनने जा रहा है।’’ संसद में भारी विरोध के चलते ये बिल तो पास न हो सका परंतु विधेयक के कई प्रावधानों को सरकार पीछे के दरवाजे से लागू भी करती रही है। वर्तमान मोदी सरकार फिर से इस बिल को लाने की बात करने लगी है।
सरकार उच्च शिक्षा के निजीकरण के लिए कितनी गंभीर है इसे 12वीं पंचवर्षीय योजना(2012-2017) में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दिए गये सुझावों से भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट कहती है कि ‘‘12 वीं पंचवर्षीय योजना में प्राइवेट सेक्टर को बड़े और अच्छे संस्थान खोलने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा। मौजूदा समय में मुनाफे के लिए चलने वाले संस्थानों को उच्च शिक्षा में मौका नहीं दिया गया है और मुनाफा रहित तथा मानवीय आधार पर चलने वाले संस्थान उच्च शिक्षा की मांग को पूरा करने में अक्षम हैं। इसलिए मुनाफा रहित शिक्षा के सिद्धांत को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जांचने-परखने की जरूरत है और मुनाफे के लिए चलने वाले संस्थानों को शिक्षा के कुछ क्षेत्रों मेें प्रवेश देने की आवश्यकता है।’’
जिस प्रकार सरकार ने नर्सरी से लेकर इण्टरमीडिएट स्कूलों की हालत बदतर कर, इस क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा दिया था, उसी प्रकार वह उच्च शिक्षा के क्षेत्र को भी निजी हाथों में सौंपना चाहती है। जहां आपके जेब का आकार आपकी डिग्रियों का स्तर तय करेगा। अकारण नहीं है कि मोदी सरकार ने इस वर्ष शिक्षा बजट में कटौती की है।
उपरोक्त बातों की रोशनी में यूजीसी द्वारा इस सत्र(2015-16) से सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में लागू किये जा रहे च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम(सीबीसीएस) को समझा जा सकता है। सरकार द्वारा यह सिस्टम क्यों लाया जा रहा है? ये किसके हितों को साधता है? इन प्रश्नों का जवाब इस प्रस्ताव की गहराई में उतरकर ही समझा जा सकता है।
इस सिस्टम के तहत सभी विश्वविद्यालयों में नम्बरिंग सिस्टम को खत्म कर ग्रेडिंग सिस्टम लागू किया जायेगा। जिसके बारे में यूजीसी अपने गाइड लाइन में कहती है कि ‘‘विभिन्न विश्वविद्यालयों में अलग-अलग प्रणाली काम कर रही है। प्रस्तावित गे्रडिंग प्रणाली से एक समानता आयेगी। ग्रेडिंग सिस्टम पुराने नम्बरिंग सिस्टम से बेहतर है। इसी वजह से देश व विदेश के कई अच्छे संस्थानों में इसे पहले से ही लागू किया जा रहा है।’’
ग्रेडिंग सिस्टम, नम्बरिंग सिस्टम से किस तरह बेहतर है? इस बारे में यूजीसी मौन है। साथ ही केरल जैसे विश्वविद्यालयों में पहले से लागू सीबीसीएस पर वहां के शिक्षाविद सवाल उठाते रहे हैं। जहां तक समानता का सवाल है, हमारे देश में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के अलावा राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय भी हैं। जहां की हालत इतनी खस्ता है कि छात्र प्राइवेट संस्थानों की ओर जाने को मजबूर हुए हैं। शिक्षकों, कालेजों, संसाधनों के स्तर में समानता लाये बगैर क्या मात्र ग्रेडिंग सिस्टम को लागू करके देश के विभिन्न संस्थानों में समानता लाई जा सकती है? क्या मात्र ग्रेडिंग प्रणाली के लागू हो जाने भर से झारखण्ड विश्वविद्यालय व जेएनयू का स्तर समान हो जायेगा? इन सब सवालों का एक ही जवाब है- नहीं। तो फिर समानता का तर्क किसके लिए? दरअसल समानता का तर्क बाजार का तर्क है। शिक्षा को बाजार के हवाले करने का तर्क है। जिसके अनुसार एक समान प्रणाली लागू होने से ग्राहकों(छात्रों) को बाजार में स्थानान्तरण करने में आसानी हो। इसी स्थानान्तरण को औैर अधिक सुगम बनाने के लिए मौजूदा सिस्टम में क्रेडिट आधारित पाठ्यक्रम बनाए गए हैं। जिसमें छात्र निर्धारित क्रेडिटों को भिन्न-भिन्न कालेजों से पूरे करके भी अपनी डिग्री पूरी कर सकता है। इसके लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों को आपस में समझौते करने होंगे। जिससे छात्र अपने विश्वविद्यालय से दूसरे में जाकर पढ़ाई कर सके। लेकिन सरकारी उच्च संस्थानों में तो सीटें पहले से ही कम हैं और नए कालेजों को खोलने की सरकार की कोई मंशा नहीं है। ऐसे में छात्र किन विश्वविद्यालयों मेें जायेंगे? वे जायेंगे शारदा, लवली, अमिटी जैसे प्राइवेट विश्वविद्यालयों में। वे जायेंगे विदेशी विश्वविद्यालयों की किसी भारतीय शाखा में जहां पहले से ही यह प्रणाली लागू है। इस प्रकार समान प्रणाली और पाठ्यक्रम से छात्रों की निजी संस्थानों की ओर गति आसान हो जायेगी।
