- अनुपम
यह समाज व्यवस्था अब बहुत ही सड़ांध भरी हो गयी है। इसका हाल तो उस मरीज की तरह हो गया है जिसका शरीर पूरी तरह सड़-गल गया हो जो कि अब समाज में सड़ांध फैलाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता हो। परन्तु उसके शरीर से प्राण निकलने का नाम न ले रहे हों। इस अवस्था में भी अगर यह व्यवस्था समाप्त नहीं हो रही है तो यह अपने आप समाप्त होगी भी नहीं। इसे बलपूर्वक ही समाप्त करना होगा। क्योंकि कोई भी समाज व्यवस्था तब तक समाप्त नहीं होती जब तक उसे बलपूर्वक, एक जोरदार धक्का देकर समाप्त नहीं किया जाता।
चाहे वह कितनी भी सड़-गल गयी हो, हर सामाजिक व्यवस्था का समाज में अपना एक आधार होता है और व्यवस्था के बदलने के बाद भी बहुत लम्बे समय तक बना रहता है। यह आधार राजनीति से लेकर शिक्षा, कला-साहित्य, संस्कृति हर जगह, हर क्रिया कलाप में मौजूद होता है। किसी भी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उसके इस सामाजिक आधार को समाप्त करना जरूरी होता है। व्यवस्थाजन्य विचारधारा के रूप में यह आधार और अधिरचना दोनों में मौजूद होती है और विभिन्न रूपों में यह विस्तारित भी होती रहती है। क्योंकि बिना विचारधारा के कोई भी व्यवस्था नहीं चल सकती।
किसी भी राजनीतिक व्यवस्था का आंकलन उस व्यवस्था में मौजूद उत्पादन सम्बन्धों के आधार पर किया जा सकता है। यहां पर उत्पादन के साधनों का मालिकाना किस प्रकार का है और समाज में मौजूद उत्पादन सम्बन्ध किस प्रकार के हैं। उत्पादन सम्बन्ध उत्पादन और वितरण से तय होते हैं।
सम्पत्ति के निजी मालिकाने की व्यवस्था में, सामाजिक उपभोग के लिए जो भी उत्पादन होगा वह सामूहिक होगा (उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। कोई भी उत्पाद समाज के अधिकांश लोगों के सामूहिक श्रम के मेल के बिना संभव नहीं हैै) मगर वितरण का मालिकाना निजी है तो वितरण समाज में व्यक्तिगत सम्पत्ति की हैसियत के अनुसार होता है। यानी जिसके पास जितनी अधिक सम्पत्ति है (सम्पत्ति का कोई भी रूप) उसके पास सामाजिक उत्पादन का उतना ही अधिक हिस्सा आयेगा। लेकिन जिसके पास सम्पत्ति बहुत कम या नहीं के बराबर है तो उसे सामाजिक उत्पादन में उतना ही कम हिस्सा मिलेगा। और अगर उत्पादन के साधनों का मालिकाना सामूहिक है (चाहे वह सम्पत्ति का कोेई भी रूप हो) तो वितरण भी सामूहिक होगा (क्षमतानुसार काम और आवश्यकतानुसार वितरण) इन दोनों प्रकार की उत्पादन प्रणालियों में उत्पादन और वितरण की महत्वपूर्ण भूमिका बन जाती है। निजी सम्पत्ति में वितरण निजी होगा जो कि निजी सम्पत्ति की रक्षा और विस्तार की ओर जायेगा। लेकिन सामाजिक सम्पत्ति की व्यवस्था में सम्पत्ति का रूप बदल कर अब सामुहिक हो जाना वितरण के रूप को भी बदल कर सामुहिक कर देता है जो कि सामुहिकीकरण की प्रक्रिया को और विस्तारित कर उत्पादन और वितरण के समाजीकरण की ओर ले जायेगा। जहां सम्पूर्ण सम्पत्ति का मालिकाना पूरे समाज का होगा, उत्पादन की यह प्रक्रिया अपनी गतिकी में वर्गविहीन समाज की ओर ले जायेगी। जहां पर सम्पत्ति के सभी रूपों का समापन हो जायेगा।
किसी भी सामाजिक व्यवस्था से पुराने सामाजिक आधार को समाप्त करने के लिए वैचारिक संघर्ष ही करना होगा जिसके मूल में शोषण विहीन, वर्ग विहीन समाज की राजनीतिक विचारधारा प्रमुख होगी। यह वैचारिक संघर्ष समाज के उन वर्गों और तबकों में होगा जो कि इस व्यवस्था के सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हिस्से हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं, इस व्यवस्था में सबसे अधिक सम्पत्तिहरण के शिकार हैं।