मौजूदा प्रणाली में च्वाइस का बहुत ढिंढोरा पीटा जा रहा है। जिसके बारे में यूजीसी कहती है ‘‘सीबीसीएस एक कैफेटेरिया एप्रोच लागू करेगा। जिससे छात्रों को अपनी च्वाइस चुनने की आजादी होगी।’’ आगे बढ़ने से पहले हम यह बता दें कि मौजूदा सीबीसीएस के स्नातक पाठ्यक्रम में 26 विषयों में से 20 पेपर अनिवार्य है। एक नजर पाठ्यक्रम पर भी डाल लेते हैं। इसके तहत पाठ्यक्रम को तीन भागों कोर, इलेक्टिव तथा एबिलिटी इनहांसमेंट कोर्स(एईसी) में विभाजित किया गया है। जिनमें अनिवार्य व च्वाइस आधारित पेपरों का मिश्रण है। ये ऐसी च्वाइस है जिसमें सब कुछ पहले से तय है। च्वाइस का केवल यह मतलब नहीं होता कि जो कुछ आपने तय कर दिया है, उसमें से चुनने का अधिकार हो। बल्कि जो कुछ आपने तय किया है वो सही है कि गलत। उसे लागू किया जाय कि नहीं, में से चुनने का अधिकार ही सही च्वाइस हो सकती है। यूजीसी द्वारा च्वाइस का तर्क इतना खोखला है कि डीयू के 52 कालेजों के टीचर्स स्टाफ एसोसियेशनों ने सीबीसीएस को ना लागू करने की च्वाइस प्रकट की है। फिर भी इसे लागू किया जा रहा है। ये कैसी च्वाइस है? जहां न तो छात्रों को चुनने की आजादी है और ना ही शिक्षकों को। वैसे भी पूंजीवादी व्यवस्था में दी गयी च्वाइस पूंजीपति वर्ग की ही च्वाइस होती है। वह अपनी च्वाइस को सबकी च्वाइस बताकर लागू करने की कोशिश करता है। यहां आपकी च्वाइस आपके जेब के पैसों से तय होती है। आपके जेब में पैसा है तो आप किसी नामी-गिरामी कालेज में पढ़िए और नहीं है तो घर पर बैठिए। ये आपकी च्वाइस है। हमने तो आपको चुनने का अधिकार दे ही रखा है।
सीबीसीएस के तहत एबिलिटी इन्हांसमेंट कोर्स(एईसी) में पर्यावरणीय विज्ञान एवं इंग्लिश/मीडिया एवं इन्फारमेशन लिट्रसी(एमआईएल) कम्यूनिकेशन जैसे कोर्स हैं जो छात्रों को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए अनिवार्य रूप से करने हैं। छात्रों की यह बढ़ी हुई क्षमता किसके काम आयेगी? क्या यह इन्हें रोजगार दिलाने में मद्दगार होगी? क्या यह छात्रों का सर्वांगीण विकास करेगी? सभी का उत्तर नहीं ही है। बल्कि छात्रों की यह बढ़ी हुई क्षमता पूंजीपतियों के हितों को साधती है। नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से देशी-विदेशी पूंजी की जरूरतें नए तरह के वर्करों की मांग कर रही हैं। ऐसे छात्र जो नई तकनीकों के साथ तुरंत सामंजस्य बैठा सकें। तो वहीं सेवा क्षेत्र के विस्तार ने ऐसे व्हाइट कालर वर्करों की मांग पैदा की है जो नई सूचना तकनीकी का ज्ञान रखते हों, जो इंग्लिश बोलना जानते हों जिससे वह वैश्विक स्तर पर काम कर कंपनियों का माल बेच सकें। पूंजीपतियों की इसी जरूरत को सीबीसीएस का मौजूदा ढांचा पूरा करता है। इसका पूरा पाठ्यक्रम इस तरह से तैयार किया गया है कि बाजार की जरूरत के मुताबिक तत्काल ही नए पेपरों को इसमें जोड़ा जा सके यह सिस्टम किस तरह से देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हितों को साधता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके एक अनिवार्य पेपर ‘एमआईएल कम्यूनिकेशन’ को लागू करने की पैरवी साम्राज्यवादी संस्था यूनेस्को लंबे समय से करती रही है। इसके मुताबिक एमआईएल कम्यूनिकेशन वैश्विक महत्व का है और उसे हर देश में लागू किया जाना चाहिए।
इस प्रकार सीबीसीए का पूरा ढांचा शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाते हुए छात्रों को प्राइवेट संस्थानों की ओर ढकेलने की कोशिश है। इसके जरिए पूंजीपति वर्ग अपने कारखानों में फिट करने के लिए योग्य कल-पुर्जे तैयार करना चाहता है। समाज की जरूरत, छात्रों का सर्वांगीण विकास उनका लक्ष्य न तो कभी था और ना ही है। उल्टा सेमेस्टर सिस्टम सीबीसीएस के तहत कोर्सों को इतने छोटे-पैकेटों में विभाजित कर दिया गया है, जिससे तैयार हुआ छात्र संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित होगा। जो अपने विषयों को भी संपूर्णता में नहीं समझ पायेगा। समाज की समस्याओं को समझना तो दूर की बात है। हां पर वह पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को बढ़ाने वाला एक योग्य चाकर जरूर होगा।
जरूरत बनती है कि देश के स्तर पर छात्रों-शिक्षकों के आंदोलनों को खड़ा कर सरकार के ऐसे कदमों को रोका जा सके। शिक्षा को महज मुनाफा कमाने के माल में बदल देने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ ज्ञान और शिक्षा पर मेहनतकश जनता के हक का दावा ठोका जा सके। सबको मुफ्त व वैज्ञानिक शिक्षा के नारे के साथ समाजवादी व्यवस्था के निर्माण का नारा बुलंद किया जा सके।
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