किसी समाज में पुराने विचारों के स्थान पर नये विचारों को स्थापित करने के लिए बहुत अधिक धैर्य की जरूरत होगी। यह कार्य कठिन तो होगा ही क्योंकि पुरानी विचारधारा समाज की रग-रग में समा चुकी होती है। यह आधार और अधिरचना दोनों में मौजूद होती है और विभिन्न माध्यमों से अपना प्रचार-प्रसार करती रहती है। यह किसी भी व्यवस्था के टिके रहने के लिए आवश्यक आधार होता है कि वह अपनी विचारधारा का लगातार प्रचार-प्रसार कर समाज में अपना प्रभुत्व कायम करे।
किसी भी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उसके उस समाज में मौजूद वैचारिक प्राधिकार को समाप्त किया जाना आवश्यक है। जब तक समाज में पुराने विचार मौजूद होते हैं तब तक नये विचारों को समाज स्वीकार नहीं करता। नये विचारों को समाज में स्थापित करने के लिए एक लम्बे दीर्घकालिक कार्य और वैचारिक संघर्ष की जरूरत होती है। यह वैचारिक संघर्ष भी वर्ग संघर्ष का ही एक रूप है जो कि अपनी बारी में बहुत तीखा होता है। किसी वर्ग की सामाजिक हैसियत को, उसकी विचारधारा को समाप्त करना इसलिए और भी जरूरी होता है क्योंकि उसे समाप्त किये बिना उसके स्थान पर एक नयी विचारधारा को स्थापित करना संभव नहीं होता है। इसके बिना समाज को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।
वर्गों में बटा यह समाज हमेशा एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण पर टिका है। यह शोषण सम्पत्ति का लगातार विस्तार करता रहा है। एक तरफ कुछ लोग होते हैं जिनके पास सम्पत्ति का भंडार लगातार बढ़ रहा होता है। समाज में जिनकी संख्या बहुत कम होती है। तो दूसरी तरफ समाज का बहुत बड़ा हिस्सा होता है जिसके पास सम्पत्ति नहीं के बराबर होती है। सम्पत्तिवानों की सम्पत्ति लगातार बढ़ती जाती है जबकि सम्पत्तिहीन समाज लगातार और अधिक कंगाली की तरफ बढ़ता जाता है। यह स्थिति लगातार बढ़ती जाती है और असमाधेय हो जाती है।
यह वह स्थिति होती है जहां पर समाज में मौजूद उत्पादन सम्बन्ध, उत्पादन के साधनों के आगे के विकास में बाधक बन जाते हैं। अब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि इन सम्बन्धों को बदल दिया जाय लेकिन यहां पर अब यह बदलाव उस पुराने तरीके से नहीं हो सकता कि सम्पत्ति के एक रूप के स्थान पर उसका दूसरा रूप कायम हो जाये। इस रूप में समाज में सम्पत्ति का रूप ही बदल सकता है, शोषण का चरित्र नहीं। जैसे कि सामंती समाज की जगह पूंजीवादी समाज का आ जाना। निजी सम्पत्ति का सामंती के स्थान पर पूंजीवादी हो जाना। लेकिन अब लक्ष्य सम्पत्ति के सभी प्रकार के रूपों को समाप्त कर, सम्पत्तिविहीन (वर्गविहीन) समाज के निर्माण का होगा। इस रूप में समाज परिवर्तन की यह प्रक्रिया पुरानी प्रक्रियाओं से भिन्न होगी और उससे जटिल भी होगी। क्योंकि निजी सम्पत्ति पर आधारित इस समाज का आमूलचूल परिवर्तन कर सम्पत्ति के सभी रूपों को मिटाना होगा।
इस परिवर्तन के दौरान सम्पूर्ण समाज में उथल-पुथल होनी है क्योंकि समाज में मौजूद सभी वर्गों का प्रतिरोध जीवन-मरण का होगा, यह संघर्ष अपने-अपने वर्ग हितों के लिए होगा, शासक और शासित दोनों का। इस कठिन संघर्ष के बाद जो समाज अस्तित्व में आयेगा वह वास्तविक रूप से उन पुराने विचारों, परम्पराओं और मूल्य-मान्यताओं से भिन्न होगा। उसके पास अब नई सोच, नई परम्परा और नयी मूल्य-मान्यताऐं होंगी जो कि इस समाज को नव निर्माण की उस राह में ले जायेंगी जो कि इतिहास का लक्ष्य है। यानी वर्ग विहीन, शोषण विहीन समाज का निर्माण।
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